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मेरी पसंद - जया नर्गिस
जया नर्गिस


लघुकथा लिखना जिस तरह कठिन है, उसके विषय में लिखना भी वैसा ही कठिन है। लगभग 30 साल हुए, जब मैंने लघुकथाएँ लिखना शुरू किया। इन वर्षों में अनगिनत लघुकथाएँ पढ़ी भी। बहुत लोग अच्छा लिख चुके, लिख रहे हैं। पर चंद नाम ज़हन में चस्पा हैं। एक पारस दासोत हैं। ग़ज़ब का शिल्पी है। लघुकथा भी ऐसे गढ़ता है, मानो मूर्तिमान कर रहा हों। ।शंकर पुणतांबेकर, पवन शर्मा, निशा व्यास जैसे नाम अपना मकाम लघुकथा की प्रखर आँधी के साथ आए और अडिग बने रहे।
आज मैं दो लघुकथाओं की बात कर रही हूँ वे भी सिद्ध नाम हैं साहित्य में। पहला नाम चित्रा मुद्गल। इनकी लघुकथा ‘रिश्ता’ ‘बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ’ (सं. सुरेश शर्मा) में पढ़ी। लेखिका ने बुजुर्ग नर्स के माध्यम से चरित्र का अलग एंगल प्रस्तुत किया है। अपनी सेवा–परिचर्या को ममत्व का पानी चढ़ाकर रोगी के हित में प्रस्तुत करना और इस सेवा–भाव को व्यक्तिगत रिश्ते की चौखट से न लाँघना लघुकथा को यूनिक और सशक्त बनाता है। भाषा सहज और शैली चित्रा जी की जानी–मानी, बेलाग है। शिल्प चरित्रों को चित्रांकित करता है, बिना बखान के। दूसरी लघुकथा है ‘छोटे बड़े सपने’ रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ‘असभ्य नगर’ में प्रकाशित (लेखक की ल.क.संकलन)यह अति सरल भाव–स्तर पर कही गई साधारण बात में से तरल होती पीड़ा का सशक्त उदाहरण है। तीन बच्चे अपने–अपने सपनों की खुशी आपस में बट रहे हैं। पहला सुदूर भ्रमण का आनंद स्वप्न में उठ चुका है, दूसरा स्कूटर ड्राइविंग का लुत्फ़ ले चुका है। तीसरा सपने में ढेर सारी रोटियाँ खाकर तृप्त हो चुका है। ‘ढेर सारी रोटिया खाईं नमक और प्याज़ के साथ’ उसके इस संवाद को पढ़कर आंखें नम हों न हों दिल में कुछ स्निग्ध सा तैरता अनुभव होता है। किस तरह रोटी,नमक,प्याज़ भी ग़रीब के लिए स्वप्न हो रही है, इससे सरल और मार्मिक ढंग से बयान करना शायद संभव नहीं। कथानुरूप संवाद सीधे–सरल शब्दों में हैं। शैली में कोई बनावट नहीं पर शायद बुनावट कसी हुई है। कथ्य लघुकथा के अंत यानी सही जगह प्रकट होता है।
उक्त दोनों लघुकथाओं को पसंद करने पर बाध्य होना इसके पाठकों की नियति होगी।
मेरी नजर में लघुकथा नैनो बम है जिसका उपयोग केवल साहित्यिक हित में संभव है, (ग़नीमत है)। इसकी तीव्रता और प्रहारकता ही इसकी सिद्धि एवं अनिवार्य आवश्यकता है। सूक्ष्म या लघु आकार तो इसकी पहली शर्त है। यह बाहयाकार की बात है। ग़ज़ल के शेर की तरह गागर में सागर की तर्ज पर लघुकथा अपने भीतर एक वृहद और महत्त्वपूर्ण कन्सेप्ट रखती है। यह अवश्यंभावी सर्जरी की तरह है; जो रोग को समूल नष्ट करने के लिए ही निर्मम लेकिन सधा हुआ औज़ार साबित होती है। शिल्प की कसावट और सौंदर्य को नकारा नहीं जा सकता। भाषा और शैली कथा एवं चरित्र ही निर्धारित करते हैं। लघुकथा लघुकथा ही बनी रहे। चुटकुला या नीति, बोध कथा न बने, यह ज़रूरी है।
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रिश्ता: चित्रा मुद्गल

लगभग बाईस दिनों तक ‘कॉमा’ में रहने के बाद जेब उसे होश आया था तो जिस जीवनदायिनी को उसने अपने करीब, बहुत निकट पाया था, वे थीं मारथा मम्मी। अस्पताल के अन्य मरीजों के लिए सिस्टर मारथा। वह पूना जा रहा था......खंडाला घाट की चढ़ाई पर अचानक वह दुर्घटाग्रस्त हो गया। जख्मी अवस्था में नौ घंटे तक पड़े रहने के बाद एक यात्री ने अपनी गाड़ी से उसे सुसान अस्पताल में दाखिल करवाया.....पूरे चार महीने बाद वह अस्पताल से डिस्चार्ज किया गया। चलते समय वह मारथा मम्मी से लिपटकर बच्चे की तरह रोया। उन्होंने उसके माथे पर ममत्व के सैकड़ों चुंबन टाँक दिए। ‘गॉड ब्लेस यू माय चाइल्ड....’ डॉ0 कोठारी से उसने कहा भी था, ‘‘डॉ0 साहब! आज अगर इस अस्पताल से मैं जिंदा लौट रहा हूँ तो आपकी दवाइयों और इंजेक्शनों के बल पर नहीं, मारथा मम्मी के प्यार के बल पर।’’
उस रोज वे उसे गेट तक छोड़ने आई थीं और जब तक उसकी गाड़ी अस्पताल के गेट से बाहर नहीं हो गई, वे अपलक खड़ी विदाई में हाथ हिलाती रही थीं....
वही मारथा मम्मी....आज जब अरसे बाद वह उनसे वार्ड में मिलने पहुँचा तो उन्हें देखकर खुशी से पगला उठा। वे एक मरीज के पलंग से सटी उसकी कलाई थामे धड़कनों का अंदाजा लगा रही थी। उन्होंने मरीज की कलाई हौले से बिस्तर पर टिकाई कि उसने उन्हें अचानक पीछे से बाजुओं में उठा लिया।
‘‘अरे,अरे, क्या करता है तुम....इडियट....छोड़ो मेरे को! ये अस्पताल है ना।’’
वह सकपका उठा। उन्हें फर्श पर खड़ा करते हुए उसने अचरज से मारथा मम्मी को देखा। ‘‘मैं आपका बेटा अशोक, मम्मी? पहचाना नहीं आपने मुझे....!’’
‘‘पेचाना, पेचाना....पन अभी मेरे को टाइम नई.....डियूटी पर ऐसा नई आने का मिलने कू। अब्बी जाओ तुम...देखता नई पेशेन्ट तकलीफ में हय....’’उन्होंने उसे तिक्त स्वर में झिड़का।
वह उनके अनपेक्षित व्यवहार से स्तब्ध हो उठा, तिलमिलाया–खिसियाया सा फौरन मुड़ने लगा कि तभी उसी मरीज की प्राणलेवा कराह सुनकर क्षणांश को ठिठक गया। मरीज के पपडि़याये होंठ पीड़ा से बिलबिलाते बुनबुदा रहे थे, ‘‘माँ....ओ....माँ....हा....आ....’’
‘‘माय चाइल्ड, आॅय अंम विद यू। हैव पेशन्स...हैव पेशन्स...’’ उसकी मारथा मम्मी अत्यन्त स्नेहिल स्वर में उस मरीज का सीना सहला रही थी....’’
वह मुड़ा और तेजी से वार्ड से बाहर हो गया।
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खुशबू: रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

दोनों भाइयों को पढ़ाने-लिखाने में उसकी उम्र के खुशनुमा साल चुपचाप बीत गए। तीस वर्ष की हो गई शाहीन इस तरह से। दोनों भाई नौकरी पाकर अलग-अलग शहरों में जा बसे।
अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह।
खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं। कनपटी के पास कुछ सफेद बाल भी झलकने लगे। आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक-सी उठी-‘कितनी अकेली हो गई है मेरी जिन्दगी! किस बीहड़ में खो गए मिठास-भरे सपने?’
भाइयों की चिट्ठियाँ कभी-कभार ही आती हैं। दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं। उदासी की हालत में वह पत्र-व्यवहार बंद कर चुकी है। सोचते-सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी। आँखों में आँसू भर आए। आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था। घर में भी रहे तो माँ की हाय-तौबा कहाँ तक सुने?
उसने आँखें पोंछीं और रिक्शा से उतरकर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ कदम बढ़ाए। पहली घंटी बज चुकी थी। तभी ‘दीदीजी-दीदीजी’ की आवाज्ञ से उसका ध्यान भंग हुआ।
"दीदीजी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ।" दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिए उसकी तरफ बढ़ी।
शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई। वह मंद-मंद मुस्करा रही थी। उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया। शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिए।
गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ तेजी से बढ़ गई।

 
 
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