इन दिनों लिखी जा रही अधिकतर लघुकथाएँ झकझोरने वाली है। ये लघुकथाएँ अपने समय से संवाद कर रही हैं और आईना भी दिखा रही है। गागर में सागर भरने की कला है लघुकथा । बहुत पहले मैंने एक लेख लिखा था -बोध, व्यंग्य और संवेदना को छूने वाली त्रिवेणी है लघुकथा। लघुकथा अपने आप में एक मुकम्मल रचना होती है। सारे कथा तत्त्व उसमें निहित होते हैं। बहुत सार में जीवन के विस्तार को बताने वाली कला का नाम है लघुकथा . जब मुझसे कहा गया की अपने पसंद की किसी दो लघुकथा पर कुछ लिखना है तो धर्मसंकट हो गया कि आखिर किसको चुनूँ किसे छोडूं? हर लघुकथा प्यारी है। ह्रदय को छूने वाली है। मैंने दो
सतीश दुबे और श्यामसुंदर अग्रवाल. ये दोनों मेरे प्रिय लेखक है। सतीश दुबे जी की लघुकथा '' बर्थ डे गिफ्ट'' मर्मस्पर्शी है। आज रिश्ते यांत्रिक हो गए है। स्वार्थपरता से ग्रस्त होते जा रहे हैं । बड़ों के भीतर की प्रेम नदी सूख चुकी है, मगर बच्चों के भीतर के जल में अभी प्रदूषण नहीं आ सका है। घर के बड़े-बूढ़ों को उनके बड़े बच्चों से नहीं, नन्हे बच्चों से ही प्यार मिलता है। दादा को उनका बेटा प्यार नहीं करता मगर उनका पोती कमी को पूरी कर देती है। और जन्म दिन पर दादा को गिफ्ट के रूप में वही चाकलेट को दादा को समर्पित कर देती है, जो चाकलेट (दादा ने एक दिन पहले अपनी पोती को दिलाई थी। वह चहकते हुए कहती है-‘‘दादाजी, आज आपका हैप्पी बर्थ–डे है ना!’
बुजुर्ग हमारे समाज में लगभग भुलाएजा रहे है; लेकिन निर्मल मन उन्हें याद रखता है। ऐसी लघुकथाएँ लिखी जानी चाहिए, जो मनुष्यता को ज़िंदा रखे। और सुखद घटनाओं को पाठ की तरह प्रस्तुत करती रहे। आने वाला समय की इबारत न लिखे, इस लिए ज़रूरी है की ऐसी रचनाएँ सामने आती रहे। मुझे इसी तरह की रचनाएँ बेहद पसंद आती हैं,. जो मनुष्य के भीतर सुप्त करुणा की अरुणा को जाग्रत करती है।
श्याम सुन्दर अग्रवाल लघुकथा के मँजे हुए शिल्पी हैं। उनकी लघुकथाएँ भी पढ़ता रहा हूँ। हर लघुकथा का अपना रंग । 'माँ का कमरा' भी दिल छू लेने वाली रचना है। आज बूढ़े माँ-बापों की हालत क्या है, कौन नहीं जानता , महानगरों के घरों में बच्चे उन्हें नौकरों जैसा ही ट्रीट करते है। अनुभव यही है। मगर यह लघुकथा उस भ्रम को तोड़ती है। यह लघुकथा बताती है की आज भी ऐसे बेटे हैं जो अपनी माँ को रहने के लिए अच्छा कमरा ही देना चाहते है। मतलब यह की हर कोई निर्मम नहीं है। कभी-कभी कोई श्रवणकुमार भी होता है। आज ऐसे ही लघुकथाएँ रची जानी चाहिए जो संस्काकारों का रास्ता दिखाएँ। यथार्थ कडुवा होता है, मगर बेहतर और रूमानी दुनिया बनाने की कल्पना भी लेखक कर सकता है। श्यामसुन्दर अग्रवाल जी की ये लघुकथा सुन्दर भावनाओं के उत्थान के लिए प्रेरित करने वाली लघुकथा है। बुजुर्ग बसन्ती डरते हुए बेटे के साथ शहर आती है कि पता नहीं उसे कौन -सा कमरा मिलेगा रहने के लिए, मगर जब बेटा उन्हें सजा-सँवरा कमरा दिखाता है और कहता है कि “माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
''बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा ! यह मेरा कमरा !! डबल-बैड वाला…!” आज अगर बूढ़े माता-पिता को डबल बेड वाला कमरा मिल जाए, तो यह उनका सौभाग्य ही समझिए। लघुकथा लेखक ने ऐसी कथा बुनी है, जो यथार्थ के काफी नज़दीक भी है। हमारे आसपास ऐसे बच्चे मिल सकते हैं, जो बुजुर्गों का ख़्याल रख सकते हैं और उन्हें अपने ही जैसी सुविधाएँ भी दे सकते हैं. यह रचना एक आस्था जगाती है और समाज को बेहतर बनाने की दिशा में एक कदम बढ़ाती है। ये रचनाएँ छीजते जा रहे मूल्यों की पुनर्स्थापना में अपना योगदान करने में सक्षम हैं औरसमाज की मानसिकता में बदलाव लाने का काम कर सकती है।
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'बर्थ डे गिफ्ट'-सतीश दुबे
आटो रिक्शा जैसे ही रुका उन्होंने गेट के बाहर पाँच वर्षीय पोती को खड़े पाया। उसके चेहरे से यह झलक रहा था कि वह उन्हीं का इन्तज़ार कर रही है।
‘‘दादाजी!’’
‘‘बेटे! आज जरूर कुछ विशेष बात है।ऑटो से उतरकर उन्होंने प्रश्नसूचक दृष्टि से उसे देखा।
‘‘दादाजी, आज आपको बहुत अच्छी बात बताऊँगी।’’ किसी विशिष्ट मेहमान के आगमन में व्यस्त किए जाने वाले, आत्मीय खुशी के इज़हार में रूप में वह उनके आगे–आगे चलते हुए नृत्य करने की मुद्रा में हाथ–पैर मटका रही थी।
वे सौफे पर जाकर बैठ गए। पत्नी द्वारा दिया गया एक गिलास पानी गटक जाने के बाद भी थकान के कारण उनका हलक सूखा था। उन्होंने पानी और देने को संकेत किया। अब वे तर थे। पोती इस पूरे क्रिया –कलाप से बेख़बर उनके दोनों पैरों के बीच चेहरा डाले मुस्कुरा रही थी। ‘‘बता दूँ....’’ उसने दादी की ओर निगाह डाली। वे समझ गए, दादी–पोती की कोई साजिश है। ‘‘बता दो....क्या बताना चाहती हो।’’’
‘‘दादाजी, आज आपका हैप्पी बर्थ–डे है ना!’’ उन्होंने हिसाब लगाया, आज उनकी उम्र के सत्तावन साल पूरे हो गए हैं।
‘‘अच्छा! हाँ! मैं तो भूल ही गया था।’’ वे न जाने कौन से विचारों में खो गए।
‘‘ दादाजी, मैं आपके लिए गिफ्ट लाई हूँ।.....लाती हूँ।’’ उसकी जल्दबाजी से लग रहा था, गिफ्ट के रूप में अपनी खुशी को प्रकट करने के लिए अपने आपको न जाने कब से रोक रही थी। पीछे की ओर हाथों में कुछ छिपाए वह लौटी। ‘‘आप आँखें मींचिए।’’ उन्होंने आँखें मूँद लीं।
‘‘खोल लीजिए।’’
‘‘इधर देखिए’’ उसने सेन्ट्रल टेबल पर रखी टॉफी की ओर इशारा किया तथा ताली बजाकर गाने लगी–‘‘हैप्पी बर्थ–डे टू यू....दादाजी.....।’’ उन्होंने महसूस किया, उनके सामने बेशकीमती उपहार रखा हुआ है। घर का सन्नाटा टूट चुका है तथा पूरा कमरा ‘‘हैप्पी बर्थ–डे टू यू’’ से गूँज रहा है। याद आया, उसे कल दो टॉफियाँ दिलाई गई थीं। उसे याद था, कल दादाजी का बर्थ–डे है, इसलिए उसने एक टॉफी जतन से अपने स्टडी टेबल के ड्राअर में छुपाकर रख दी थी।
‘‘दादाजी, आपको गिफ्ट कैसा लगा....’’
‘‘बहुत अच्छी। थैंक्यू बेटे....।’’
‘‘तो लीजिए ना!’’ उसने रैपर खोलकर, हँसते हुए टॉफी उनके मुँह में डाल दी। उन्होंने दोनों हाथों से उसे अपने सीने से भींच लिया। जीवन में पहली बार इतने आत्मविभोर वातावरण में उनका जन्मदिन मनाया गया था। नम आँखों से उन्होंने पोती को चूम लिया।
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2-माँ का कमरा
श्याम सुन्दर अग्रवाल
छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला- ‘माँ, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है, रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहां तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, “अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बचनी गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।”
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
“एक ज़रूरी काम है मां, मुझे अभी जाना होगा।” कह, बेटा मां को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था- डबल-बैड बिछा था, गुस्लखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियाँ भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी- काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता। वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डाँटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता.”
बेटा हैरान हुआ, “माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा ! यह मेरा कमरा !! डबल-बैड वाला…!”
“हाँ माँ, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आंखों में आँसू आ गए।
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