छोटी सी आँख और देखते की शक्ति दूर तक। छोटे से कैमरे से खींची गई फोटो में समाये रहते हैं बड़े–बड़े पहाड़ और दूर तक फैला आकाश। छोटी सी रचना और बात बहुत दूर तक की कहे, वर्षों तक याद रह जाए, वही सच्ची लघुकथा है।
लघु एवं कथा। इन दो शब्दों के जोड़ से बन गई लघुकथा। लघुकथा में कथा जैसे दृश्य हों और वह भी लघु रूप में। लघुकथा का ‘लघु ’ होना जहाँ एक ओर इसकी विशेषता है, वहीं दूसरी ओर सीमित शब्दों में अपनी बात को कहना, एक चुनौती भी है। लघुकथा का आकार इतना अवश्य होना चाहिए कि उसमें लेखक का शिल्प भी नज़र आए। इस प्रकार से लघु आकार में प्रस्तुत की गई कथात्मक रचना लघुकथा का रूप ले लेती है। महवपूर्ण यह है कि छोटी सी रचना में बात कितनी वही कही गई है।
इन दिनों लघुकथा पर काफी ठोस कार्य हो रहे हैं। सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया आदि कथाकार बेबसाइट, प्रकाशित संग्रहों या ‘मेरी पंसद’ जैसे स्तम्भों के माध्यम से लेखकों की उन लघुकथाओं को सामने ला रहे हैं, जो –श्रेष्ठ कहलाने की हकदार हैं। ऐसी श्रेष्ठ एवं कालजयी रचनाएँ ही इस विधा को प्रतिष्ठा दिलाएँगी।
खलील जिब्रान, ओ.हेनरी, सआदत हसन मंटो, कार्ल सैंडबर्ग आदि ने जहाँ छोटी कथात्मक रचनाओं को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी, वहीं हिन्दी में मुंशी प्रेमचंद, माधवराव सप्रे, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, विष्णु प्रभाकर आदि ने लघुकथा का मार्ग प्रशस्त कियां लिहाजा आज हिन्दी लघुकथा में सतीश दुबे, पृथ्वीराज अरोड़ा, अशोक भाटिया, कमलेश भारतीय, कमल चोपड़ा , सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज, बलराम, पवन शर्मा, बलराम अग्रवाल, रामकुमार आत्रेय, श्याम सुन्दर अग्रवाल,श्याम सुन्दर दीप्ति, विकेश निझावन, सुभाष नीरव, भगीरथ आदि के नाम से ही उनकी रचनाओं को पढ़ा जाता है। इस सूची के अतिरिक्त ऐसे अनेक लेखक हैं, जिनके नाम को स्तरीय रचनाओं की गारण्टी समझा जाता है। यह विधा का सौभाग्य है। इन लेखकों ने ऐसी रचनाएँ दी हैं, जो मेरी पसंद की हैं। अब इनमें से दो लघुकथाओं को चुनना कठिन कार्य है।
खलील ज़िब्रान की लघुकथा ‘आँख’ मुझे अत्यन्त प्रिय है। इस लघुकथा की विशेषता है–प्रतीकों का सुंदर प्रयोग और विषय की मौलिकता। कम शब्दों का दार्शनिक रूप। आँखों में वह खूबी होती है कि वह काफी दूर तक देख लेती हैं और काफी हद तक सच्चाई को भी देख लेती हैं। किंतु नाक की, कान की, हाथ की अपनी कुछ सीमाएँ हैं। उनके पास आँख जैसी दूरदृष्टि नहीं है। छोटे–छोटे स्वार्थों से भरे लोगों का नज़रिया भी तंग है और वे ‘आँख’ जैसे ही दूरदृष्टि की बात को कतई मानने को तैयार नहीं हैं। लोकतंत्र में ‘मैजोरिटी ही अथॉरिटी’ होती है। ऐसे में नाक, कान, हाथ की सभाओं में आँख को ‘पागल’ घोषित करना सामान्य सी बात है ; किंतु इससे सचके मायने तो नहीं बदल जाएँगे। इस लघुकथा को पढ़कर दृश्यों को देखने के मामले में एक नज़रिया बनता है, यही इसकी विशेषता है। समाज में फैली सच्चाई सभी के लिए हैं, किंतु महत्त्वपूर्ण यह है कि आप उसे किस दृष्टि से देखते हैं।
लघुकथा में दिल को छू लेने वाले भाव। इस आधार पर मुझे प्रिय है -आनन्द मोहन अवस्थी की लघुकथा–‘अन्नअप्पा’। इस लघुकथा का मुख्य पात्र है कन्नड़ भाषी, नौकर के रूप में काम करने वाला अन्नअप्पा। वह इन्ही कल्पनाओं में जी रही है कि जब उसको छुट्टी मिलेगी तो वह अपने गाँव जाकर अपनी माँ और अपनी पत्नी से मिलेगा। गाँव में अन्नअप्पा की दुनिया उजड़ चुकी है और उसे इस बात की कोई सूचना नहीं है। लेखक उसे उसके मनभावन सपनों के साथ ही छोड़ देता है।
इस लघुकथा की विशेषता है -कम शब्दों में किसी पात्र के चरित्र की स्थापना। नया विषय। आज के दिन कहानी में कालजयी पात्रों का अभाव है। देवदास, सोनोरा या मुंशी प्रेमचंद के पात्रों ने भारतीय समाज को प्रभावित किया है। लघुकथा में किसी चरित्र को स्थापित करना बहुत ही मुश्किल काम है; किंतु यदि इस लघुकथा को पढ़ने के बाद आपको ‘अन्नअप्पा’ पात्र लम्बे समय तक याद रह जाता है, तो सही मायने में यह लेखक की कामयाबी है। लघुकथा भला कालजयी पात्रों से अछूती क्यों रहे?
1-आँख- ख़लील ज़िब्रान (अनुवाद .सुकेश साहनी)
एक दिन आँख ने कहा, ‘‘देखो, इन घाटियों के पार नीली धुंध से ढके पहाड़ कितने सुन्दर हैं!’’
कान ने ध्यान से सुना और कहा, ‘‘कहाँ हैं पहाड़? मुझे तो सुनाई नहीं देते।’’
हाथ ने कहा, ‘‘मेरा इसे छूकर महसूस करने का प्रयास व्यर्थ जा रहा है। मुझे तो कोई पहाड़ मालूम नहीं होता।’’
नाक ने कहा, ‘‘कोई पहाड़ नहीं है, मुझे इसकी गंध ही महसूस नहीं हो रही है।’’
तभी आँख दूसरी ओर देखने लगी। वे सब आँख के इस अनोखे भ्रम के बारे में आपस में चर्चा करने लगे। उन्होंने कहा, ‘‘ आँख के साथ जरूर कुछ गड़बड़ है।’’
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2-अन्नअप्पा-आनन्द मोहन अवस्थी
मेरा नौकर अन्नअप्पा कन्नड़ है। वह अपनी मां की ही बोली ‘कन्नड़ बोल सकता है। लिख नहीं सकता।
हम जब बम्बई में थे। तो उसने मुझसे लिखवाकर कई पत्र घर भेजे थे। वहाँ उसकी बुढ़िया माँ और पत्नी थी। पर जवाब एक का भी नहीं आया।
तबादले के बाद नागपुर आने पर उसने फिर मुझसे एक पत्र लिखवाया।
कही एक महीने बाद उसके नाम मेरे पास एक लिफाफा आया।उसे खोलने पर पेंन्सिल से लिखा किसी मद्रासी भाषा में एक पत्र मिला।
अन्नअप्पा का कहना था -वह कन्नड़ में है जिसे वह बोल सकता है, लिख–पढ़ नहीं सकता।
और मैं भी उसे क्या खाक पढ़ता।
थोड़े दिनों में पता चला कि शहर के एक प्रसिद्ध मद्रासी डॉक्टर हैं,वे कन्नड़ जानते हैं।
मैंने अन्नअप्पा को उनके पास पत्र पढ़वाने भेजा, पर उन्होंने कहा कि वे डॉक्टरी करते हैं, मुंशीगिरी नहीं। अन्नअप्पा को ‘डिस्पेंसरी’ का दरवाजा दिखला दिया । मैं भी एक मर्तबा उनके यहाँ गया पर वे मिल ने सके।
अन्नअप्पा बहुत बेचैन था । कौन जानता है पेन्सिल की टेढ़ी–मेढी लकीरों ने उसकी माँ की कितनी ममता और दुलहिन के कितने दुलारों को सजीव कर दिया था? शैशव और यौवन के कितने क्षण उसे फिर याद आ गए थे? पर समय उससे यह बेचैनी भी धीरे–धीरे छीन ली।
अब वह पत्र मेरे पास ही था। अनायास बहुत समय बाद मेरी भेंट एक ‘दवाइयों के एजेंट’ से हो गई जो कन्नड़ जानता था।उसने वह पत्र पढ़ा–सुदूर दक्षिण कनारा के केरिग्राम स्थित गंगोड़ी पोस्ट आफिस के एक डाकिए नागप्पा ने, जो अन्नअप्पा को गोदी में खिला चुका था, लिखा था -उसकी माँ की मृत्यु कई वर्ष बीते हो गई और तबसे उसकी विवाहिता ने ग्राम ही छोड़ दिया हैं। वह किसे पत्र लिखता अब?
अन्नअप्पा को सूचना भी कहाँ से मिलती? आज इस शहर में तो कल उस शहर में छोटे–छोटे कामों को नौकरी में एक स्थान में रहकर पेंशन नहीं मिलती।
अन्नअप्पा से मैंं क्या बतलाता? क्या कहता कि सदियों से आर्यों के दासत्वपाश में जकड़े अनार्यों के वंशज तेरी पराधीनता ने तुझसे तेरी जननी और धारित्री, दोनों को छीन लिया।
अन्नअप्पा पत्र की बात भूल -सा ही गया। वह मुझे बहुत चाहता था भाई के से स्नेह में दादा कहता है और जब कभी उससे उसके देश की बाते होती है,तो कहता है , दादा हमारा मुल्क बड़ी दूर है। बस किराया भर पचास रुपए लगता है। वहाँ हमारा माँ और औरत है और दादा तुम हमको छुट्टी देगा तो हम वहाँ जरूर जाएगा।
और मैं मनमसोस कर कह देता हूँ, ‘हाँ’।
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