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मेरी पसंद - डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र

डॉ मिथिलेशकुमारी मिश्र

आज आदमी अधिकाधिक धानोपार्जन की होड़ में इस त्वरा से जुट गया है कि उसके पास अपनी मानसिक भूख मिटाने हेतु समय ही नहीं रह गया है। ऐसी स्थिति में बृहताकार विधाएँ यथा- उपन्यास, महाकाव्य, खण्ड–काव्य इत्यादि प्राय: उपेक्षित–सी होती जा रही हैं और उनके स्थान पर लघुआकारीय विधाएँ अपेक्षाकृत पाठकों का स्नेह प्राप्त करने में अधिक सफल हो रही हैं। ऐसी विधाओं में लघुकथा अग्रगण्य है, ऐसा अकारण नहीं है, इसका कारण लघुकथा का मात्र ‘लघु’ आकारीय होना नहीं है। इसके अनेक कारण हैं। सबसे बड़ा कारण इसका क्षिप्र होना है और लघुकथा में क्षिप्रता भाषा की चुस्ती एवं सांकेतिकता से आती है। यों तो प्रत्येक विधा की रचनाओं में संवेदना महत्त्वपूर्ण होती है किन्तु लघुकथा में इसका महत्त्व अधिक इसलिए हो जाता है कि इसे बिना किसी फालतूपन के अपनी पूरी त्वरा से अपने लक्ष्य तक पहुँचना होता है। यही कारण है कि अन्य विधाओं की अपेक्षा इसका शीर्षक अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है और वह लघुकथा का अभिन्न अंग बनकर प्रस्तुत होता है । ये सारी विशेषताएँ प्राय: श्रेष्ठ लघुकथाकारों की लघुकथाओं में प्रत्यक्ष होती हैं। वैसे तो आज अनेक नये–पुराने कथाकार अच्छी–अच्छी लघुकथाएँ लिख रहे हैं जिन्हें पत्र–पत्रिकाओं एवं संकलनों में देखा–पढ़ा जा रहा है। किन्तु जिन कतिपय कथाकारों की लघुकथाओं ने मुझे प्राय: झकझोरा है। उनमें विष्णु प्रभाकर एवं डॉ सतीशराज पुष्करणा मुख्य हैं।
विष्णु प्रभाकर किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। आज से लगभग तीन दशक पूर्व प्रभाकर जी की लघुकथाओं का संग्रह ‘आपकी कृपा है’ पढ़ने का मौका मिला था। वैसे तो उसकी प्रत्येक रचना हृदयस्पर्शी थी किन्तु कुछ लघुकथाएँ तो ऐसी थीं जिनकी छाप मेरे मन–मस्तिष्क से अभी तक हट नहीं पायी है और शायद कभी हटेगी भी नहीं। वैसे भी स्मरणीय लघुकथाओं में एक लघुकथा है ‘फर्क’। दो पड़ोसी देशों के मय विभाजन–रेखा को विवेकशील इंसान इतना महत्त्व देता है कि दोनों और के व्यक्ति एक–दूसरे पर तनिक भी विश्वास नहीं कर पाते और ये पशु जिन्हें विवेक से कुछ भी लेना–देना नहीं है, बेखौफ विभाजन–रेखा के कभी इस पार आ जाते हैं तो कभी उस पार चले जाते हैं। तो क्या विवेकवान् होना इतना ही घातक है? इस बात को कहने में विष्णु प्रभाकर ने जिस भाषा–शैली का और जिस ढंग से उपयोग किया है कि वह एक महीन व्यंग्य के रूप में किसी भी पाठक के हृदय को मथकर रख देता है और वह कुछ देर नहीं काफी देर तक सोचने को विवश हो जाता है। इसकी कतिपय पंक्तियाँ इस संदर्भ में अवलोकनीय हैं.‘‘ मैं इंसान हूँ, अपने पराये में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें है।’’ अब वह पंक्ति देखें जिससे यह लघुकथा तो पूर्णता को प्राप्त होती है और यहीं पाठक का सोच–विचार आरंभ हो जाता है। वे पंक्ति इस प्रकार है.‘‘उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कुराहट के साथ उत्तर दिया, ‘‘जी हाँ जनाब! ;बकरियाँ हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।’’ इस लघुकथा का शीर्षक भी लघुकथा का अभिन्न अंग बनकर उभरता है। इन्हीं कारणों से ‘फर्क’ लघुकथा मुझे बेहद पसंद है।
मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा, लघुकथा–आंदोलन के पांक्तेय कथाकार डॉ सतीशराज पुष्करणा की ‘अँधेरा’ है। डॉ पुष्करणा के पाँच एकल लघुकथा–संग्रह प्रकाश में आ चुके हैं और उनमें अनेक लघुकथाएँ ऐसी हैं जो लघुकथा–इतिहास की धरोहर हैं. किन्तु जो मुझे उनकी श्रेष्ठ लघुकथाओं में भी जो बहुत पसंद है वह लघुकथा अँधेरा’ है। इन पाँचों संग्रहों में वह किसी में भी शामिल नहीं हो पायी है। शायद इसका सृजन बाद में हुआ। मैंने यह पहले ‘हरिगंधा’ के लघुकथांक तथा फिर कमल चोपड़ा के संपादकत्व में प्रकाशित ‘संरचना’ पत्रिका में पढ़ी । यह लघुकथा दंगे की त्रासदी को केन्द्र में रखकर लिखी गयी ऐसी अनूठी रचना है जो बिना किसी सम्प्रदाय विशेष का नाम प्रत्यक्ष किये सहज ही संप्रेषित हो जाती है। इस लघुकथा की अन्तर्वस्तु नई नहीं है यानी दंगे की त्रासदी पर अनेक लघुकथाएँ प्रकाश में आ चुकी हैं ;किन्तु डॉ. पुष्करणा की अँधेरा’ अपने शैल्पिक वैशिष्ट्य के कारण उन सभी लघुकथाओं में अलग ध्रुव सितारे–सी अपनी चमक बिखेरती हुई आकर्षित करती है।
यह पूरी लघुकथा सांकेतिक भाषा में लिखी गयी है जो किसी को भी सहज ही आकर्षित कर लेती है। इसकी कतिपय पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं.चार–पाँच साल पहले जहाँ एकता का राज कायम था, वहाँ आज राख में बदली एकता निर्जीव पड़ी थी। उसने चारों ओर नजर घुमायी। हर ओर अंधेरा और सन्नाटा पसरा था। उसके आँसू सूख चुके थे। खुश्क आँखें उत्सुकता लिए राख को हर ओर से टटोल रही थी ताकि कहीं से यह पता चले कि राख का कौन–सा हिस्सा इस सम्प्रदाय का है और कौन–सा उस सम्प्रदाय का इन पंक्तियों में जहाँ भाषा की सांकेतिकता उभरती है वहीं इस लघुकथा में उभरा दर्द अपनी पूरी मार्मिकता के साथ हृदय को स्पर्श कर जाता है ‘अँधेरा’ शीर्षक प्रतीकात्मक है जो इस लघुकथा के लिए बहुत सटीक है एवं इस लघुकथा का अभिन्न अंग बनकर उभरता है। इन्हीं विशेष कारणों से यह लघुकथा मुझे बेहद बहुत पसंद है।
मेरी दृष्टि में आकारगत लघुता के कारण लघुकथा में मर्मस्पर्शिता एवं सांकेतिक वांछनीय है।
प्रस्तुत हैं, मेरी पसंद की दोनों लघुकथाएँ-
1. फर्क
विष्णु प्रभाकर

उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा–रेखा को देखा जाए। जो कभी एक देश था, अब दो होकर कैसे लगता है। दोनों एक दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है ,जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा है, लेकिन अकेला नहीं था.पत्नी थी और थे अट्ठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे।
इतना ही नहीं, कमाण्डर ने एक कान में कहा, ‘‘उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।’’
उसने उत्तर दिया, ‘‘जी नहीं, उधर कैसे जा सकता हूँ?’’
और मन–ही–मन कहा, मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं ? मैं इन्सान हूँ, अपने पराये में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें है।
वह यह सब सोच रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रौबीले पठान थे। बड़े तपाक् से हाथ मिलाया। उस दिन ईद थी। उसने उन्हें मुबारकबाद कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार हाथ मिलाकर वे बोले, ‘‘इधर तशरीफ लाइए। हम लोग के साथ एक प्याला चाय पीजिए।’’
इसका उत्तर उसके पास तैयार था अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा, ‘‘बहुत–बहुत शुक्रिया। बड़ी खुश होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही लौटना है और वक्त बहुत कम है आज तो माफी चाहता हूँ।’’
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ और बातें हुईं कि पाकिस्तान की ओर से कुलाँचे भरता हुआ बकरियों का एक दल उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा ‘‘ये आपकी हैं?’’
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया, ‘‘जी हाँ जनाब, हमारी हैं। जानवर हैं, फ़र्क करना नहीं जानते।’’
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2. अँधेरा-डॉ सतीशराज पुष्करणा
शहर में जब उसने सुना कि उसका गाँव दंगे की आग में राख हो गया है। वह अपने को रोक न सकी।
मुख्य सड़क से उसने देखा उसके गाँव का आकाश धुएँ के बादलों से ढका सिसक रहा है। वह सुबक पड़ी। मिनटों का फासला पाँव सैकण्डों में तय करने लगे।
चार–पाँच साल पहले जहाँ एकता का राज कायम था, वहाँ आज राख में बदली एकता निर्जीव पड़ी थी। उसने चारों ओर नज़र घुमाई। हर ओर अँधेरा और सन्नाटा पसरा था। उसके आँसू सूख चुके थे। खुश्क आँखें उत्सुकता लिये राख को हर ओर से टटोल रही थीं। कहीं से तो यह पता चले कि राख का कौन–सा हिस्सा इस सम्प्रदाय का है और कौन–सा उस सम्प्रदाय का?
चारों ओर पुलिस और आसपास के गाँवों के लोगों की भीड़ थी मगर उसे हर ओर शून्य का आभास हो रहा था। शून्य की आँखें में झाँककर वह पूछ रही थी.इंसान कहाँ है? वह कहाँ मर गया।
-0-उपनिदेशक,बिहार–राष्ट्रभाषा–परिषद्,सैदपुर, पटना–800004 बिहार

 

 
 
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