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मेरी पसंद - डॉ• भावना कुँअर

डॉ• भावना कुँअर

बचपन में दादाजी से बहुत कहानियाँ सुना करते थे जो दो,तीन दिन में जाकर पूरी हुआ करती थीं।आज दादाजी के साथ वो कहानियाँ भी चली गई और पढ़ने का शौक भी जाता रहा, उसके पीछे बड़ा कारण है ,वही घिसे-पिटे कथानक,वही एक सी सोच,मिला-जुला सा अन्त ।दुःख होता था मुझे कि मैं एक विधा से कोसों दूर हो गई,तभी मेरा परिचय लघुकथा डॉट कॉम से हुआ जो सुकेश साहनी और रामेश्वर काम्बोज के संरक्षण में खूब फल-फूल रही है, हो भी क्यों न इनका कठिन परिश्रम, निष्पक्ष भाव ,तेज दृष्टिकोण इसे ऊँचाइयों तक ले जा रहा है,पाठक में पढ़ने की ललक को पैदा कर रहा है ।इनकी पैनी दृष्टि उन लघुकथाओं को सामने लाई है ,जो समाज को एक नई दिशा की ओर ले जाने में जरूर सक्षम होंगी, ऐसा मेरा मानना है। ऐसा ही साहित्य आज लिखे जाने की आवश्कता है। मैंने लगभग सभी लघुकथाएँ पढ़ी हैं, पर उनमें से दो को चुनना वास्तव में बहुत मुश्किल काम है, फिर भी मैं कुछ नाम जरूर लेना चाहूँगी, जिनके कारण मेरी छूटी हुई विधा फिर मेरे गले आ लगी। रावी की- भिखारी और चोर ,शशि प्रभा शास्त्री की- सज़ा , गुरमेल मडाहढ़ की- अहसास ,जगदीश अरमानी की-कमानीदार चाकू ,रमेश बत्तरा की- लड़ाई ,श्याम नन्दन शास्त्री की- धरती का काव्य ,अखिल रायजादा की- पहला संगीत , सुकेश साहनी की ठण्डी रजाई , स्कूल , मैं कैसे पढ़ूँ, दूसरा चेहरा , तोते विजेता , अशोक भटिया की-सपना और रामेश्वर काम्बोज की खुशबू , ऊँचाई ,नवजन्मा।
इन कथाओं में एक बेचैनी- सी है कुछ कर दिखाने की बेचैनी,एक गहन सोच इस चरमराती व्यवस्था को पलट देने की,एक साफ-सुथरे समाज का निर्माण करने की,रिश्तों में बिखरते प्यार को फिर से सँजोने की,बड़े बुजुर्गों को सम्मान देने की। मैं ‘पहला संगीत’ और ‘नवजन्मा’ पर अपनी बात कहना चाहूंगी ।
अखिल रायजादा की लघुकथा पहला संगीत पढ़ी तो रोमांचित हो गई । किसी डर के कारण नहीं, बल्कि बहुत नाजुक प्यार को महसूस करने के कारण , जो दुःख की पीड़ा से भीगने से हो गए हैं।आज जब भी किसी गिटार वाले से मेरा सामना होता है वो नन्हीं सी बच्ची मेरे सामने गोद में अपने भाई को लिये आ खड़ी होती है और मेरे कानों में गूँजने लगती है - हैप्पी बर्थ डे टू यू की धुन। अब आप समझ ही सकते हैं कि कितनी गहन और गम्भीर है ये लघुकथा जो कभी न मिटने वाली छाप छोड़ जाती है। वन का यह संगीत जब जनसामान्य के साथ जुड़ जाता है , सार्थक हो जाता है । यह पहला संगीत ही वास्तविक संगीत है जो दूसरे के लिए ही बजे और गूँजे ।गरीबी,बेबसी,लाचारी,प्यार,अपनापन और कोमल भावनाओं से सिक्त है ये लघुकथा ।
रामेश्वर काम्बोज की लघुकथा नवजन्मा के बारे में क्या कहूँ ? सच तो ये है कि इस लघुकथा ने ना जाने कितनी जिंदगियाँ सामने लाकर खड़ी कर दी हैं । जिधर देखो वही आवाज़ें सुनाई दे रहीं हैं,न सिर्फ मेरे ही कानों ने बल्कि सभी पाठकों ने सुनी होंगी वो आवाजें ।पूरे वातावरण में गूँज रही हैं ये कड़वी,दुःखदायी बातें जो इस लघुकथा के पात्रों के मुख से निकली हैं।इस लघुकथा को पढ़कर शुरू में जहाँ मन दादी और बहन के कथन से अंदर तक बिंधता चला जाता है ; वहीं जिलेसिंह के चेहरे पर उभरे हाव -भाव कथा को विस्तार देते हैं ।सन्तु ढोलिए की उपस्थिति में जिलेसिंह की प्रतिक्रिया से चेहरे पर न सिर्फ मुस्कान खिल उठती है, बल्कि गर्व से सीना फूल जाता है।माँ के लिए तो बेटा हो या फिर बेटी दोनों ही संतानें उसके जिगर का टुकड़ा होती हैं,पर वास्तविक जीवन में पिता को पुत्र के लिए कई-कई बार नन्हीं-नन्हीं जानों को कतरा-कतरा कराहते हुए या फिर पुत्र की चाह में बच्चों की लाइन लगाते हुए देखा है, या फिर पुत्र को जन्म न देने की स्थिति में पत्नी को दोषी ठहराते हुए । इस लघुकथा के माध्यम से जो पिता का पुत्री के प्रति स्नेह दिखाया है वह उन पिताओं के लिए एक सबक साबित होगा जो पुत्रियों को दुनिया में आने से पहले ही उनका कत्ल कराने में जरा भी नहीं चूकते। आज समाज में जहाँ भ्रूण -हत्या जैसे जंघन्य अपराध हो रहे हैं, वहाँ समाज को इस स्वस्थ सोच की बहुत आवश्यकता है। ऐसी लघुकथायों, कविताओं के माध्यम से ही हम इस समाज की संकीर्ण सोच को बदल सकते हैं।ऐसा ही साहित्य लिखा जाना चाहिए जो समाज में फैली विद्रूपताओं और संकीर्णताओं को जड़ से उखाड़ फेंके और एक स्वस्थ,नवीन समाज की रचना कर सके।
सच्चे मायनों में लघुकथा वहीं हैं ,जिनमें कथ्य, शिल्प,परिपक्वता,भावों की गहन और मार्मिक अभिव्यक्ति,भावनाओं का उन्नयन,शब्दों का संयोजन,उत्सुकता, सशक्त भाषा ये सभी कुछ एक शिल्पकार की तरह पूरी तरह तराशे हुए हो जो पाठक पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाएँ तथा स्वस्थ सोच को नये आयाम और आधार दे सकें।
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1.अखिल रायजादा
. पहला संगीत

रोज की तरह एक गर्म, बेवजह उमस भरा दिन। पसीने में नहाते, किसी तरह साँस लेते यात्रियों को समेटे लोकल ट्रेन पूरी रफ्तार से चली जा रही थी। यात्रियों की इस भीड़ में मैं भी अपना नया खरीदा गिटार टाँगे खड़ा था। इस हालत में स्वयं और नए गिटार को सँभालने में बड़ी परेशानी हो रही थी।
सौभाग्यवश दो स्टेशनों के बाद बैठने की जगह मिली। लोकल के शोर में एक सुर सुनाई पड़ा, ‘‘जो दे उसका भला ,जो न दे उसका भी भला.....’’ एक लँगड़ा भिखारी भीख माँगते निकला फिर दो बच्चे भीख माँगते निकले, फिर एक औरत खीरा बेचती आई। एक चायवाला और उसके पीछे गुटका, तम्बाखू, पाउच वाले चिल्लाते निकले। किनारे की सीट पर साथ बैठे परेशान सज्जन बड़े ध्यान से इन्हें देख रहे थे, बोल पड़े-‘‘इतनी भीड़ में भी इन फेरी वालों, भिखारियों को जगह मिल ही जाती है। अभी मेरे ऊपर गर्म चाय गिरते -गिरते बची है। आजकल तो छोटे-छोटे बच्चे भी भीख माँग रहे है।
तभी एक लड़की छोटे से लड़के को गोद में उठाए भीख माँगते गुजरी। उनके कटे-फटे कपड़े उनका परिचय करा रहे थे। दूसरे सहयात्री ने कहा-‘‘ये देखिए भावी भिखारी। पता नहीं इनके माँ-बाप पैदा क्यों करते हैं?’’
विगत छह माह से मैं भी इस रूट पर चल रहा हूँ परन्तु मैंने इन बच्चों को पहले भीख माँगते कभी नहीं देखा था। पहले सहयात्री ने कहा-‘‘अरे परसो जिस भिखारिन की ट्रेन से कटकर मौत हुई थी ये उसी के बच्चे है!’’
अब छोटे बच्चों के भीख माँगने के कारण ने अजीब- सी खामोशी की शक्ल ले ली। सभी फेरीवालों, भिखारियों की तरह उस लड़की ने भी बच्चे को गोद में उठाए कई चक्कर लगाए। मैंने ध्यान दिया उसकी नजरें मुझ पर रुकती थी। ट्रेन चली जा रही थी, लोकल का अंतिम पड़ाव और मेरा गंतव्य आने में अब कुछ ही समय बचा था।
बिखरे बाल और उदास चेहरा ओढ़े, फटी हुई किसी स्कूल की ड्रेस में बच्चे गोद में उठाए वो लड़की अब मेरे ठीक सामने थी। मैंने पाया कि इस बार वो ना केवल मेरी ओर देख रही थी बल्कि उसने अपना हाथ भी आगे बढ़ा रखा था। मुझे अपनी ओर देखते वो बोली -‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है।’’ अमूमन मेरी जेब में चाकलेट पड़ी रहती है । मैंने गोद में रखा गिटार किनारे रख कर जेब टटोली दो चाकलेट निकाल कर उसे दी। छोटा बच्चा किलकारी मारता उन पर झपटा, परन्तु बच्ची की उँगली फिर भी मेरी तरपफ थी। अब तक इस अजीब सी स्थिति ने सभी यात्रियों का ध्यानाकर्षण कर लिया था। कुछ उन्हें गालियाँ देकर वहाँ से जाने को कहने लगे।
इसके पहले कि मैं कुछ समझूँ उसने कहा-‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है---’’ मैं प्रश्नवाचक चिह्न- सा उसे ताक रहा था। वह लड़की फिर बोली-‘‘आज मेरे भाई का जन्मदिन है। हैप्पी बर्थ डे बजा दो ना....’’ लोकल अपनी रोज की रफ्तार में थी। मैंने केस से अपना नया गिटार बाहर निकाला और हैप्पी बर्थ डे टू यू बजाने लगा। छोटा बच्चा गोद से उतर कर नाचने लगा। सहयात्री आश्चर्य में थे। लड़की की आँखों में अद्भुत चमक थी। ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू यू’’ बजाते पहली बार मेरी आँखें नम थीं।
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2-रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
नवजन्मा ( यह लघुकथा इसी अंक में देश के अन्तर्गत पढ़ी जा सकती है)

 

 
 
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