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मेरी पसंद - डॉ. अनूप सिंह
डॉ. अनूप सिंह

पहली लघुकथा ‘स्वागत’ (डॉ. श्याम सुन्दर दीप्ति)मुझे इसलिए श्रेष्ठ लगती है इस में प्रस्तुत घटना का काल/समय कम से कम है। घटना स्थल एक ही है। रचना में कोई पृष्ठभूमि/भूमिका नहीं है। लघुकथा में लेखक कहीं भी स्वयं बोलता हुआ दिखाई नहीं देता। रचना में एक भी शब्द अनावश्यक नहीं है।लघुकथा एक उलझन से प्रारंभ होती है। पाठक/श्रोता के मन-मस्तिष्क में यह जानने की उत्सुकता पैदा होती है कि आगे क्या हुआ। भाव, रचना में आवश्यक कथारस मौजूद है।चुस्त वार्तालाप- शैली और स्वयं से वार्तालाप के सुनियोजित छोटे-छोटे अवतरण में बँटी लघुकथा के तीसरे अवतरण में ही उलझन के दूर होने का संकेत मिलता है।
इस लघुकथा में केवल दो ही पात्र हैं। तीसरा पात्र वेटर मूक-पात्र (Silent) है, लेकिन रचना के चरम पर उसकी हाज़री आवश्यक थी। लघुकथा का शीर्षक व्यंग्ययुक्त एवं उपयुक्त है। रचना का पुरुष पात्र प्रत्येक कदम पर बढ़ता हुआ पुरुष मानसिकता व कामेच्छा को प्रकट करता है। दूसरी ओर नारी पात्र अपना स्वाभिमान बचाने के लिए मानसिक स्तर पर तैयारी करती रहती है तथा अंत में पुरुष के मुँह पर थप्पड़ मारती हुई सार्थक संदेश दे जाती है। सार्थक संदेश देने के कारण वह लघुकथा की नायिका बन जाती है।
रचना में अंग्रेजी भाषा के शब्दोँ/वाक्यों का प्रयोग पढ़ी-लिखी मध्य श्रेणी के अनुरूप है और इसलिए अखरता नहीं है।
दूसरी लघुकथा ‘माँ का कमरा’ (श्याम सुन्दर अग्रवाल) प्रारंभ त्वरित है। लेखक ने न कोई भूमिका बाँधी और न ही कोई पृष्ठभूमि दी। सम्पूर्ण लघुकथा एक ही बिंदु पर केन्द्रित है। रचना में अनावश्यक फैलाव नहीं है। रचना में मुख्य रूप से दो ही पात्र हैं, माँ और बेटा। माँ की पड़ोसन तथा शहरी घरेलू नौकर की भूमिका बेहद गौण है, लेकिन परिस्थितियों के अनुरूप आवश्यक है।
वास्तव में ‘माँ’ ही मुख्य पात्र है तथा वह रचना में हर जगह मौजूद है। ‘माँ’ भारतीय माँओं का प्रतिनिधित्व करती है। माँ-पात्र बसंती का स्वयं से वार्तालाप परिस्थिति के अनुरूप है। घर मेँ ऐसा कोई पात्र नहीं है, जिससे वह बात कर सके, विचार-विमर्श कर सके। स्वगत शैली व वार्तालाप शैली के सुमेल से लघुकथा निर्मित हुई है।
उपयुक्त शीर्षक वाली लघुकथा में माँ के मन-मस्तिष्क में उपजी शंकाएँ पूरी तरह परिस्थितियों के अनुरूप हैं। माँ की सोच-प्रक्रिया भारती माँओं के अनुसार ही है। उनमें सभी परिस्थितियों में सहज रहने व सामंजस्य बैठा लेने की विलक्षण प्रवृत्ति है। वे अपने बेटे-बेटियों को सदा सुखी बसते देखना चाहती हैं।सार्थक संदेश देती हुई यह रचना इच्छित-यथार्थ की ओर संकेत करती है। नकारात्मक चित्रण द्वारा नफ़रत उपजाने से यह विधि ठीक भी है और सकारात्मक भी।
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1-स्वागत-श्याम सुन्दर दीप्ति (डॉ.)
वह खाना खा, नाइट-सूट पहन, बैड पर जा बैठी। आदत के अनुसार, सोने से पहले पढ़ने के लिए किताब उठाई ही थी कि उसके मोबाइल-फोन पर एस.एम.एस की ट्यून बजी।
‘जिस तरह हम दिन भर इकट्ठे घूमे-फिरे, एक टेबल पर बैठ कर खाया। कितना मज़ा आया। इसी तरह एक ही बैड पर सोने में भी खुशी मिलती है। इंतज़ार कर रहा हूँ।’
उसने कुछ दिन पहले ही एक नई कंपनी में नौकरी शुरू की थी। एक सीनियर अफसर के साथ कंपनी के काम से दूसरे शहर में आई थी। दिन का काम निपटाकर वे एक होटल में ठहरे हुए थे।
‘ऐसा बेहूदा मैसेज! सीनियर की तरफ से। उसने पल भर सोचा– नहीं, नहीं, इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। बात अभी ही सँभालनी चाहिए। मैं एम.डी. से बात करती हूँ।’ उसे गुस्सा आ रहा था। इसी दौरान फिर मैसेज आया।
‘तुम शिकायत करने के बारे में सोच रही हो। तुम जिससे भी शिकायत करोगी, उसे भी यही इच्छा ज़ाहिर करनी है। तुम्हारे संपर्क में जो भी आएगा, वह ऐसा कहे बिना नहीं रह सकेगा। तुम चीज ही ऐसी हो।’
‘मैं चीज हूँ, एक वस्तु। मुझे लगता है, इसका किसी लड़की के साथ पाला नहीं पड़ा।’ उसका गुस्सा बढ़ता जा रहा था। एक बार फिर एस.एम.एस. आया।
‘देखो! जिन हाथों को छूने से खुशी मिलती है, उन हाथों से थप्पड़ भी पड़ जाए तो कोई बात नहीं। इंतज़ार कर रहा हूँ।’
इसकी हिम्मत देखो…‘इंतज़ार कर रहा हूँ’। फिर उसके मन में एक ख़्याल आया, अगर वह आ गया तो?…डरने की क्या बात है। उसने अपने आप को सहज करने की कोशिश की। यह एक अच्छा होटल है। ऐसे ही थोड़ा कुछ घट जाएगा।
वह ख़्यालों में डूबी थी कि बैल बजी। उसने सोचा, वेटर होगा। उसने चाय का आर्डर दे रखा था। दरवाजा खोला तो अफसर सामने था। वह अंदर आ गया। कल्पना ने भी कुछ न कहा।
वह बैड के आगे से घूमता हुआ, दूसरी तरफ बैड पर सिरहाने के सहारे बैठ गया।
“सर! आप कुर्सी पर बैठो, आराम से।” कल्पना ने सुझाया।
“यहाँ से टी.वी. ठीक दिखता है।” अफसर ने अपनी दलील दी।
“सर! अभी वेटर आएगा। अजीब सा लगता है।” कल्पना ने मन की बात रखी।
“नहीं, नहीं, कोई बात नहीं। ये सब मेरे जानकार हैं। बी कम्फर्टेबल।”
वेटर ने दरवाजा खटखटाया और ‘यैस’ कहने पर भीतर आ गया। वेटर ने चाय की ट्रे रखी और पूछा, “मैम! चाय बना दूँ?” और ‘हाँ’ सुनकर चाय बनाने लगा।
कल्पना ने फिर कहा, “सर ! आप इधर आ जाओ, चाय पीने के लिए। कुर्सी पर आराम से पी जाएगी।”
वह कुर्सी पर आने के लिए उठा। कल्पना भी उठी। वेटर ने चाय का कप ‘सर’ को पकड़ाने के लिए आगे किया ही था कि कल्पना ने खींच कर एक तमाचा अफसर के गाल पर मारते हुए कहा, “गैट आउट फ्राम माई रूम।”
और फिर एक पल रुककर बोली, “आपका ऐसा स्वागत मैं दरवाजे पर भी कर सकती थी। पर सोचा, इस होटल के सारे वेटर आपके जानकार हैं, उन्हें तो भी पता चलना चाहिए।”
इतना कहकर वह सहज होकर बैठ गई।
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2- माँ का कमरा - श्याम सुन्दर अग्रवाल
छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- ‘माँ, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है, रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहाँ तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, “अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बचनी गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।”
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
“एक ज़रूरी काम है माँ, मुझे अभी जाना होगा।” कह, बेटा माँ को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.”
बेटा हैरान हुआ, “माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा! यह मेरा कमरा!! डबल-बैड वाला…!”
“हां माँ, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आँखों में आँसू आ गए।
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