पंजाबी भाषा में बड़ी संख्या में लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं। बड़ी संख्या में लेखक लघुकथा विधा में हाथ आजमा रहे हैं। शायद लघुकथा लेखन को आसान कार्य समझ लिया गया है। परंतु बहुत सी ऐसी लघुकथाएँ भी मिलती हैं जिन्हें पढ़ कर मन प्रसन्न हो उठता है तथा लेखक की कलम चूमने को जी करता है।
ऐसी ही लघुकथाओं में से एक रचना है वरिष्ठ लघुकथा लेखक श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘बुज़ुर्ग रिक्शावाला’। यह लघुकथा बहुत ही सूक्ष्म एवं संवेदनशीन भावनाओं का इजहार करती है।
आज की तेज-तर्रार ज़िंदगी में पैसे की होड़ में भाग रहे आदमी की मानवी-संवेदनाएँ मरती जा रही हैं। मोह-प्यार, रिश्ते, मित्रता, आदर, मान-सम्मान, तरस, हमदर्दी सब फीके पड़ रहे हैं। मनुष्य एक तरह की मशीनी ज़िंदगी जी रहा है, रोबोट की तरह।
लेकिन संसार-रूपी जंगल की आग में अभी भी कुछ हरे वृक्ष बचे हुए हैं। यही बात अग्रवाल की इस लघुकथा से उभरती है। इस आशावादी दृष्टिकोण के कारण ही मुझे यह लघुकथा अच्छी लगती है कि मानवता अभी पूरी तरह से मरी नहीं हुई। घोर अंधकार में आशा की एक महीन-सी किरण दिखलाती है यह रचना।
लघुकथा में ‘मैं’ पात्र ने गली को मोड़ पर से रिक्शा द्वारा बस-स्टैंड तक जाना है। उसे मोड़ पर पिछले तीन दिनों से एक बुज़ुर्ग रिक्शावाला ही मिल रहा है। मजबूरी में वह रिक्शा में बैठता तो रहा है, पर सोचता है कि पता नहीं किस मजबूरी में वृद्ध इस उम्र में भी रिक्शा चला रहा है। संवेदनशील मनुष्य होने के कारण वह रिक्शावाले की तकलीफ को महसूस करता है। उसे रिक्शा में बैठना कठिन लगता रहा। दोनों दिन कोई न कोई बहाना बना, वह राह में ही उतर गया, रिक्शावाले को पूरे पैसे देते हुए। वह वृद्ध के तकलीफ व्यक्त करते चेहरे को भी नहीं देखना चाहता।
समय की कमी के कारण ‘मैं’ तीसरे दिन भी वृद्ध की रिक्शा में बैठने को मजबूर है। सोचता है रिक्शाचालक की ओर बिलकुल नहीं देखेगा। पर रिक्शा की चैन उतर गई। मजबूरन उसका ध्यान वृद्ध के पैरों की ओर चला गया। पैर पर पट्टी बंधी है, पाँव में जूती भी नहीं है। यह सब देखकर ‘मैं’ को अपना पिता याद आ जाता है। उसका पिता भी पाँव में कील लग जाने पर ऐसे ही भर-सर्दी में नंगे पाँव फिरता था। वह भी रिक्शावाले की तरह अपना पायजामा ऊपर चढ़ा कर रखता था। रिक्शेवाले की ढ़ीली पगड़ी तथा सिर हिलाने का ढंग भी उसके पिता जैसा ही था। ‘मैं’ के लिए अब रिक्शा में बैठना कठिन हो गया। बेइख्त्यार उसके मुख से निकला, “बापू, रिक्शा रोक।” वह फिर राह में ही रिक्शा से उतर जाता है।
यह लघुकथा पढ़कर मन में एक टीस उठती है, जो इस रचना की सफलता की साक्षी है। रचना पत्थर की तरह कठोर हो रहे मानवी-हृदयों को झकझोरती है।
दर्शन जोगा पंजाबी लघुकथा-लेखन के चित्रपट पर तेजी से उभरने वाला समर्थ कथाकार है। उसकी लघुकथा ‘जालों वाली छत’ हमारे दिन-ब-दिन भृष्ट हो रहे सिस्टम में दफ्तरी-बाबूओं की क्रूर व मानवी-संवेदनाओं से विहीन मानसिकता पर करारा कटाक्ष करती है।
लघुकथा ‘जालों वाली छत’ में जवान विधवा व उसका बुजुर्ग ससुर दुर्घटना में बेटे के मारे जाने उपरांत सरकारी सहायता के लिए दफ्तरी चक्करों में फंसे हुए हैं।
एक तरफ भर-जवानी में विधवा हो जाने का दु:ख है तो दूसरी तरफ दफ्तरों में होने वाली खज्जल-खुआरी है। दोहरा दुखांत भोग रही है वह औरत तथा जीवन के अंतिम पहर में इतनी बड़ी चोट सह रहा बाप। और दूसरी तरफ सरकारी बाबू हैं, जिनके लिए गधा-घोड़ा सब बराबर हैं।
जब दफ्तर में कलर्क लड़की कहती है, “…हमारे पास तो सब ऐसे ही केस आते हैं” तब कलर्कशाही की जड़ता व संवेदनहीनता की झलक साफ दिखाई देती है। सरकारी कर्मचारियों के दिलों में मानवी-प्यार, हमदर्दी व तरस के लिए रत्ती भर जगह भी नहीं है।
इस लघुकथा का शीर्षक बहुत उपयुक्त है। जब विधवा औरत कलर्क लड़की के व्यवहार से निराश होकर दफ्तर से बाहर निकलती है तो उसकी नज़र दफ्तर की जालों से भरी छत पर पड़ती है। छत पर लगे जाले हमारे भ्रष्ट सरकारी-तंत्र के प्रतीक हैं। जालों से भरी इन छतों को साफ करने की ओर किसी का भी ध्यान नहीं है। भ्रष्ट सरकारी-तंत्र के लिए आम लोग कीड़े-मकोड़ों के समान हैं।
दर्शन जोगा की इस लघुकथा की भाषा बहुत सहज व कलात्मक है। ऐसी सार्थक रचनाओं की हमारे समाज को बहुत आवश्यकता है जो दफ्तरों की जालों वाली छतों की सफाई करने में मददगार होती दिखाई देती हैं।
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1.बुजुर्ग रिक्शावाला– श्याम सुन्दर अग्रवाल
गली के मोड़ पर पहुँचा तो आज फिर वही बुजुर्ग रिक्शावाला खड़ा था। तीन दिन से वही खड़ा मिलता है, सुबह-सुबह। मन ने कहा, इसके रिक्शा में बैठने से तो पैदल ही चला चलूँ, बीस मिनट का तो रास्ता है। घड़ी देखी तो इतना ही समय बचा था। कहीं बस ही न निकल जाए, सोच कर मन कड़ा किया और रिक्शा में बैठ गया।
मन बना लिया था कि आज रिक्शावाले की ओर बिलकुल नहीं देखना। इधर-उधर देखता रहूँगा। पिछले तीन दिनों से इसी रिक्शा में बैठता रहा हूँ। जब भी रिक्शावाले पर निगाह टिकती, मैं वहीं उतरने को मज़बूर हो जाता।
पैडलों पर जोर पड़ने की आवाज़ सुनाई दी और रिक्शा चल पड़ा। मैं इधर-उधर देखने लगा। ‘ग्रीन मोटर्स’ का बोर्ड दिखा तो याद आया कि पहले दिन तो यहीं उतर गया था। बहाना बना दिया था कि दोस्त ने जाना है, उसके साथ ही चला जाऊँगा। अगले दिन मन को बहुत समझाया था, लेकिन फिर भी दो गली आगे तक ही जा सका था।
‘कड़-कड़’ की आवाज़ ने मेरी तंद्रा को भंग किया। रिक्शा की चेन उतर गई थी। मेरी निगाह रिक्शावाले पर चली गई। उसके एक पाँव में पट्टी बंधी हुई थी और पाँवों में जूते भी नहीं थे। मुझे याद आया कि जब बापू के पाँव में कील लग गई थी, वह भी ठंड में इसी तरह नंगे पाँव फिरता रहा था। चेन ठीक कर बुजुर्ग ने पाजामा ऊपर चढ़ाया तो निगाह ऊपर तक चली गई। बापू भी पाजामा इसी तरह ऊपर चढ़ा लेता था। मुझे लगा, जैसे रिक्शावाला कुछ बोल रहा है। मेरा ध्यान खुद-ब-खुद उस के सिर की ओर चला गया। उसकी ढ़ीली-सी पगड़ी और बोलते हुए सिर हिलाने के ढंग ने मुझे भीतर तक हिला दिया। बहुत प्रयास के पश्चात भी मैं उस पर से अपनी नज़र नहीं हटा सका। बेइख्त्यार मेरे मुख से निकल गया, “बापू, रिक्शा रोक।”
वह बोला, “क्या हो गया बाबू जी?”
“कुछ नहीं, एक ज़रूरी काम याद आ गया!” मैंने रिक्शा से उतर उसको पाँच रुपये का नोट देते हुए कहा।
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2. जालों वाली छत–दर्शन जोगा
आज फिर ससुर और बहू दोनों दफ्तर पहुँचे। बुजुर्ग बेचारा पहाड़–सी मार का मारा, बड़ी उम्र और कमज़ोर सेहत के कारण दम लेने के लिए कमरे के बाहर पड़े बैंच की ओर हुआ। साँसो–साँस हुए ससुर की दशा देख बहू ने कहा, “आप बैठ जाओ बापूजी, मैं पता करती हूँ।”
कमरे में दाखिल होते ही उसकी निगाह पहले की तरह ही पड़ी तीन–चार मेजों पर गई। जिस मेज पर से वे कई बार आकर मुड़ते रहे थे, उस पर आज सूखे–से बाबू की जगह भरे शरीर वाली एक लड़की गर्दन झुकाए बैठी कागज़ों को उलट–पलट रही थी। लड़की को देखकर वह हौसले में हो गई।
“सतिश्री ’काल जी!” उसने वहाँ बैठे सभी का साझा सत्कार किया।
एक–दो ने तो टेढ़ी–सी नज़र से उसकी ओर देखा, पर जवाब किसी ने नहीं दिया। उसी मेज के पास जब वह पहुँची तो क्लर्क लड़की ने पूछा, “हाँ बताओ?”
“बहनजी, मेरा घरवाला सरकारी मुलाजम था। पिछले दिनों सड़क पर जाते को कोई चीज फेंट मार गई। उसके भोग की रस्म पर महकमे वाले कहते थे, जो पैसे–पूसे की मदद सरकार से मिलनी है, वह भी मिलेगी, साथ में उसकी जगह नौकरी भी मिलेगी। पर उस पर निर्भर उसके वारिसों का सर्टीफिकट लाकर दो। पटवारी से लिखाके कागज यहां भेजे हुए हैं जी, अगर हो गए हों तो देख लो जी।‘
“क्या नाम है मृतक का ?” क्लर्क लड़की ने संक्षेप और रूखी भाषा में पूछा।
“जी, सुखदेव सिंह।”
कुछ कागजों को इधर–उधर करते हुए व एक रजिस्टर को खोल लड़की बोली, “कर्मजीत कौर विधवा सुखदेव सिंह?”
“जी हाँ, जी हाँ, यही है।” वह जल्दी से बोली जैसे सब कुछ मिल गया हो।
“साहब के पास भीतर भेजा है केस।”
“पास करके जी?” उसी उत्सुकता से कर्मजीत ने फिर पूछा।
“न...अ..अभी तो अफसर के पास भेजा है, क्या पता वह उस पर क्या लिख कर भेजेगा, फिर उसी तरह कारवाई होगी।”
“बहन जी, अंदर जाकर आप करवा दो।”
“अंदर कौनसा तुम्हारे अकेले के कागज हैं, ढे़र लगा पड़ा है। और ऐसे एक–एक कागज के पीछे फिरें तो शाम तक पागल हो जाएँगे।”
“देख लो जी, हम भगवान के मारों को तो आपका ही आसरा है।” विधवा ने काँपते स्वर में विलाप–सी मिन्नत की।
“तेरी बात सुन ली मैने, हमारे पास तो सब ऐसे ही केस आते हैं।”
औरत मन–मन भारी पाँवों को मुश्किल से उठाती, अपने आपको सँभालती दीवार से पीठ लगाए बैंच पर बैठे बुज़ुर्ग ससुर के पास जा खड़ी हुई।
“क्या बना बेटी?” उसे देखते ही ससुर बोला।
“बापूजी, अपना भाग्य इतना ही अच्छा होता तो वह क्यों जाता सिखर दोपहर!”
बुज़ुर्ग को उठने के लिए कह, धुँधली आँखों से दफ्तर की छत के नीचे लगे जालों की ओर देखती, वह धीरे–धीरे बरामदे से बाहर की ओर चल पड़ी।
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