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मेरी पसंद - महेन्द्रसिंह महलान

महेन्द्रसिंह महलान

कई लघुकथाएँ हैं जिन्होंने मुझे प्रभावित किया है। कुछेक नाम जो तत्काल ध्यान में आ रहे है, उनमें प्रमुख हैं–फर्क (विष्णु प्रभाकर), आदमी बिकता है(मधुकांत), भूख(अशोक भाटिया), धर्मयुद्ध(कमल चोपड़ा), ईद मुबारक(डॉ.किशोर काबरा), औरत ( भगीरथ), औरत की भूख (डॉ. रामनिवास ‘मानव’), कागज की नाव (पुष्पलता), पोखर (डॉ.अंजना अनिल), दो बत्ती वाला मकान (मालती बसंत), प्रश्नहीन (कमलेश भट्ट ‘कमल’), भारत (पारस दासोत), पूछताछ (कमलेश भारतीय), अहसास (डा.सतीश दुबे), आदमी–दर–आदमी (रामप्रसाद कुमावत), लाठी (बलराम अग्रवाल), ड्राइगं रूम (डॉ. सतीशराज पुष्करणा), इंसाफ (भगवान प्रियभाषी), संतू (श्यामसुन्दर अग्रवाल), अक्षय तूणीर (मुरलीधर वैष्णव), तार (डॉ. शकुन्तला ‘किरण’), तथा पेन्ट की सिलाई (डॉ. रामकुमार घोटड़)। ये लघुकथाएँ विषय–वस्तु की प्रभावी प्रस्तुति, शिल्पशैली व गठन की कुशलता, संवादों की सार्थकता तथा आकारगत आदर्श स्थिति इत्यादि कारणों सेमेरे जे़हन में बैठी हुई हैं।
यहाँ पर मैं दो लघुकथाओं पर थोड़े विस्तार से चर्चा करना चाहूँगा। प्रथम रचना का शीर्षक ‘पेन्ट की सिलाई’ है। रचनाकार का मंतव्य झोपड़–पट्टी बस्ती में रहने वाले अत्यंत निर्धन मजदूर वर्ग (रिक्शा–चालक) की दारुण दरिद्रता को प्रकट करना है। यह रचना दस वर्ष की कालावधि को समेटे हुए है। दस वर्ष की अवधि को तीन काल–खण्डों में विभक्त किया गया है। प्रथम स्थिति दस वर्ष पूव्र की है; जबकि एक रिक्शा चालक एक रेडीमेड पेन्ट को दर्जी के पास फिर से सिलवाकर अपने पहनने लायक बनवाता है। यह अवसर उसके विवाह का है।
दूसरी स्थिति इसके 3–4 वर्ष बाद की है। पेन्ट का रंग उड़ चुका है। रिक्शावाला स्वयं बीमार है। उसकी पत्नी उसी पेन्ट को पलटवाकर दुबारा सिलवाने दर्जी के पास लाती है। यह अवसर रिक्शावाले के घर पुत्र–जन्म के उत्सव का है।
तीसरी स्थिति इसके 6–7 वर्ष बाद यानी वर्तमान की है। रिक्शाचालक अकाल–मृत्यु को प्राप्त हो चुका है। उसकी पत्नी घरों में झाड़ू–पोछा लगाकर पेट पालती है। उसके पुत्र को स्कूल जाने हेतु ड्रेस की आवश्यकता है। लेकिन नई ड्रेस खरीदने के लिए पैसे नहीं है। अत: वह अपने दिवंगत पिता की पेन्ट की निकर बनवाने हेतु दर्जी के पास, तीसरी बार उस पेन्ट को लेकर जाता है। यह इस कथा का चरम–बिंदु है। यहाँ लेखक अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता है।
लघुकथा की प्रस्तुति, भाषा–शैली सहज एवं सरल है। इस रचना को पढ़ने पर एक अप्रत्यक्ष सन्देश यह भी जाता है कि हमारी सरकारों के गरीबी मिटाने के दावे खोखले है। दस वर्ष में सामान्यतया दो सरकारें 5–5 वर्ष के 2 टर्म पूरे कर लेती है। लेकिन यह लघुकथा बताती है कि गरीब और गरीब हुआ है। तो फिर इस दस वर्ष की अवधि में हमारी सरकारों ने क्या किया?
दूसरी रचना डॉ. शकुन्तला ‘किरण’ की है। डॉ. किरण मुख्यत: आधुनिक हिन्दी लघुकथा में प्रथम शोध–लेखिका के रूप में जानी जाती हैं। इनकी सुहागव्रत, अप्रत्याशित, चैकिंग आदि एक दर्जन से अधिक उम्दा किस्म की लघुकथाएँ भी मेरे पढ़ने में आई हैं। मेरे दृष्टिकोण से ‘तार’ इनकी सर्वोत्कृष्ट लघुकथा है। यह पिता के मित्र की बेटी (मुँह बोली बहिन)से आंतरिक प्रेम करने वाले एक सच्चे प्रेमी की करुण कथा है। युवक अपनी भावनाओं का इजहार भी करता है किन्तु लड़की भाई–बहिन के औपचारिक रिश्ते की परिधि से बाहर निकलने की नहीं सोच पाती है। वह अपने पिता की पसन्द के अन्य लड़के से अरेंज्ड मैरिज कर लेती है। तब उसे प्रेमी युवक की मौत का समाचार मिलता है और वह सन्न रह जाती है।
यह लघुकथा संवाद–शैली में शिल्प के बहुत ही बारीक ताने–बाने से बुनी गई है। संवाद छोटे–छोटे और हृदयस्पर्शी है। सच्चा प्यार खुदा को नियामत होता है जो हमारे जीवन में एक फरिश्ते की तरह आता है। परन्तु थोथी पारिवारिक–सामाजिक रूढ़ियों, मान्यताओं और संस्कारों में जकड़े होने के कारण हम उसे गवाँ बैठते हैं। ऐसा ही एक प्रच्छन्न दर्द इस लघुकथा की परत में कहीं दबा नजर आता है।
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1-तार
डॉ. शकुन्तला ‘किरण’

तार पढ़ते ही वह सन्न् रह गई। उसके मस्तिष्क में अनायास तीन वर्ष पुरानी एक धुँधली शाम उभर आई।
‘‘अरे नहीं! यदि हुई भी तो पिटाई थोड़ी ज्यादा कर दूँगी।’’
‘‘मैं, तुम्हें सिर्फ़ तनु ही कहना....’’
‘‘बेवकूफ! क्या कहा? दीदी शब्द क्या बहुत लम्बा–चौड़ा है? अंकल से कहकर काले पानी की कैद.....दिलवा...’’
‘‘बस, उस कैद में तुम्हें भी साथ करना चाहूँगा....’’
‘‘नालायक,मैं क्यों रहने लगी भला? अच्छा चल, बकवास बंद कर! पहले राखी बँधवा ले, शाम होने लगी है–अभी तुझे भागने की लगेगी...’’
‘‘राखी की इच्छा ही नहीं हो रही।’’
‘‘इसलिए कि साड़ी या शर्ट–पीस देना पड़ेगा?–महाकंजूस–मक्खीचूस!’’
‘‘अच्छा...एक शर्त पर, पहले एक बात बताओ, तुमने अपने लिए कोई सपना तो सजाया होगा, मैं उस सपने के राजकुमार से....’’
‘‘शटअप!...मैं ऐसे सपने नहीं देखती! डैडी जिसे भी पसन्द करेंगे, उसी से मेरा पहला और आखिरी व अंतिम प्यार!’’ उसकी लाज भरी आँखों में निश्छलता तैर आई थी। ‘‘क्या वह...मतलब....मेरे जैसा ही कोई लड़का नहीं हो सकता?’’
‘‘गधे! पता है? मैं तेरी बड़ी बहिन हूँ, ऐसी जमकर पिटाई करूँगी कि....’’
‘‘फादर के फ़्रेण्ड की लड़की, चाहे छोटी हो या बड़ी, सगी बहिन के रिश्ते में नहीं आती।’’
‘‘आज तुमने भंग तो नहीं पी रखी है नील, डैडी को आवाज दूँ?’’
‘‘तुम...शायद मुझे कभी नहीं समझ सकोगी दी! इस पिटाई से तो खैर मैं मरने वाला नहीं, पर हाँ, जिंदगी में कभी यों ही मरा–तो उसकी जिम्मेवार तुम, सिर्फ़ तुम रहोगी।’’
‘‘नहीं!....नहीं!’’ तनु पागल–सी चीख पड़ी। उसने पति के हाथ से छीनकर तार के टुकड़े–टुकड़े कर दिए, जिसमें नील के मित्र ने लिखा था–कम सून, नील एक्सपायर्ड!
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2-पेन्ट की सिलाई
डॉ. रामकुमार घोटड़

तीसरी बार यह पेन्ट मेरे सामने आई है।
लगभग दस वर्ष पूर्व मैं इस दुकान में पहली बार सिलाई करने बैठा था। तब सामने वाली झोपड़–पट्टी बस्ती का एक रिक्शा–चालक एक रेडीमेड पेन्ट लेकर आया था और मुझसे आग्रह किया था कि मैं इस पेन्ट को फिर से सिलकर उसके पहनने लायक बना दूँ। अगले दिन उसकी शादी है।
दूसरी बार एक औरत इस पेन्ट को छह–सात साल पहले लेकर आई थी। इस पेन्ट का रंग उड़ गया है। इसे पलटकर फिर से सिल दो। वे कई दिनों से बीमार हैं। पिछले महीने हमारे लड़का हुआ है। कल ही पीहर से छुछक लेकर आने वाले है।
और आज फिर! उसी पेन्ट को यह लड़का लेकर आया है। वह कह रहा है कि पिताजी नहीं रहे। माँ झाड़ू–पोंछा से इतना नहीं कमा पाती कि मैं नई ड्रेस सिलवा सकूँ...कल स्कूल जाना है, इस पेन्ट को काटकर एक निकर बना दो।
और मैं फिर उसी पेन्ट को सिलने बैठ गया हूँ।
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