लघुकथा मेरी पसंदीदा साहित्य–विधा है। लघुकथा का कलेवर इतना लघु है कि इस पर नज़र पड़ते ही यह सारी पढ़ ली जाती है। यही इस की सबसे बड़ी शक्ति है। लघुकथा की सहज–सुगम पठनीयता ही इसे आधुनिक काल की सबसे सार्थक एवं उपयोगी विधा बना देती है। विधाएँ मनुष्य की अभिव्यक्तिगत आवश्यकताओं–विवशताओं की उपज होती हैं। मनुष्य को स्व–अभिव्यक्ति हेतु जिस–जिस विशिष्ट रूप की जब–जब आवश्यकता हुई, तब–तब नई विधा ने जन्म लिया।
पिछले चार–पाँच दशक में लघुकथा ने एक लंबा सफ़र तय कर लिया है। उपदेश प्रधान,नीतिप्रधान और अंत से चमत्कृत कर देने वाली लघुकथा ओं से होता हुआ यह कारवाँ आजे उस मोड़ पर आ पहुँचा है ;जहाँ जीवन के मामूली से मामूली प्रतीत होने वाले क्षण या पल को भी लघुकथा का विषय बनाया जा रहा है। शिल्प की दृष्टि से भी विवरण प्रधान और प्रतीकात्मक लघुकथा ओं से शुरू हुई यह यात्रा आत्मकथात्मक, संवादात्मक शैलियों आदि से होती हुई उस बिंदु पर आ गई है; जहाँ लघुकथा कार बिम्ब–सृजन के माध्यम से अपनी बात कहने लगा है। दरअसल जीवन स्थितियाँ अपनी अभिव्यक्ति स्वयं लेकर आती हैं। लघुकथाकार की जीवन को देखने वाली नज़र जितनी सूक्ष्म होती चली जाएगी....जितनी गहन होती चली जाएगी....अभिव्यक्ति भी उतनी ही प्रखर और परिवर्धित होती चली जाएगी।
अपने कथन की पुष्टि के लिए मैं दो लघुकथाएँ प्रस्तुत करना चाहता हूँ। एक रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’की ‘भग्नमूर्ति’ दूसरी डॉ. कुलदीप सिंह की ‘सब ठीक है’।
‘भग्नमूर्ति एक बहुत ही आम स्थिति को बड़ी सहजता के साथ प्रस्तुत करती है। ‘भग्नमूर्ति’ पढ़ने वाले हर पाठक को लगता है कि यह तो बड़ी जानी–पहचानी स्थिति है...परंतु किसी कारणवश उसने इस पर ग़ौर ही नहीं किया था। मुझे लगता है ऐसी हालत से हर व्यक्ति जीवन में कभी न कभी आवश्य गुज़रता है कि वह बड़े अरमान लेकर किसी के यहाँ जाए और उसे उचित आवभगत न मिले। यही नहीं इस लघुकथा की अभिव्यक्ति भी बड़ी सहज है। लघुकथाकार ने बड़े स्वाभाविक ढंग से जीवन–स्थिति का वर्णन भर कर लिया है। यहाँ पाठक और ‘जीवन स्थिति’ आमने–सामने हैं.... लघुकथाकार ने इस ख़ूबी से अपनी बात कही है कि वह स्वयं कहीं नज़र भी नहीं आता।
डॉ0 कुलदीप सिंह की ‘सब ठीक है’ भी मृत्यु–संस्कार के बाद घरों में घटित होने वाली आम घटनाओं पर आधारित हैं ।क्रियाकर्म के बाद सारा सामान सँभाला जा रहा है। सामान की गिनती के मामले में तो सब ठीक हैं, परंतु जो छोड़कर चला गया है, उसके बिना कुछ भी ठीक नहीं रहने वाला। इस प्रकार सामान्य घटना का सामान्य वर्णन करने वाली यह लघुकथा गहरी संवेदना छोड़ जाती है।
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1-भग्रमूर्ति- रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
सरूप जी का मकान पूछते–पूछते मैं परेशान हो चुका था। जब किसी से पता नहीं चला तो मैं ऑॅटो छोड़कर उस पॉश कॉलोनी में पैदल ही चल पड़ा। चिलचिलाती धूप में मेरा सिर चकराने लगा। कंठ प्यास के मारे सूख गया। ऐसे में कहीं से एक गिलास पानी मिल जाता।
सरूप जी ने कहा था–कभी इधर आओ तो जरूर मिलना। घूमते–भटकते नेम प्लेट पर दृष्टि पड़ी ,तो जान में जान आई। आँगन में मौलसिरी का छतनार पेड़ और उसके नीचे स्थापित सरस्वती की कमनीय मूर्ति। मन शीतल हो गया।
लोहे का भारी गेट दो बार खटखटाया। नारी–कंठ की समवेत् खिलखिलाहट में खटखटाहट डूबकर रह गई। तीसरी बार गेट खटखटाने पर भीतर से ऊब भारी आवाज़ आई–‘‘कौन है भाई?’’
‘‘सरूप जी घर में हैं?’’ मैं गेट खोल कर आगे बढ़ा–‘‘मैं हूँ विजय प्रकाश। लखनऊ से आया हूँ।’’
‘‘विजय प्रकाश?’’ वे बाहर आकर अचकचाए। सामने के कमरे में कुछ नज़रें मुझे घूर रही थीं।
‘‘आपने पहचाना नहीं? पिछले साल अभिनंदन समारोह में मिले थे हम लोग।’’
‘‘अरे हाँ याद आया। आपने अभिनंदन–पत्र पढ़ा था।’’ वे माथे की सिलवटों पर हाथ फेरते हुए बोले–‘‘बहुत अच्छा पढ़ा था भाई आपने। सुबह ही बम्बई से लौटा हूँ। ‘कला भारती’ में कल मेरा सम्मान किया गया।’’
वे वहीं खड़े–खड़े आयोजन की गतिविधियाँ सुनाते रहे। मुझे थकान महसूस होने लगी। प्यास और तेज़ हो गई थी। परन्तु पानी पीने की इच्छा जैसे मर चुकी थी।
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2-सब ठीक है : डॉ0 कुलदीप सिंह
कल तेरहवीं थी। शोक व्यक्त करने आए रिश्तेदार शाम को ही वापस चले गए थे। दो–चार जो करीबी थे, रात को रुके तो थे, परन्तु सुबह–सुबह वे भी चले गए। नन्दा की मौत के बाद तेरह दिन कैसे कट गए पता ही नहीं चला था। एक तो गर्मी में आने वाले लोगों–संबंधियों की भीड़ और उस पर तेरहवीं की तैयारी। नन्दा के चले जाने के दुख में मिश्रा जी खुलकर रो भी नहीं पाए थे। एकांत में नन्दा को जीभर कर याद करने और आँसू बहाने के बीच घर–परिवार और तेरहवीं की तैयारी की जिम्मेदारी खड़ी थी।
आज सुबह से ही र सूना–सूना लग रहा था। अपनी जीवन संगिनी के हमेशा–हमेशा के लिए बिछुड़ने का एहसास आज सचमुच ही उन पर हावी था। मिश्रा जी सोच रहे थे आज दिन–भर पलंग पर पड़े–पड़े नन्दा का ही स्मरण करूँगा, परन्तु बड़े बेटे ने सुबह ही ताकीद कर दी थी कि घर के सारे बर्तन–भांडो, कपड़े–लत्तों और दूसरी चीजों का हिसाब–किताब करके सहेज कर रख लें।
मिश्रा जी बर्तनों के बड़े–से ढेर के सामने बैठे–बैठे सोचने लगे कि नन्दा ने कितने प्यार से इन बर्तनों को सँभाल कर रखा था। वह अक्सर का करती थी कि घर में जब भी कोई आयोजन हो, उसके बाद घर के सारे बर्तनों और दूसरे सामान को गिनकर ही रखना चाहिए ; क्योंकि कई बार आयोजनों में घर का बहुत–सा सामान गुम हो जाता है।
मिश्रा जी ने नम आँखों से चम्मच, कटोरी, गिलास और थालियों का अलग–अलग ढेर लगाकार उन्हें गिना, कपड़े से पोछा और अलमारी में रख दिया।
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