लघुकथा की रचना प्रक्रिया बड़ी कठिन होती है। रचनाकार की भूमिका सीधे–सीधे किसी बात को लिख देने की नहीं होती है। उसके चेतन–अवचेतन में वह विषय घंटों बना रहता है। कई बार कई दिनों तक वह लघुकथा उसके भीतर घटती रहती है, तब जाकर वह लघुकथा कागज पर उतर पाती है।
लघुकथा पढ़ने से पाठक की भी कड़ी परीक्षा होती है। क्षण भर में उसके घटनाक्रम से तादात्म्य स्थापित करना, और फिर उसके भावपक्ष में डूब जाना। कोई लघुकथा भी सफल तभी हो पाती है ,जब वह पाठक को अपने भीतर तक पढ़ने के लिए विवश कर देती है।
लघुकथा में सिर्फ़ शब्दों की भाषा नहीं होती। पंक्तियों के मध्य का खाली स्थान भी पाठक के भीतर बहुत गहरा प्रभाव बनाती है, इसीलिए कुछ लघुकथाएँ ऐसी होती है ,जो पाठक को बरसों याद रहती है।
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1-राजेन्द्र पाण्डेय -‘माटी का मोल’
‘‘क्यों बाई, ये ग्वालन कितने की दी?’’
‘‘पाँच रुपए की बाबूजी।’’
‘‘ऐसी क्या खास बात है इसमें, जो पाँच रुपए की है।’’ आँखों में आँखें डालते हुए कुटिल मुस्कान के साथ एक प्रश्न....।
‘‘पक्की माटी के बने हैं.....बाबूजी....इसीलिए।’’–मुस्कुराते हुए प्रत्युत्तर।
‘‘माटी का क्या इतना मोल?’’ ग्वालन लौटाने के उद्देश्य से हाथ आगे बढ़ाया।
‘‘इससे सस्ता तो ये शरीर है बाबूजी....लोगे?’’–खिलखिलाहट के साथ कटाक्ष भी।
बाबूजी का पूरा शरीर झनझना उठा। ग्वालन झोले में डाल पाँच रुपए उसके हाथ में थमा, बाबूजी भीड़ में समा गए।
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राजेन्द्र पाण्डेय की यह लघुकथा मैंने बरसों पहले पढ़ी थी, पर इसकी कौंध आज भी मेरे भीतर चमकती रहती है। एक सामान्य -सी घटना का अनोखा रूपान्तरण इसमें है। छोटी सी मज़ाक से शोषण का एक समूचा संसार सामने आता है ; जिसके खिलाफ़ ग्वालन बेचने वाली की आवाज़ पाठक को भी भीतर तक झंकृत करती है।
गरीब–गुरबे पेट पालने के लिए रोज जाने कितने ऐसे सवालों का सामना करते हैं। बेचने वाला सदैव सरल भी होता है और कभी–कभी मज़बूर भी। खरीदने वाला प्राय: कुटिल होता है। मोल–भाव करने वाला। दीपावली के दीपक जिनकी कीमत दो पाँच पैसे होती है ,उन्हें भी वह उलट–पलट कर खरीदता है और अन्त में टूट–फूट के नाम पर दो–पाँच दीपक अलग से ले लेता है। हालाँकि समय के साथ–साथ अब वह सरल भाव कम होता जा रहा है; क्योंकि इस देश में अब छाछ के साथ पानी भी बिकने लगा है। गाँव–कस्बों के वातावरण में फिर भी अभी वही सरलता विद्यमान है।
राजेन्द्र पाण्डेय की यह लघुकथा सरलता से प्रारम्भ होकर तीसरी पंक्ति में ही अपना यात्रा–भाव बदल देती है ;जब कुटिलता से पूछा जाता है - ‘ऐसी क्या खास बात है इसमें’।
माटी का मोल–भाव करने वाला जब प्रत्युत्तर में अनपेक्षित रूप से सस्ते शरीर का गहरा कटाक्ष सुनता है तो उसके चेहरे पर जैसे कालिख पुत जाती है और वह पाँच का नोट थमा ग्वालन झोले में डाल भीड़ का हिस्सा बन जाता है। यहाँ पर शोषक की जो शर्म है ,आज के जमाने में तो वह बेशर्मी का हिस्सा बन चुकी है। अब तो करोड़ों का घोटाला करने वाला शान से मुस्कुराता हुआ फोटो उतरवाता रहता है। देश में सांस्कृतिक पतन की यह पराकाष्ठा है।
एक ओर लघुकथा बड़े लम्बे समय से मेरे जहन में कौंधती रही है। इस लघुकथा की विशेषता यह है कि इसमें प्रतीकों एवं बिम्बों का बड़ा खूबसूरत प्रयोग किया गया है।इसका कालखण्ड आज से 32 वर्ष पूर्व का है, लेकिन उस कालखण्ड में रची हुई लघुकथा की सामयिकता आज भी बरकरार है।
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डा. शंकर पुणताम्बेकर –‘‘अवैध संतान’’
पैसा प्राय: इधर सरकार की ओर चला आता। ऐसा समय साधकर आता कि संविधान घर पर न होता।
आज भी जब आया तो संविधान घर पर नहीं था। सरकार और वह दोनों बैठे बातें कर रहे थे।
सरकार कह रही थी–‘‘इतना सुनियोजित रहते हुए भी गरीबी ही पैदा हो रही है।’’
सुनकर पैसा सिर्फ़ हँस दिया।
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आचार्य डा. राममूर्ति त्रिपाठी ने एक गोष्ठी में उज्जैन में लघुकथा के बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण बात कही थी -‘’लघुकथा इतनी निगूढ़ भी न हो कि सामान्य लोग समझ जाएं । रचना सांकेतिक क्षमता रखे तो पाठक भी प्रातिभ क्षमता रखे। लघुकथा का निकष क्या है? रचना के भीतर से ही रचना के मानदण्ड निकलते हैं। व्यंजनाओं को ग्रहण करने की क्षमता पाठक में हो। ऐसी सांकेतिक रचनाओं में पाठक जब उसके मर्म की ओर बढ़ते हैं तो जिज्ञासा की परतें चेतना के तार झंकृत करती है। लघुकथा की अपनी सार्थकता झनझना देने की क्षमता में निहित है।’’
आचार्य जी का उपर्युक्त वक्तव्य लघुकथा के गहन तत्त्व में प्रवेश करने की ओर इंगित करता है। डा. शंकर पुणताम्बेकर की लघुकथा पाठक से इसी प्रातिभ क्षमता की अपेक्षा रखती है। ऐसी लघुकथाएँ वैयक्तिक स्तर का रंजन नहीं होकर निर्वेयक्तिक स्तर का रंजन होती है। पाठक व्यक्तिगत भावभूमि से इन्सानियत की भावभूमि की ओर बढ़ता है। ये लघुकथाएँ उसके चिन्तन का विषय बनती है।
डा. पुणताम्बेकर की यह लघुकथा मुझे इतने लम्बे समय से याद है ;क्योंकि उसमें रंजन से अधिक चिन्तन है। समय के संघर्ष और सरोकारों को यह लघुकथा रेखांकित करती है। ऐसी ही रचनाएँ अपनी रचना के द्वारा एक प्रतिजगत् रचती है। लेखक और पाठक दोनों ऐसी लघुकथा के साथ एक रिश्ता बनाते है। ऐसे सरोकार के साथ लिखी गई लघुकथा ही किसी संघर्ष का हिस्सा बनती है और रचनाकार की प्रतिबद्धता एवं पक्षधरता भी इसी प्रकार से सामने आती है।
लघुकथा में ये सारी ताकत बड़ी गहराई से विद्यमान है और लघुकथा लेखकों को इस ताकत का प्रयोग अपने लेखन में करना चाहिए तभी उनकी लघुकथा कालाजयी बन सकेगी।