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मेरी पसंद - डा• रामकुमार घोटड़
डा• रामकुमार घोटड़

आम पाठक के सामने जब लघुकथा का जिक्र आता है तो उसके जेहन में एक लघुआकारीय रचना की तस्वीर उभरती है और यह सही भी ; क्योंकि लघुकथा का आकारगत्त लघु होना उसकी प्रथम शर्त है। जब हम भारतीय पौराणिक साहित्य से गुजरते है, तो हमे इस तरह की लघुआकारीय रचनाएँ असीम संख्या में पढ़नें को मिलती है। ये सभी हिन्दी में नहीं संस्कृत, पाली व अन्य भाषा में है। इन्हें अगर लघुकथाएँ मान भी ले तो कोई विवाद का विषय नहीं होना चाहिए लेकिन हिन्दी लघुकथाएँ मान लेना तर्कसंगत नहीं, हॉ इतना जरूर है कि हिन्दी लघुकथा पर इन रचनाओं का कहीं न कहीं प्रभाव अवश्य है। हिन्दी लघुकथा कि उत्पति में इन पौराणिक लघुरचनाओं की एक अहम भूमिका रही है ।
भारतेन्दु युग 1875 से गद्य की सभी विधाओं उपन्यास, कहानी, निबन्ध–आलेख, संस्मरण, यात्रा वृतान्त, लेखन की शुरूआत हुई। इसी लेखन क्रम के साथ लघुआकारीय रचनाएँ भी लिखी गई उदाहरण के तौर पर भारततेन्दु की पुस्तक परिहासिनी (1875) में संकलित रचनाओं को लिया जा सकता है। हालाँकि इन में से अधिकतर रचनाएँ व्यंग्य, हास्य मनोरजंन प्रधान है और आधुनिक हिन्दी लघुकथा के रचना विधान से कुछ हटकर है फिर भी अगर इनमें से कुछ को हिन्दी लघुकथा कहे तो गलत नहीं। उस समय ‘लघुकथा’ शब्द की उत्पति नहीं हुई थी, लेखक लघुकथा मानकर नहीं लिखता था, वह तो एक लघुकथाकारीय रचना की रचना करता था ।
हिन्दी लघुकथा बनती, सँवरती व विभिन्न पड़ावों से गुजरती हुई अब आधुनिक रूप में पहुची है जिसे हम आधुनिक हिन्दी लघुकथा से परिभाषित करते है अब हिन्दी लघुकथा के पास असंख्य लघुकथाकार है और हिन्दी लघुकथासाहित्य का एक विपुल भण्डार है; जिसके पाठको की एक बड़ी जमात है भारत में हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही नहीं अब अहिन्दी भाषी राज्यों में भी लघुकथा रुचि लेकर लिखी -पढ़ी जा रही है ।
मैं विद्यार्थी जीवन से लघुकथाएँ पढ़ते आया हूँ, उस दौरान मैं ऐसी रचनाओं को लघुकथा मानकर नहीं बल्कि अल्प समय में पढ़ी जाने वाली एक छोटी रचना समझकर और रुचि लेकर पढ़ा करता था। उस समय मैं लघुकथा शब्द से अनभिज्ञ था।

सर्वप्रथम मुझे दिशा प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित पुस्तके बोलते ‘हाशिये’ (सं. राजा नरेन्द्र), तथा आपकी कृपा है (विष्णुप्रभाकर) 1983 में पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ,, तब तक मैं विद्यार्थी जीवन की व्यस्तता से आजाद होकर सरकारी सेवा में आ गया था। दोनों ही पुस्तकें बहुत अच्छी लगी ऐसी छोटी–छोटी रचनाओं को इतनी संख्या में एक साथ पढ़कर मै रोमाचिंत हो उठा, बहुत प्रभावित हुआ, मैं उन छोटी कथाओं से, इन तीस वर्षो में मैनें हजारों लघुकथाएँ पढ़ी है। इनसें से कुछेक को छोड़कर अधिकत्तर लघुकथाएँ अच्छी लगी, पठनीय एवं चिन्तनीय दृष्टि से प्रभावित किया। उनमें से कुछ निम्न है, अंगहीन धनी (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र), एक टोकरी भर मिट्टी (माधव स्प्रे), विमाता (छबीलेलाल गोस्वामी), झलमला (पदुमलाल–पन्नालाल बक्सी), बुढ़ा व्यापारी (जगदीशचन्द्र मिश्र), राष्ट्र का सेवक (मुन्शी प्रेमचन्द) कलावती की शिक्षा (जयशंकर प्रसाद), सेठजी (कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर), आटा और सीमेंट (रामनारायण उपाध्याय), शीशम का खुंटा (रावि), गिल्ट (उपेन्द्रनाथ अश्क), फर्क (विष्णु प्रभाकर), सदियॉ बीती (माहेश्वर), संस्कृति (हरिशंकर परसाई), पाषाण और पंछी (श्यामनन्दन खत्री), स्वाति बून्द (मुक्तेश), बीती बिभावरी (डा0 सतीश राज पुष्करणां), जिन्दगी के लिए मौत (रामयतन प्रसाद यादव), मरियल और मांसल (शंकर पुणताम्बेकर), बुढ़ापे की लिस्ट (किशोर काबरा), फुली (भगीरथ), ज्वार–भाटा (महेन्द्र सिंह महलान), लोहा लक्कड़ (अंजना अनिल), माँ (प्रबोध कुमार गोविल), काग भगोड़े (डा0 सतीश दुबे), बनेले सुअर (विक्रम सोनी), अदला बदली (मालती बसंत), अपनो से निकलकर (डा0 कमल चोपड़ा), आदमी बिकता है (मधुकान्त), कैसा पाकिस्तान (डा0 तारिक असलम ‘तस्नीम’), अनलौटे श्रीराम (रामनिवास मानव), भाग्य विधाता (रूप देवगुण), कपो की कहानी (अशोक भाटिया), ठण्डी रजाई (सुकेश साहनी), ऊँचाई (रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’), दिन दहाड़े (सरला अग्रवाल), रूपरेखा (शकुन्तला किरण), किसान (कमलेश भारतीय), कुण्डली (बलराम अग्रवाल), फन्दे ही फन्दे (बलराम), सलाम दिल्ली (अशोक लव), विरासत (प्रताप सिंह सोढ़ी), वह क्यो चली गई (माधव नागदा), कड़वा सत्य (अनिल शूर आजाद), पूर्वाभ्यास (कुंवर प्रेमिल), रोटी की ताकत (श्याम सुन्दर अग्रवाल), औरत (डा0 अमरनाथ ‘अब्ज’), ठीक है हम (रतनचन्द रत्नेश), संस्कार (हरनाम शर्मा), द्रोणाचार्य जिन्दा है (रतनकुमार सांभरिया), बिन शीशों का चश्मा (रामकुमार आत्रेय) मेरी मां (मो. मोईनुदीन ‘अतहर), खलता बन्द घर (चैतन्य त्रिवेदी), कद (योगेन्द्र नाथ शुक्ल), मानसिकता (राजेन्द्र मोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’) आदि।
ये सभी लघुकथाएँ स्तरीय है और इनमें से आधी से ज्यादा मुझे प्रिय भी लगती है ;लेकिन मुझे दो लघुकथाओं का ही जिक्र करना है। जहां तक मैं सोच रहा हूँ कि वर्तमान में मुझे पूर्वाभ्यास – डा0 कुंवर प्रेमिल (रचना काल अक्टूबर 2011) तथा अपनों से निकलकर – डा0 कमल चौपड़ा (रचना काल–नवम्बर 1999) ही मेरे जेहन में घूम रही है। मुझे यह प्रिय क्यों लग रही, संक्षेप में कुछ बताना चाहूँगा .........

1. पूर्वाभ्यास –कुवर प्रेमिल :–
पूर्वाभ्यास कुवर प्रेमिल की एक बेहतरीन लघुकथा है, लधुकथा के तात्विक मूल्यों में इसे विश्लेषित करके देखा जाये तो आधुनिक हिन्दी लघुकथा काल की एक बेजोड़ रचना है इसका शुरुआती अंश देखिये –
‘‘भाग्यवान, अब हम उम्र दराज हो चुके है, अब हमें भी सच्चाई का सामना करने को तैयार रहना चाहिए....।’’
‘‘मै आपका मतलब नहीं समझी !’’
इन पंक्तियों से एक बुजुर्ग दम्पति के मध्य वार्तालाप का आभास होता है, हालाँकि इससे पति–पत्नी शब्दों का कहीं भी प्रयोग नहीं किया गया लेकिन भाग्यवान शब्द ने यह सब इंगित कर दिया ;क्योंकि एक पति अपनी पत्नी का नाम न लेकर, उसे भाग्यवान शब्द से ही सम्बोधित किया करता है ..... यानी कि शब्दों का इशारा मात्र।
और शब्दों में रहस्य छुपाये लघुकथा आगे बढ़ती है .....
‘‘तुम मुझे कल से खाना बनाना, झाड़ू लगाना, बर्तन मांजना, और किचन साफ करना, ठाकुर जी को भोग लगाना सभी कुछ सिखाओगी’’
‘‘पर क्यों भला, अभी तो मै ही करती आई हूँ।’’
‘‘मै तुम्हें एटीएम से पैसे निकालना, बिजली बिल जमा कराना, मकान टैक्स जमा कराना, बाजार–हाट, सौदा सुल्फ खरीदना सिखाऊँगा।’’
रहस्य और गहराता जाता है , पत्नी अचम्भित है कि पति जिन्दगी में पहली बार ऐसी बाते कर रहे है और वो उसके चेहरे की और देखे जा रही है। पति उसे फिर आने वाली सच्चाई से वाकिफ कराने की कोशिश करने लगा है .........
‘‘देखो जी तुम घर गृहस्थी के कार्य करती हो मुझे सिखाओगी और घर से बाहर के काम मै तुम्हें सिखाऊँगा ।’’
पत्नी, पति के वाक्यों में छुपी सत्यता को नही समझ पाई और अन्तत: बहकी- बहकी बातों से परेशान होकर झिड़कती हुई बोल उठती है ........... ‘मतलब’।’’
और अन्तिम तीन पक्तियों में ‘मतलब’ का पूर्णतया खुलासा हो जाता है पति के द्वारा कहे गये शब्दों से हम दोनों में से किसी एक के न रहने पर उसका काम भी तो हममें से किसी एक को सम्भालना पड़ेगा। तब कौन सिखाने आएगा, कौन हर हमारी जरूरत को पूरा करता रहेगा ?’’
और अन्तिम पंक्तियों ने शब्दों के जाल से रहस्य का पर्दा उठा दिया, जीवन की सच्चाई से रूबरू करा दिया। अगर समय रहते हम रोजमर्रा की जिन्दगी के बारे में कुछ जानकारी हासिल करले तो आने वाले सनातन सत्य के दिनों न तो परेशानी का सामना करना पड़े और न ही किसी का मोहताज होना पड़े ।
लघुकथा के मानक घटकों में रखा जाये तो यह लघुकथा खरी उतरती है जैसे कि कथ्य में कसावट आडम्बरमयी शब्दों से दूर, संवाद शैली रोचकता लिये हुए, विशिष्ठ भाषा शैली, रोजमर्रा की जिन्दगी में उपयोग लिये जाने वाले शब्द जैसे भाग्यवान, बर्तन माँजना, किचन साफ करना, एटीएम, बाजार हाट, सौदा सुल्फ, घर–गृहस्थी..........।’’ शीर्षक ‘पूर्वाभ्यास’ निश्चित तौर से एक सटीक एवं पूर्ण लघुकथा का निचोड़ है।
लघुकथा पठनोपरान्त ऐसा आभास होता है कि यह लघुकथा समय पूर्व ही कुछ किये जाने के लिए तैयार रहने की और संकेत करती है रोचकता पठनीयता, जन सुलभ शब्दों -भरी भाषा, व सटीक शीर्षक ने ही लघुकथा को मेरी दृष्टि में प्रिय लघुकथा बना दिया ।

2. अपनों से निकलकर – डा0 कमल चौपड़ा :

यह एक दलित जीवन शैली पर आधरित लघुकथा है, अब तक दलित समाज, लघुकथा के माध्यम से कम ही उजागर हो पाया है, कुल मिलाकर एक प्रतिशत से भी कम दलीत संदर्भ की लघुकथाएँ पढ़ने को मिलती है। यानी कि लघुकथा साहित्य में जितना होना चाहिए उतना लेखन कार्य दलित विमर्श के बहाने नहीं हो पाया।
इस लघुकथा में एक गरीब दलित मजदूर का अपने परिवार के प्रति अपनापन एवं लगाव की प्रशंसनीय प्रस्तुति है जो किसी व्यक्ति विशेष व वर्ग के लिए ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव समुदाय के लिए एक अनुकरणीय सोच है। यह लघुकथा मुझे अन्य लघुकथाओं की अपेक्षा अधिक पसन्द आई। इसके आशय बिन्दुवार सपष्ठ करना चाहुगां।
लघुकथा का नायक दलित मनकू अपने सहकर्मी सिफारशी मजदूर साथी के साथ ब्याज पर उधारी देने वाले शर्माजी के पास जाकर चार सौ रुपये ब्याज पर देने का आग्रह करता है। शर्माजी ने उधार पर रकम लिए जाने के कारण पूछे जाने पर मनकू स्वाभिमान के साथ खुशी से कहता है कि ‘‘मेरा भाई एक बड़े दफतर में बड़ा अफसर है, डिप्टी डायरेक्टर, शान विहार में कोठी है उसकी, उसके लड़के का बर्थ डे है, बहुत बड़ी पार्टी दे रहा है वो, मैं बच्चे का चाचा जो ठहरा मुझे बुलाएगा ही तब जन्मदिन पर मुझे कुछ ना कुछ बड़ी भेंट देनी ही होगी......।’’ हालांकि मनकू को उसके भाई की तरफ से कोई विधिवत्त निमंत्रण नहीं मिला है फिर भी वो अपनी मजदूरी के दिन खोटे करके उधार में गिफ्ट लेकर बर्डे पार्टी में शामिल होने को उतावला हो रहा है और एक बड़े अफसर का भाई होने नाते एक विश्वास भरे गर्व के साथ परिवारिक रिश्ते के वजूद को बनाये रखने के लिए। बर्थ डे को मेल मिलाप का एक सुखद पल मानता है। एक मजदूर का अपने बड़े भाई द्वारा अनदेखा किये जाने के बावजूद अपने परिवार से लगाव बनाए रखने की मानसिकता एक दलित के सकारात्मक सोच ही नहीं बल्कि अच्छे संस्कारों का होना दर्शाता है। संस्कार के इस ताना–बाना में ढ़ाले जाने के कारण ही यह लघुकथा एक उत्कृष्ठ लघुकथा की श्रेणी में रखी गयी। वार्तालापके माध्यम से लघुकथा आगे यों बढ़ती है :–
‘‘अच्छा, तो तुम सुखराम के भाई हो....।’’ शर्मा जी के चेहरे पर कुटिल मुस्कान उभर रही थी।
‘‘हॉ, शर्मा जी। आप जानते हो, उन्हें..... ?’’ शहर के एक रईस के मुख से अपने भाई का नाम सुनकर मनकू अपने आपको भाग्यशाली समझकर गौर्वान्वित महसूस कर रहा था। एक तिरस्कृत, बहिष्कृत, अछूत के मन में आत्मविश्वास जाग्रत कर नई चेतना पैदा करना ही सही माइने में लेखकीय धर्म है, इसमे यह लघुकथा खरी उतरी है। समसामयिक विषय पर लिखी गई यह रचना अपने आपको लीक से हटकर लिखी गई एक लघुकथा है।
‘‘हॉ..... हॉ, वो शैड्युल्ड कास्ट कोटे से बिना योग्यता के अफसर बन गया।’’ शर्मा जी कहने लगे, ‘‘खैर... ऐसा है तेरा भाई। फिर तो तुम्हे मुझसे पैसे उधार लेने की कोई जरूरत नहीं.......... इसलिए कि सुखराम अपने बच्चे का बर्थ डे दो दिन पहले ही मना चुका है। मुझे पार्टी का न्योता देने वो खुद आया था। अब हम ठहरे पण्डित, थोड़ा बहुत जात–पाँत तो देखना पड़ता है। मैं तो उसके बुलाने के बावजूद नहीं गया........।’’ यहाँ लघुकथाकार ने शर्माजी की क घटिया सोच को उद्धृत किया है, देश की आजादी को छह दसक बीत गये फिर भी उच्चवर्ग संकीर्ण मानसिकता से बाहर निकल कर समरसता की शीतल बयार मे नहीं पनप पा रहे। ऐसी तुच्छ मानसिकता एक लुंज दिमाग से उपजती है....... और ऐसा कुछ हो जाने के बावजूद मनकू का अपने भाई के प्रति मन नहीं टूटा उसे नहीं बुलाए जाने व उपेक्षित व्यवहार किये जाने पर भी मनकू ने सभी परिस्थितियों को नजर अन्दाज करते हुए यही सोचा कि ‘..... ’जिनको’ बुलाया गया था वे आये नहीं और जिन्हे आना चाहिए था उन्हें बुलाया नहीं............. कहीं ऐसा तो ना हो कि सुखराम भाई अकेले पड़ जाएँ.......... मुझे जाना चाहिए............।’’

यहां मनकू का अपने परिवार के प्रति निस्वार्थ भाव से बेहद जुड़ाव दिखाया गया है जो निश्चित तौर से संस्कारों की देन की ओर इशारा करता है। लघुकथा के जरिए एक दलित के रक्त में इस प्रकार संस्कारों का रचे-बसे दिखाये जाना ईमानदारी सच्चाई का द्योतक है, जो एक स्वस्थ लेखन परम्परा की कड़ी है। एक दलित का बिना बहके संस्कारों के अनुरूप स्वत: ही स्वभाविक आचरण से ही यह लघुकथा उच्च कोटि की लघुकथाओं की श्रेणी में स्थान पाने में सफल रही।

तात्विक दृष्टि से भी मूल्यांकन किया जाये तो यह एक बेहतरीन लघुकथा है। कथ्य का उद्धेश्य तक पहुचने के दौरान एक अच्छा प्रस्तुतीकरण एँ व आम प्रचलित शब्दों के माध्यम से सफल अभिव्यक्ति ने इस लघुकथा को हिन्दी की एक प्रतिनिधि लघुकथा की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया। अन्त में शीर्षक ‘अपनों से निकल कर’ सही माइने में लघुकथा का सार है यानी कि अपनो से निकलने के बाद पछतावे के अलावा कुछ नहीं मिलता उस कुत्ते की तरह जो न घर का रहा न घाट का। इन सभी खासियतों ने ही इस लघुकथा को हिन्दी लघुकथा साहित्य में अव्वल दर्जे का स्थान दिलाने में अहम भूमिका निभाई और मेरी पसन्द की एक लघुकथा बनी।
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1-पूर्वाभ्यास-कुँवर प्रेमिल
‘भाग्यवान, अब हम उम्र दरा़ज हो चुके हैं। अब हमें भी सच्चाई का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए।’
‘मैं आपका मतलब नहीं समझी।’
‘तुम मुझे कल से खाना बनाना, झाड़ू लगाना, बर्तन माँजना, और किचन साफ करना, ठाकुरजी को भोग लगाना सभी कुछ सिखाओगी।’
‘पर क्यों भला, अभी तक तो मैं ही करती आई हूँ। यह सब।’
‘मैं तुम्हें एटीएम से पैसे निकालना, बिजली बिल जमा करना, मकान टैक्स जमा करना, बाजार–हॉट, सौदा–सुल्फ खरीदना सिखाऊँगा।’
पत्नी के आश्चर्यचकित होने पर–‘देखोजी तुम जो घर –गृहस्थी के कार्य करती हो मुझे सिखाओगी और घर के बाहर के काम जो मैं करता हूँ तुम्हें सिखाऊँगा।’
‘मतलब...’
‘हम दोनों में से किसी एक के न रहने पर उसका काम भी तो हममें से किसी एक को सँभालना पड़ेगा। तब कौन सिखाने आएगा, कौन हमारी हर जरूरत को पूरा करता रहेगा?’
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2-अपनों से निकलकर-डॉ. कमल चोपड़ा

सामने साफ सफेद कपड़ों में लकदक बैठे शर्मा जी को देखकर उसके हाथ अपने आप जुड़ गए। शर्मा जी ने एक निगाह उस पर डाली, फिर उसके साथ आए हरिराम मिस्त्री की ओर सवालिया निगाह से देखा। हरिराम ने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा–‘‘मालिक, ये मनकू है। मेरे साथ काम करता है। इसे चार सौ रुपयों की सख्त जरूरत है। महीने दो महीने बाद लौटा देगा। जो ब्याज लगाना हो लगा लीजिए। बड़ा ईमानदार है। तभी तो मैं इसके साथ सिफारिश करने चला आया हूँ। जिम्मेदारी मेरी रहेगी।’’
शर्मा जी ने उसकी और फिर सिर से पाँव तक देखा फिर बोले–‘‘क्या जरूरत पड़ गई इसे.....’’
जवाब में मनकू ने कहा–‘‘मेरे भाई के लड़के का बर्डे है। बहुत बड़े अफसर है मेरा भाई। शान विहार में कोठी है उसकी। बहुत बड़ी पार्टी दे रहा है वो अपने बच्चे के जन्मदिन पर। अब मैं गरीब मजदूर सही, पर हूँ तो बच्चे का चाचा। मुझे तो पार्टी में वो बुलाएगा ही। अब पार्टी में शामिल होऊँगा तो कुछ ना कुछ बड़ी भेंट तो देनी ही होगी। आप इत्मीनान रखें मैं जल्दी ही पैसे लौटा दूँगा....।’’
‘‘कौन है तुम्हारा भाई जो बर्डे मना रहा है?’’
‘‘मैं सुखराम का भाई हूँ। बड़े दफ्तर में डिप्टी डरेक्टर हैं...’’
‘‘ हूँ, तो तुम सुखराम के भाई हो.....?’
‘‘आप जानते हो उन्हें?....’’ जवाब में शर्मा जी ठहाका मारकर हँसने लगे। कुछ समझ नहीं आया मनकू को। अपनी हँसी पर किसी तरह काबू पाकर शर्मा जी ने कहा–
‘‘मैं भी कहूँ इसका भाई इतना बड़ा अफसर कैसे? हा...हा, वो शैड्यूल कास्ट कोटे से बिना योग्यता के अफसर बन गया। खैर.....ऐसा है भाई। फिर तो तुम्हें मुझसे पैसे उधार लेने की कोई जरूरत नहीं....’’
‘‘क्यों?’’ दोनों ने एक साथ पूछा।
‘‘इसलिए कि सुखराम अपने बच्चे का बर्डे दो दिन पहले ही मना चुका है। तुम्हें तारीख ठीक से याद नहीं होगी। मुझे अपनी बर्डे पार्टी का न्यौता देने वो खुद आया था। अबे हम ठहरे पंडित, थोड़ा बहुत जात–पाँत तो देखना पड़ता है। मैं तो उसके बुलाने के बावजूद नहीं गया।....’’
एकाध क्षण चुप रहने के बाद शर्मा जी ने हँसते हुए कहा–‘‘लगता है उसने तुम्हें छोटा आदमी समझकर नहीं बुलाना चाहा होगा और तुम हो कि कर्ज लेकर....’’
शर्मा जी की कोठी से बाहर निकलते हुए मनकू सोचा में पड़ गया था–जिसे बुलाया वो आए नहीं और जो आना चाहते थे उन्हें बुलाया नहीं...कहीं ऐसा ना हो सुखराम भाई एकदम अकेले पड़ जाएँ....मुझे वहाँ जाना चाहिए।
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