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मेरी पसंद - निरंजन बोहा
निरंजन बोहा

मेरे लिए श्रेष्ठ लघुकथा का प्रथम मानदंड यह है कि उस लघुकथा के पाठगत-अध्ययन का प्रभाव दीर्घकाल तक मेरे मन-मस्तिष्क में बना रहे। हिंदी के रचनाकार सुभाष नीरव की लघुकथा ‘बीमार’ का पाठ मैंने लगभग दो दशक पहले किया था। इस लघुकथा के गरीब व्यक्ति की मजबूरी व लाचारी का मर्मस्पर्शी वर्णन आज भी मेरी स्मृति में बना हुआ है। लघुकथा के पात्र ‘पापा’ व उसकी तीन वर्षीय बच्ची के बीच हुए वार्तालाप के संक्षिप्त-से वाक्य मेरी मानसिक बेचैनी में बढ़ोतरी करने वाले हैं।
1. “अनार बीमार लोग खाते हैं।”
2. “मैँ कब बीमाल होऊंगी, पापा?”
पहला वाक्य उस गरीब और लाचार बाप की मन:स्थिति को प्रकट करता है, जो अपनी मासूम बच्ची की छोटी-छोटी स्वाभाविक इच्छाओं की पूर्ति भी नहीं कर सकता। बच्ची को बहलाने के लिए झूठ बोलते समय उसे जिस मानसिक पीड़ा को सहन करना पड़ा होगा, उसका अनुमान लगाना मेरे लिए सहज नहीं है।
दूसरा वाक्य, एक गरीब परिवार में जन्म लेने वाली बच्ची में उसकी पहुँच से बाहर के सेब अथवा अनार जैसे फल का स्वाद चखने की तीव्र इच्छा व जिज्ञासा को व्यक्त करता है। साथ ही उसकी इच्छा पूरी न हो पाने का दर्द भी महसूस होता है। बच्ची के सवाल की मासूमियत पाठक को झिंझोड़ कर रख देती है। बच्ची की संवेदना का सफल संचार उसके पापा के साथ-साथ पाठको को भी विचलित करता है। लघुकथा-पाठ के बाद पाठकों में बच्ची से सेब या अनार का स्वाद छीनने वाली सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था के विरुद्ध स्वाभाविक नफ़रत की भावना पैदा होती है।
यह लघुकथा आधुनिक हिंदी लघुकथा के रूप-विधान की सभी शर्तें भी पूरी करती है। लघुकथा आकार के पक्ष से छोटी है, परंतु विचार के पक्ष से बहुत बड़ी है। गागर में सागर भरने वाली ऐसी हृदय-स्पर्शी लघुकथाएँ बहुत कम लिखी जा रही हैं।
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श्याम सुन्दर अग्रवाल का शुमार पंजाबी के उन गिने-चुने लेखकों में होता है, जिन्होंने केवल लघुकथाएँ लिख कर ही साहित्य-जगत में अपने लिए सम्मानजनक स्थान बनाया है। लघुकथा-साहित्य के क्षेत्र में उसकी ओर किया गया गणनात्मक व गुणात्मक कार्य इतना मूल्यवान है कि इस नई विधा संबंधी की गई कोई भी चर्चा उस के ज़िक्र के बिना अधूरी लगती है। लघुकथा की कथात्मक व कलात्मक ज़रूरतों के प्रति वह बहुत ही सचेत है। इसीलिए इनके द्वारा लिखी प्रत्येक लघुकथा नए पंजाबी लघुकथा लेखकों द्वारा एक मॉडल के रूप में स्वीकार की जाती है।
श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथा ‘आँगन की धूप’ मेरी पसंद की चुनिंदा लघुकथाओं में शामिल है। अगर पंजाबी लघुकथा के अभिव्यक्तिगत सामर्थ्य संबंधी चर्चा करनी हो तो यह रचना एक स्पष्ट पुष्टिमूलक उदाहरण के रूप में हमारे सामने आती है। इस रचना के पाठ के बाद हम यह दावा पूर्ण विश्वास के साथ कर सकते हैं कि लघुकथा अब बड़े सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक मसलों व फ़लसफ़ों को पूर्ण कलात्मकता सहित प्रस्तुत करने का सामर्थ्य रखती है। इस लघुकथा के पात्र सम्पत लाल और मुन्नी देवी के घर की छीनी गई धूप का मसला केवल इस वृद्ध दम्पती का निजी मामला नहीं है, बल्कि उनका घर उन जैसे करोड़ों भारतीयों के घरों का प्रतिनिधित्व करता है, जिनकी सुख-सुविधाओं रूपी धूप आज की आर्थिक व्यवस्था ने छीन ली है। इस घर का वैचारिक बिम्ब फैल कर उन गरीब मुल्कों की तरफ भी इशारा करता है, जो विश्व बाज़ार के दबावों का सामना करते हुए अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने के लिए जद्दोजेहद कर रहे हैं। सम्पत लाल का घर के गमलों को धूप के टुकड़े अनुसार सरकाना, गरीब लोगों व देशों द्वारा अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए किए जा रहे संघर्ष का ही प्रतीक है।
यह लघुकथा अपने कथा-रस को शुरू से लेकर अंत तक बरकरार रखती है। कथा का गल्प-बिम्ब निर्मित करता इस का अंतिम वाक्य– “हाँ… हमने अपना पुश्तैनी मकान उन्हें नहीं बेचा तो उन्होंने हमारे आँगन की धूप पर कब्जा कर लिया।” पाठकों के सोचने के लिए बहुत कुछ छोड़ जाता है व लघुकथा समाप्त होकर भी समाप्त नहीं होती। विषय व उसकी कलात्मक प्रस्तुति के पक्ष से मैं इसे एक श्रेष्ठ लघुकथा मानता हूँ।
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1-बीमार
सुभाष नीरव

“चलो, पढ़ो।”
तीन वर्षीय बच्ची किताब खोलकर पढ़ने लगी, “अ से अनाल... आ से आम...” एकाएक उसने पूछा, “पापा, ये अनाल क्या होता है ?”
“यह एक फल होता है, बेटे।” मैंने उसे समझाते हुए कहा, “इसमें लाल-लाल दाने होते हैं, मीठे-मीठे !”
“पापा, हम भी अनाल खायेंगे...” बच्ची पढ़ना छोड़कर जिद्द-सी करने लगी। मैंने उसे डपट दिया, “बैठकर पढ़ो। अनार बीमार लोग खाते हैं। तुम कोई बीमार हो ! चलो, अंग्रेजी की किताब पढ़ो। ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने...।”

सहसा, मुझे याद आया, दवा देने के बाद डॉक्टर ने सलाह दी थी– पत्नी को सेब दीजिए, सेब।
सेब !
और मैं मन ही मन पैसों का हिसाब लगाने लगा था। सब्जी भी खरीदनी थी। दवा लेने के बाद जो पैसे बचे थे, उसमें एक वक्त की सब्जी ही आ सकती थी। बहुत देर सोच-विचार के बाद, मैंने एक सेब तुलवा ही लिया था– पत्नी के लिए।
“बच्ची पढ़ रही थी, ए फॉर ऐप्पिल... ऐप्पिल माने सेब...”
“पापा, सेब भी बीमाल लोग खाते हैं ?... जैसे मम्मी ?...”
बच्ची के इस प्रश्न का जवाब मुझसे नहीं बन पड़ा। बस, बच्ची के चेहरे की ओर अपलक देखता रह गया था।
बच्ची ने किताब में बने सेब के लाल रंग के चित्र को हसरत-भरी नज़रों से देखते हुए पूछा, “मैं कब बीमाल होऊँगी, पापा ?”
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2-आँगन की धूप
श्याम सुन्दर अग्रवाल

बारह बजे के लगभग घर के छोटे से आँगन में सूर्य की किरणों ने प्रवेश किया। धूप का दो फुट चौड़ा टुकड़ा जब चार फुट लंबा हो गया तो साठ वर्षीय मुन्नी देवी ने उसे अपनी खटिया पर बिछा लिया।
“अपनी खटिया थोड़ी परे सरका न, इन पौधों को भी थोड़ी धूप लगवा दूँ।” हाथों में गमला उठाए सम्पत लाल जी ने पत्नी से कहा।
धूप का टुकड़ा खटिया और गमलों में बँट गया।
दो-ढ़ाई घंटों तक खटिया और गमले धूप के टुकड़े के साथ-साथ सरकते रहे।
छुट्टियों में ननिहाल आए दस वर्षीय राहुल की समझ में नहीं आ रहा था कि उसके नानू गमलों को बार-बार उठाकर इधर-उधर क्यों कर रहे हैं। आखिर उसने इस बारे नानू से पूछ ही लिया।
सम्पत लाल जी बोले, “ बेटा, पौधों के फलने-फूलने के लिए धूप बहुत जरूरी है। धूप के बिना तो ये धीरे-धीरे सूख जाएँगे।”
कुछ देर सोचने के बाद राहुल बोला, “नानू! जब हमारे आँगन में ठीक-से धूप आती ही नहीं ,तो आपने ये पौधे लगाए ही क्यों?”
“जब पौधे लगाए थे तब तो बहुत धूप आती थी। वैसे भी हर घर में पौधे तो होने ही चाहिए।”
“पहले बहुत धूप कैसे आती थी?” राहुल हैरान था।
“बेटा, पहले हमारे घर के सभी ओर हमारे घर जैसे एक मंजिला मकान ही थे। फिर शहर से लोग आने लगे। उन्होंने एक-एक कर गरीब लोगों के कई घर खरीद लिए तथा हमारे एक ओर चार मंजिला इमारत बना ली। फिर ऐसे ही हमारे दूसरी ओर भी ऊँची इमारत बन गई।”
“और फिर पीछे की तरफ भी ऊँची बिल्डिंग बन गई, है ना?” राहुल ने अपनी बुद्धि का प्रयोग करते हुए कहा।
“हाँ… हमने अपना पुश्तैनी मकान उन्हें नहीं बेचा तो उन्होंने हमारे आँगन की धूप पर कब्जा कर लिया।” सम्पत लाल जी ने गहरी साँस लेते हुए कहा।
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