लघुकथा एक ऐसी विधा है जिसको लेकर अभी तक कई स्थापित और सम्माननीय साहित्यकार नाक-मुँह सिकोड़ते हैं, जबकि देखा जाए तो कुछेक को छोड़कर लगभग हर कहानीकार और उपन्यासकार ने कभी ना कभी लघुकथा पर अपना हाथ आजमाया है । चाहे वह मुंशी प्रेमचंद हों, चाहे चन्द्रधर शर्मा गुलेरी हों विष्णु प्रभाकर या रवीन्द्र नाथ टैगोर ;कोई भी लघुकथा लिखने के मोह से छूट नहीं पाया है. एक नवलेखक के तौर पर लघुकथा ने मुझे हमेशा से ही आकर्षित किया है. भले ही इसकी शुरुआत नवीं कक्षा में चलने वाली अंग्रेजीदां स्टाइल की बड़ी लघुकथाओं 'सप्लीमेंटरी रीडर' की अंग्रेजीदां स्टाइल की बड़ी लघुकथाओं से हुई हो लेकिन मुझे जो खूबियाँ लघुकथा और खासतौर पर हिन्दी लघुकथाओं में दिखाई देती हैं वह किसी भी बड़े उपन्यास या कहानी से कम नहीं हैं। जिस तरह कविवर बिहारीलाल ने दोहों के द्वारा गागर में सागर को चरितार्थ किया, कबीर ने साखियों के रूप में जो बात कही, जो बात ग़ालिब और मीर के शेर कहते हैं ;वही बात आज के समय में लिखी गई बेहतरीन लघुकथाएँ कहती दिखती हैं. कम शब्दों में बड़ी और नई बात कहती हुई दिखने वाली एक लघुकथा जो संतुष्टि देती है वह अन्य विधाओं में कम ही मिलती है।
इसी बात से तुलना करते हुए पेड़ों को बचाने के प्रयासों पर मुझे अपनी पसंद की डॉ. किशोर काबरा लिखित एक लघुकथा 'पेड़ और बच्चा' याद आती है. लघुकथा इस प्रकार है कि उस पेड़ से हर किसी का लेना-देना था; लेकिन सिर्फ अपने निजी स्वार्थ हेतु. एक चित्रकार का उससे सिर्फ इतना सरोकार थे कि वह पेड़ खूबसूरत था और उतनी ही खूबसूरत उस पेड़ की बनाई हुई तस्वीर हो सकती थी; जो उसे यश और धन दिला सकती थी, कवि के लिए वह पेड़ कुछ शानदार कविताओं की प्रेरणा हो सकती थी, संगीतकार के लिए संगीत अभ्यास की माकूल जगह, पंडित जी के लिए धर्मपरायणता दिखलाने का साधन और चिड़िया के लिए रहने का स्थान. हरेक का निजी लाभ ही महत्वपूर्ण था, जिसके कि पूरे होते ही उनके लिए पेड़ की कोई जरूरत न बची थी. सिर्फ वही एक बच्चा था जो कि उस उम्र में शायद बिना विज्ञान को पढ़े यह जानता रहा होगा कि पेड़ में भी उसी की तरह जीवन है, पेड़ प्रकृति का कितना महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं और मनुष्य के जीवित रहने के लिए कितने आवश्यक हैं. शायद ये सब बातें भी बच्चे के मन-मष्तिष्क में न रही हों। बहुत संभव है कि वह बच्चा नित्य उस पेड़ के नीचे खेलता रहा हो और यहाँ पर उसका भी यही स्वार्थ रहा हो ;मगर क्या अपने स्वार्थ को ध्यान में रखते या न रखते हुए किसी और ने पेड़ के भले के लिए सच में यह सोचा कि इसका जीवित रहना जरूरी है? नहीं.. बिलकुल नहीं, यह बात सिर्फ उस बच्चे के दिमाग में आई वर्ना वह भी औरों की तरह कह सकता था कि 'इस पेड़ को मत काटो, मुझे जरा खेल लेने दो.'. लघुकथा हमें बताती है कि उस बच्चे का यह निश्छल प्रेम ही उस पेड़ के प्रति असली प्रेम है.
मैं अपनी पसंद की दूसरी लघुकथा की ओर चलता हूँ जो कि मेरे सबसे पसंदीदा लेखक खलील जिब्रान द्वारा लिखी गई है- महत्वाकांक्षा’‘यह लघुकथा अपने आप में आदर्श लघुकथा का एक उदाहरण कही जा सकती है. कम से कम शब्दों में लेखक ने ऐसी लघुकथा कही है कि इसको जितने कोणों से देखी जाए उतनी ही बातें दिखाई देंगीं. मेरा नजरिया जो कहता है कि यह लघुकथा एक बार फिर समाज में होने वाले लाभ-हानि दोनों की अपनी महत्ताओं को दर्शाती है. पहले की हानि दूसरे का लाभ बन सकती है और दूसरे का लाभ तीसरे की हानि. जीवन संभावनाओं और महत्वाकांक्षाओं के खम्भों पर टिका हुआ है. जीवन कर्त्तव्य मार्ग पर सतत चलते जाने का नाम है, आनंद का नाम है, कई पड़ाव आते हैं जो आपको खुशी मनाने का मौक़ा देते हैं लेकिन कहीं ना कहीं आपकी ये खुशी किसी को तकलीफ देकर आती है. जैसे कि जुलाहे, बढ़ई और हलवाहे इन तीनों के लिए ही जो खुशी मनाने का मौक़ा आया था वह किसी ना किसी लाश की छाती पर चढ़ कर ही आया था. जिस दिन तीन घरों के चूल्हे न जले होंगे उस दिन इन्हें भर पेट लज़ीज़ खाना मिला होगा और इस सब से वाकिफ हो या अन्जान मगर अपने बेटे को सुखमयी ज़िंदगी देने के वास्ते शराबखाने के मालिक की पत्नी अनजाने ही कुछ और लोगों की मृत्यु की दुआ माँग रही थी। वह नहीं जानती होगी कि जो बात उसके ग्राहकों के लिए भाग्य लेकर आई है वह किसी के लिए दुर्भाग्य रहा होगा. हर व्यक्ति का जीवन ठीक इसी तरह अपने भाग्य और दूसरों के दुर्भाग्य पर टिका हुआ है, एक के नुकसान से दूसरे का फायदा होना तय है. अक्सर हम अपनी महत्वाकांक्षाओं के मार्ग और खुशियों की तलाश में औरों के ग़म को नज़रअंदाज़ कर जाते हैं. लघुकथा में एक भी शब्द अनावश्यक नहीं जान पड़ता है, कम से कम शब्दों में कालजयी साहित्य का सृजन और जीवन-दर्शन का उद्घाटन हुआ है।
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1-पेड़ और बच्चा- डॉ. किशोर काबरा
पेड़ काटने वाले आ गए और हरा-भरा पेड़, छायादार पेड़, फलदार पेड़, मेरे घर के आगे वाला पेड़ काटने लगे ।
चित्रकार ने कहा, ‘ज़रा रुकना, मुझे इस पेड़ का एक चित्र बनाने दो ।’
कवि ने कहा, ‘ज़रा रुकना, मुझे इस पेड़ पर एक कविता लिखने दो ।’
संगीतकार ने कहा, ‘ज़रा रुकना, मुझे इस पेड़ के नीचे बैठकर एक गीत गाने दो ।’
पंडित जी ने कहा, ‘मुझे इस पेड़ की पूजा करने दो ।’
चिड़िया ने कहा, ‘ज़रा रुकना, मुझे मेरे घोंसले के तिनके यहाँ से ले जाने दो ।’
उसी समय मेरा बेटा दौड़ता हुआ आया और उस पेड़ से चिपककर बोला,‘मैं पेड़ हुँ, मुझे काटो ।’
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2-महत्वाकांक्षा :खलील जिब्रान
तीन आदमी शराबखाने की मेज पर मिले। एक जुलाहा, दूसरा बढ़ई और तीसरा हलवाहा। जुलाहा कहने लगा, ‘‘आज मैंने महीन कपड़े का कफन दो सोने के सिक्कों में बेचा। चलो आज जितनी चाहों शराब पी लो।’’
बढ़ई ने कहा, ‘‘मैंने आज अपना सबसे महँगा ताबूत बेचा । शराब के साथ भुना हुआ माँस भी खाएँगे।’’
फिर हलवाहा बोला, ‘‘मैंने तो आज कब्र खोदी, पर मेरे मालिक ने दुगुनी मजदूरी दी। आज हम शहदवाले केक भी खाएँगे।’’ और उस शाम शराब खाना बहुत व्यस्त रहा, क्योंकि वे तीनों बार–बार शराब,माँस और केक माँगते रहे। वे बहुत खुश थे। वहाँ का मालिक पत्नी की ओर देखकर मुस्कुराता रहा। उसके ग्राहक खूब खुले दिल से खर्चा कर रहे थे। आधी रात के बाद वे तीनों बाहर आए। उसकी पत्नी की ओर देखकर मुस्कुराता रहा। उसके ग्राहक खूब खुले दिल से खर्चा कर रहे थे। आधी रात के बाद वे तीनों बाहर आए। सड़क पर गाते–चिल्लाते हुए जा रहे थे। शराबखाने का स्वामी और उसकी पत्नी दरवाजे से उनको देखते रहे, फिर पत्नी ने कहा, ‘‘आह ! ये भद्र लोग कितने खुश मिजाज और खुले दिल वाले है? काश, ये रोज ऐसा भाग्य ला सकते, तो हम अपने बेटे को शराबखाने का मेहनत वाला काम न करवाते। उसे शिक्षित करके पादरी बना देते।’’
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