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मेरी पसंद -डॉ .सुधा ओम ढींगरा
डॉ .सुधा ओम ढींगरा

मेरी मौसी प्रज्ञाचक्षु थीं । उनको कहानियाँ सुनाने का बहुत शौक था । संयुक्त परिवार था हमारा और घर के सारे बच्चे शाम होते ही उन्हें घेर लेते थे । उनकी कई कहानियाँ बहुत लम्बी होती थीं और दो- तीन दिन तक चलती थीं, कुछ सिर्फ चंद पंक्तियों में ही समाप्त हो जाती थीं । इन छोटी कहानियों का अंत बहुत दमदार होता था; जो बालबुद्धि पर भारी पड़ जाता था । बाद में समझ आया कि वह डृष्टान्त कथा होती थी । मौसी जी की ये छोटी कहानियाँ लोक कथाओं और लोक गाथाओं से ली हुई होती थीं । इन कहानियों में कम शब्दों में कही गई बात और अंत का तीखापन मुझे बहुत आकर्षित करता था । थोड़ी बड़ी होने पर समाचार पत्र और पत्रिकाओं में ऐसी ही छोटी-छोटी कहानियाँ ढूँढ कर पढ़ती रही । कबीर की साखियों और उर्दू के शे'रों- सा, गागर में सागर भरतीं इन छोटी कहानियों का धीरे -धीरे रंग -रूप बदला और लघुकथाओं के नाम से प्रचलित एवं प्रतिष्ठित हुईं । लघुकथा संज्ञा मिले अधिक समय नहीं हुआ पर समय और परिस्थितियों ने लघुकथा के स्वरूप, कथ्य और शिल्प को बहुत सँवार और निखार दिया है ।१९८० में एक साहित्यिक गोष्ठी में मेरी मुलाकात रमेश बत्रा से हुई और उन्होंने मुझे इस विधा की महत्ता और बारीकियाँ समझाईं थीं ।
मुझे वह लघुकथा याद रहती है ;जो जटिल से जटिल समस्या को सहज शिल्प और शैली में मर्मस्पर्शी ढंग से सरल भाषा में प्रस्तुत की गई होती है । लघुकथा और कहानी के यथार्थ में शिल्प और शैली की जो लक्ष्मण रेखा होती है उसका उल्लंघन कई बार लघुकथा के स्वरूप को बिगाड़ देता है । यह इतनी महीन रेखा है कि जिन लेखकों ने इसे समझ कर लघुकथाएँ रची हैं, वे पाठकों और आलोचकों द्वारा सराही गई हैं । आकार में छोटा होने से जैसे कहानी लघुकथा नहीं हो सकती वैसे ही लघुकथा के मुख्य अंग कल्पना और चित्रण का अतिरेक लघुकथा की आत्मा को ही मार डालता है ।
ख़लील ज़िब्रान और मंटो के साथ बहुत से लेखकों की लघुकथाएँ मानस पटल पर अंकित हैं ;जो मेरी निधि हैं । सुकेश साहनी की गणित और कसौटी, श्याम सुन्दर 'दीप्ति' की हद और रिश्ता, सुभाष नीरव की धूप, शंकर पुणतांबेकर की और यह वही था, शरद जोशी की मैं वही भगीरथ हूँ, शरन मक्कड़ की रोबोट, दलीप सिंह वासन की रिश्ते का नामकरण, विकेश निझावन की कटे हाथ, चित्रा मुद्गगल की बोहनी, बलराम अग्रवाल की कंधे पर बैताल, पारस दासोत की कुआँ और कुआँ, वरियाम सिंह संधू की काली धूप, युगल की मुर्दा, श्याम सुन्दर अग्रवाल की संतू, विष्णु प्रभाकर की चोरी का अर्थ, महेश दर्पण की मन का चोर, हसन जमाल की खुशफहमी आदि ।सूची इतनी लम्बी है कि पृष्ठ भर जाएँगे । ये लघुकथाएँ अपनी बुनावट और भावबोध में बेजोड़ हैं । अपने गठन तथा स्वरूप की भिन्नता से पाठकों को इन्हें याद रखने के लिए मजबूर करती हैं । उस निधि में से दो लघुकथाओं की चर्चा करना चाहती हूँ ; जिनके कथ्य मैंने निकट से घटित होते देखे हैं । वे लघुकथाएँ मेरे मस्तिष्क में अपनी अमिट छाप छोड़ गई हैं और वे कभी भुलाई ही नहीं जा सकती ।
कई बार लिखा हुआ सच जीवन के सच से कितना समन्वित हो जाता है कि घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी अगर उन लघुकथाओं का पाठक भी है तो उसका अचम्भित होना स्वाभाविक है ।
उस दिन अचंभित ही तो रह गई थी जब मेरी साथी काऊंसलर वनेसा हेगन ने मुझे अपने दफ्तर में बुलाया था एक केस डिस्कस करने के लिए । दरअसल वह चाहती थी कि मैं उस युवती से मिल लूँ जो उसके पास सहायता के लिए आ रही थी । उस युवती के हाँ करने पर ही मैं वहाँ बैठ पाई थी । किस्सा यूँ था कि एक अफ्रीकन अमेरिकन युवती पौउला मूरी दिन भर ठीक रहती थी पर रात को अपने पति के अधोवस्त्र और नाइट सूट पहनकर उसके बैट ( उसका पति बेसबाल खेलता था ) को सीने से लगा कर सोती थी । उसके पति की इराक युद्ध में मृत्यु हो गई थी । उसकी शादी को सिर्फ एक वर्ष हुआ था ; पर दोनों स्कूल के दिनों से दोस्त थे और सात साल पुरानी दोस्ती थी । मुझे उसी समय रमेश बत्रा की लघुकथा लड़ाई याद आ गई । उसकी अन्तिम पंक्तियाँ देखिए-
पहने हुए वस्त्र उतारकर अटैची में रखे और वह जोड़ा पहन लिया ;जिसमें फौजी ने उसे पहली बार देखा था।
सज-सँवरकर उसने पलंग पर रखी बन्दूक उठाई। फिर लेट गई और बन्दूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते–चूमते सो गई।
यह लघुकथा भारत में लिखी गई है और पता नहीं रमेश बत्रा ने इसे कब लिखा था । पर मैंने इसके सच को अमेरिका में सितम्बर 2011 में देखा ।
रमेश बत्रा ने इस लघुकथा में नारी के अंतर्मन में उठ रही भावनाओं की अभिव्यक्ति दो पंक्तियों में कर दी है । यही लेखक का कौशल होता है । नारी मनोविज्ञान में प्रेम की चरमसीमा होती है जब प्रेमी/पति के न रहने पर भी उसके साथ होने का एहसास प्रेमिका को हर समय रहता है । प्रेमी की प्रिय वस्तु को साथ लेकर सोने से प्रेमी के सान्निध्य का भ्रम सुख देता है । ऐसी मानसिक अवस्था में नारी के लिए प्रेमी/पति कहीं गया ही नहीं होता । रमेश बत्रा की लघुकथा लड़ाई की नायिका बन्दूक को बगल में लिटा कर चूमते-चूमते सो जाती है, और अफ्रीकन अमेरिकन युवती पौउला मूरी पति के वस्त्र पहन कर उसके बेसबाल बैट के साथ सोती है । राम कृष्ण परमहंस जी की पत्नी शारदा ने परमहंस जी की मृत्यु उपरांत कभी माथे से बिंदी नहीं उतारी थी और न ही सफ़ेद कपड़े पहने थे । शारदा जी के लिए उनके पति उनसे दूर कभी हुए ही नहीं थे ।
लड़ाई लघुकथा रमेश बत्रा की सर्जना है और दूसरी घटना यथार्थ, जिससे मैं डील कर रही हूँ, पौउला मूरी अभी तक पूरी तरह से ठीक नहीं हुई । हैं दोनों ही महिलाएँ युद्ध की शिकार और अपने साथी खो चुकी हैं । लड़ाई कहीं भी होती है पिसती महिला ही है । रमेश बत्रा यह कहने में सफल रहे हैं ।
दूसरी लघुकथा है रामेश्वर काम्बोज 'हिंमाशु' की धर्म-निरपेक्ष । इसे जब मैंने पढ़ा था तो वर्षों पहले पंजाब में घटी एक घटना याद आ गई थी । फिर अचंभित हुई थी कि यह कैसे हो गया । सही कहा है कि साहित्य समाज का दर्पण होता है । लेखक समाज से लेखन की सामग्री उठाता है । घटना 1983 की है । उन दिनों जालन्धर की सड़कों पर एक काले मोटर साइकल पर तीन आतंकी मुँह- सिर लपेट कर घूमते थे और निहत्थे राह चलते लोगों को गोलियों से भून जाते थे । वे नहीं देखते थे कि राह चलते हिन्दू हैं या मोना सिख ( जिन्होंने दाढ़ी और बाल कटवाए हुए होते है ) । ऐसी ही एक आतंकी शाम में मैं अपनी भाभी संग बाज़ार में फँस गई ;क्योंकि वहाँ शोर मच गया था कि मोटर साइकल आ गया है और जहाँ हम खरीदारी कर रहे थे, हमें दूकानदार ने दूकान के भीतर रहने के लिए कहकर शटर बंद कर दिया । थोड़ी देर बाद शोर समाप्त हुआ और दूकानदार ने शटर उठाया । हम लोग जल्दी- जल्दी घर की ओर चल दिए । रास्ते में कई लाशें पड़ी थीं, पुलिस अभी पहुँची ही थी । तभी कोने में हमने देखा एक कुत्ता पहले एक लाश को सूँघता है फिर दूसरी लाश को और दोनों पर पेशाब करके भाग जाता है । इस बार उनमें एक हिन्दू था और दूसरा सिख । आतंकियों की गोलियाँ इस बार सिखों को भी मार गई थीं ; क्योंकि राजनीति और दंगाई किसी के सगे नहीं होते, उनका काम फ़साद करवाना होता है, उनका अपना कोई दीन- धर्म नहीं होता । यह घटना मैंने मस्तिष्क के किसी कोने में सम्भाल ली थी, सोचा था कभी इस पर लिखूँगी । यहाँ के जीवन के व्यस्तताओं और चुनौतियों ने उस घटना को सुधियों में कहीं पिछली कतार में कर दिया था ।
काम्बोज जी की लघुकथा धर्म-निरपेक्ष जब पढ़ी तो यह घटना मानस पटल पर उभर आई । साम्प्रदायिकता पर लिखी गई सशक्त रचना है यह और वर्षों पहले की घटना जो जालन्धर की सड़कों पर घटी वह भी साम्प्रदायिकता का निष्कृष्ट रूप था । काम्बोज जी ने तो कुत्ते का चयन कथ्य के अनुरूप किया और घटना में कुत्ता स्वभाविक आया । काम्बोज जी के पात्र दंगई पर उतर आए थे और उन्होंने एक दूसरे को मार डाला । जालन्धर की घटना में अबोध लोग दंगाई, धर्मान्धता, साम्प्रदायिकता और राजनीति के बीभत्स रूप के दौरान मारे गए थे । काम्बोज जी अपनी लघुकथा से इन सब ने प्रति नफरत पैदा करने में सफल रहे हैं । लघुकथा और जालन्धर की घटना में कुत्ते ने उस मानसिकता पर पेशाब करके थप्पड़ मारा है जो धर्म, सम्प्रदाय और राजनीति को इंसानियत से ऊपर मानते हैं ।
लघुकथाएँ मुझे इसी लिए पसन्द हैं कि वे अगर सही मापदंडों पर लिखी गई हैं तो ऐसा तीखा प्रहार करती हैं कि पाठक सोचने पर मजबूर हो जाते हैं । उत्तम लघुकथाओं ने ही साहित्य में अपनी सार्थकता और स्थान सुदृढ़ किया है । कई बार बहुत से पृष्ट भर कर भी कहानी लेखक वह नहीं कह पाते जो लघुकथा लेखक चंद पंक्तियों में कह जाते हैं ।

लड़ाई
रमेश बत्तरा

ससुर के नाम आया तार बहू ने लेकर पढ़ लिया। तार बतलाता है कि उनका फौजी बाँका बहादुरी से लड़ा और खेत रहा....देश के लिए शहीद हो गया है।
‘‘सुख तो है न बहू!’’ उसके अनपढ़ ससुर ने पूछा, ‘‘क्या लिखा है?’’
‘‘लिखा है, इस बार हमेशा की तरह इन दिनों नहीं आ पाऊँगा।’’
‘‘और कुछ नहीं लिखा?’’ सास भी आगे बढ़ आई।
‘‘लिखा है, हम जीत रहे हैं। उम्मीद है लड़ाई जल्दी खत्म हो जाएगी....’’
‘तेरे वास्ते क्या लिखा है?’’ सास ने मजाक किया।
‘‘कुछ नहीं।’’ कहती वह मानो लजाई हुई–सी अपने कमरे की तरफ भाग गईं
बहू ने कमरे का दरवाजा आज ठीक उसी तरह बन्द किया जैसे हमेशा उसका ‘फौजी’ किया करता था। वह मुड़ी तो उसकी आँखें भीगी हुई थीं। उसने एक भरपूर निगाह....कमरे की हर चीज पर डाली मानो सब कुछ पहली बार देख रही हो....अब कौन–कौन सी चीज काम की नहीं रही.....सोचते हुए उसकी निगाह पलंग के सामने वाली दीवार पर टँगी बंदूक पर अटक गई। कुछ क्षण खड़ी वह उसे ताकती रही। फिर उसने बंदूक दीवार पर से उतार ली। उसे खूब साफ करके अलमारी की तरफ बढ़ गई। अलमारी खोलकर उसने एक छोटी–सी अटैची निकाली और अपने पहने हुए वस्त्र उतारकर अटैची में रखे और वह जोड़ा पहन लिया जिसमें फौजी ने उसे पहली बार देखा था।
सज–सँवरकर उसने पलंग पर रखी बन्दूक उठाई। फिर लेट गई और बन्दूक को बगल में लिटाकर उसे चूमते–चूमते सो गई।


धर्म–निरपेक्ष
रामेश्वर काम्बोज 'हिंमाशु'

शहर में दंगा हो गया था। घर जलाए जा रहे थे। छोटे बच्चों को भाले की नोकों पर उछाला जा रहा था। वे दोनों चौराहे पर निकल आए। आज से पहले उन्होंने एक–दूसरे को देखा न था। उनकी आँखों में खून उतर आया। उनके धर्म अलग–अलग थे।
प्हले ने दूसरे को माँ की गाली दी, दूसरे ने पहले को बहिन की गाली देकर धमकाया। दोनों ने अपने–अपने छुरे निकाल लिये। हड्डी को चिचोड़ता पास में खड़ा हुआ कुत्ता गुर्रा उठा। वे दोनों एक–दूसरे को जान से मारने की धमकी दे रहे थे। हड्डी छोड़कर कुत्ता उनकी ओर देखने लगा।
उन्होंने हाथ तौलकर एक–दूसरे पर छुरे का वार किया। दोनों छटपटाकर चौराहे के बीच में गिर पड़े। ज़मीन खून से भीग गई।
कुत्ते ने पास आकर दोनों को सूँघा। कान फड़फड़ाए। बारी–बारी से दोनों के ऊपर पेशाब किया और सूखी हड्डी चबाने में लग गया।
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