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मेरी पसंद - हरि मृदुल
हरि मृदुल

मेरी प्रिय दो लघुकथाएँ इस प्रकार हैं। एक है जोगिंदर पाल की उपस्थित और दूसरी उदय प्रकाश की डर । ये दोनों लघुकथाएँ न केवल हिंदी कथा साहित्य को समृद्ध करती हैं, बल्कि अपने आकार की बदौलत लघुकथा विधा का सटीक प्रतिनिधित्व भी करती हैं। प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सैकड़ों लघुकथाओं के बीच इन्हीं दोनों रचनाओं को क्यों चुना गया है? तो इसका एक लाइन में जवाब है कि ये दोनों ही लघुकथाएँ जहाँ आज के भ्रमित करने वाले मायावी और अमानुषिक दौर को पूरी तरह से सामने रखने में सक्षम हैं, वहीं इस दौर के विडंबनापूर्ण यथार्थ से भी हमें रूबरू करवाती हैं। शब्दों का मितव्ययी प्रयोग, कथ्य और अर्थगांभीर्य इन दोनों ही लघुकथाओं में देखते ही बनता है। यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा कि दुनिया की किन्हीं भी महत्त्वपूर्ण लघुकथाओं के साथ इन्हें रखा जा सकता है।
पहले जोगिंदर पाल की लघुकथा उपस्थित और उसके बारे में मंतव्य -

1. जोगिंदर पाल -उपस्थित
क्या मजाल, कोई जान-पहचान वाला मर जाए और वह उसकी अर्थी के संग उपस्थित न हो।
परंतु आज हम उसी की अर्थी लिये श्मशान की ओर जा रहे हैं और किसी ने आगे-पीछे देखते हुए मुझ से अचरज से पूछा है, 'आश्चर्य है, आज वह नहीं आया।
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उपर्युक्त लघुकथा जब मैंने कुछ साल पहले पढ़ी थी, तो मैं भौंचक रह गया था। तीन या चार पंक्तियों में जीवन से जुड़ी इतनी गहरी और अनूठी बात कहने के हुनर का मैं कायल हो गया था। लम्बे समय तक इस कथा ने मुझे अपने सम्मोहन में बाँधे रखा। इस कथा को पढऩे के बाद मुझे अहसास हुआ कि अपने लघु आकार के बावजूद इस विधा में कितनी बड़ी बात कही जा सकती है। यह भी स्पष्ट हो गया कि साहित्य की दूसरी विधाओं की तुलना में यह विधा भले ही उपेक्षित हो, लेकिन इसकी ताकत को कोई नकार नहीं सकता है।
जोगिंदर पाल की इस लघुकथा में समकालीन जीवन की त्रासदी तो सही ढंग से व्यक्त होती ही है, इसकी संवेदनशीलता भी भीतर तक हिला डालती है। कितना जबर्दस्त कथ्य है कि हर किसी के दुख को अपना मानने वाले और उसमें हर हालत में शामिल होने वाले व्यक्ति को कभी नहीं भुलाया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु भी सच नहीं लगती। महसूस होता है कि जल्द ही वह आएगा और ढाँढस बँधाएगा। यूँ पहली नजर में यह लघुकथा एक चुटकुले जैसी लगती है। लेकिन जब पूरी बात समझ में आती है, तो चकित होना पड़ता है। कथाकार की पैनी दृष्टि पाठक को एक ऐसे कोण पर ले जाकर खड़ा कर देती है, जहाँ सबसे बड़ा कौतूहल मौजूद है और जीवन का सबसे बड़ा सच भी घटित हो चुका है। मृत्यु एक सत्य है, लेकिन स्मृति में बने रहना जैसे मौत को मात देना है। अमरता प्राप्त कर लेना है। कथानक में पहली खबर मृत्यु की है और फिर इससे उपजा शोक है। अगले ही क्षण इस शोक को झटकने के लिए हास्य का अपूर्व संधान है। लघुकथा में ऐसा सामंजस्य एक दुर्लभ स्थिति है। जीवन की विडंबना की ऐसी बेधक अभिव्यक्ति कोई कुशल रचनाकार ही कर सकता है। निश्चित रूप से जोगिंदर पाल हमारे दौर के बड़े कथाकार हैं।
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2. उदय प्रकाश- डर
वह डर गया है।
क्योंकि जहाँ उसे जाना है, वहाँ उसके पैरों के निशान पहले से ही बने हुए हैं।
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उदय प्रकाश की यह लघुकथा एक बड़ी रेंज की रचना है। आकार में भले ही सवा लाइन की हो, परंतु इसके प्रभाव के बारे में लिखने के लिए सवा सौ पंक्तियों भी नाकाफी हैं। दरअसल आज के दौर में डर एक स्थायी भाव की तरह हम सबके भीतर पैठ बना चुका है। कभी साम्राज्यवाद का दानव हमारे सामने खड़ा हो जाता है, तो कभी सांप्रदायिकता का राक्षस नंगा नाच करने लगता है। डर के कई चेहरे अचानक एक साथ दिखने लगते हैं। कितने सारे डर अट्टहास करते हुए सम्मुख खड़े हो जाते हैं। आदमी डर से किसी भी विधि किनारा करना चाहता है, लेकिन यह संभव नहीं हो पाता है। वह भाग जाना चाहता है, परंतु डर है कि पीछा ही नहीं छोड़ता। वह निरंतर सुरक्षित स्थल की तलाश में है। लेकिन विडंबना यह है कि उसके सुरक्षित स्थल पर कदम रखने से पहले ही डर वहाँ पहुंच चुका है। उसके संभावित हर कदम पर पहले से ही खुद उसके निशान मौजूद हैं।
उदय की यह रचना नियतिवादी कतई नहीं है। यह लघुकथा नसीब को महत्त्व नहीं देती है। असल में यह एक ऐसे कठिन वक्त को अभिव्यक्त करती लघुकथा है, जिसमें आपका हर पल किसी दूसरे के पास गिरवी रखा हुआ है। इस कहानी में एक डरावना कौतुक है। जादुई यथार्थवाद की एक झलक है। बावजूद इसके ऐसी परिघटनाएँ हमारे इस दौर में लगातार घटती दिख रही हैं। चारों ओर डर ही डर है। आम आदमी को असहाय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई है। वह बेहद निरीह दिखने लगा है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक निरीह व्यक्ति की कोई ताकत नहीं होती, इसलिए उसका भविष्य काफी पहले तय हो जाता है। उसे शिकार होना ही है, चाहे वह कितना भाग ले।
कुल मिलाकर यह लघुकथा आज के दारुण यथार्थ को दर्शाने में पूरी तरह सफल होती है। ऐसी अनूठी लघुकथाएँ दुर्लभ हैं। उल्लेखनीय है कि उदय प्रकाश ने जहाँ और अंत में प्रार्थना, वारेन हैस्टिंग का सांड़, पालगोमरा का स्कूटर, दिल्ली की दीवार, मैंगोसिल और मोहनदास जैसी कई महत्वपूर्ण लंबी कहानियां लिखी हैं, वहीं डर, अपराध, नेलकटर, सिर और अभिनय जैसी बेजोड़ लघुकथाएँ भी उनके पास हैं। कई बार यह भी लगता है कि उदय की लंबी कहानियों की अभूतपूर्व लोकप्रियता ने उनके लघु कथाकार को ढक दिया है। उनसे और भी बेहतरीन लघुकथाओं की उम्मीद की जा सकती है।
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