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मेरी पसंद - पुष्पा जमुआर

पुष्पा जमुआर


आधुनिक लघुकथाकारों के दौर में मुझे रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की 1956 में प्रकाशित पुस्तक ‘उजली आग’ पढ़ने को मिली। इसमें उनकी 46 लघुकथात्मक रचनाएँ प्रकाशित हैं। किन्तु उनकी परोपकार’ रचना मुझे सर्वाधिक पसंद आई जो वर्तमान लघुकथा के मानदंड पर पूरी उतरती है। दूसरी लघुकथा है डॉ सतीशराज पुष्करणा की ‘जीवन–संघर्ष’।
दिनकर की ‘परोपकार’ के कथानक की बात करें तो इसमें लेखक मानवेतर पात्रों मकड़ी एवं मधुमक्खी के माध्यम से ‘परोपकार’ को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें मकड़ी मधुमक्खी से कहती है कि तुम शहद बनाती हो तो इसमें तुम्हारा क्या करिश्मा है! फूलों–पत्तों से भीख माँग–माँगकर एकाध बूँद किसी तरह एकत्र करती हो। मैं अपने मन से जाली निकालती हूँ और जाल तैयार करती हूँ। मुझे किसी से न कुछ कहना, न कुछ माँगना। इसपर मधुमक्खी का शालीन उत्तर लघुकथा को शीर्ष तक पहुँचा देता है–‘‘मगर, कभी यह भी सोचा है कि तुम्हारी जाली फिजूल की चीज है, जबकि मेरा बनाया हुआ मधु मीठा और पथ्य होता है।’’
इसके शीर्षक से लेकर इसके समापन बिन्दु तक प्रतीकात्मकता अपना प्रभाव दिखाती है। लघु आकार की प्रत्येक विधा में प्रतीकात्मकता बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका का निर्वाह करती है।
डॉ सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘जीवन–संघर्ष’ भी अपने श्रेष्ठ शिल्प के कारण हृदय में न केवल उतरती है, अपितु एक अजीब–सी हलचल भी मचा देती है।
इसके कथानक में इतनी–सी बात है कि एक व्यक्ति जो सच्चाई, मेहनत और ईमानदारी से धनार्जन करता है, किन्तु वह इतना नहीं कर पाता कि अपने परिवार हेतु एक मकान खरीद सके। यदि इस कथानक को सहज शिल्प में प्रस्तुत किया जाता तो यह एक साधारण लघुकथा बनकर रह जाती किन्तु डॉ पुष्करणा जैसा प्रयोगधर्मी लघुकथाकार के कथा नायक को स्नान–गृह में नहाते हुए अपने बहिन–भाइयों का वार्त्तालाप सुनायी पड़ता है, जिसका सार यह है कि पैसा कमाने हेतु अगर नम्बर दो का रास्ता भी अपनाना पड़े, तो अपना लेना चाहिए।
नायक का संघर्ष नहाते समय देह पर साबुन लगाने और मग से पानी डालने तथा डालते हुए हाथों के हावभाव कोे बहुत ही सुन्दर प्रतीकत्मक ढंग से दिखाया गया है। वस्तुत: यह एक प्रतीकात्मकता लिये हुए एक श्रेष्ठ एवं कलात्मक लघुकथा है जो सहज ही प्रेषणीय भी है। मेरी दृष्टि में यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।
यह लघुकथा जब अपने शीर्ष का स्पर्श करती है तो संवेदनाओं को छूते हुए भावुक कर देती तथा सोचने हेतु बाध्य करती है। शीर्ष को स्पर्श करता पत्नी का संवाद लघुकथा को अतिरिक्त सार्थकता प्रदान करता है। वह संवाद देखें, हर आदमी की अपनी–अपनी परिस्थितियाँ होती है , अपनी–अपनी समस्याएँ होती हैं जो व्यक्ति जिम्मेदारियों से पलायन करके जूझने में विश्वास रखते हैं।उन्हें मंजिल देर से ही सही, मगर मिलती जरूर है। मुझे अपने पति पर न केवल विश्वास है, बल्कि गर्व भी है।’’
इस लघुकथा की अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त एक विशेषता यह भी है कि इस लघुकथा में जो कहा गया है वह तो प्रत्यक्ष है ही, किन्तु जो शब्दों में प्रत्यक्ष नहीं है, वह भी उतनी से त्वरा से प्रत्यक्ष होकर संप्रेषित हो जाता है।
‘जीवन–संघर्ष’ इसका शीर्षक इस लघुकथा के उद्देश्य तक सहज ही पहुँचा देता है
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आधुनिक लघुकथाकारों के दौर में मुझे रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की 1956 में प्रकाशित पुस्तक ‘उजली आग’ पढ़ने को मिली। इसमें उनकी 46 लघुकथात्मक रचनाएँ प्रकाशित हैं। किन्तु उनकी परोपकार’ रचना मुझे सर्वाधिक पसंद आई जो वर्तमान लघुकथा के मानदंड पर पूरी उतरती है। दूसरी लघुकथा है डॉ सतीशराज पुष्करणा की ‘जीवन–संघर्ष’।
दिनकर की ‘परोपकार’ के कथानक की बात करें तो इसमें लेखक मानवेतर पात्रों मकड़ी एवं मधुमक्खी के माध्यम से ‘परोपकार’ को बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। इसमें मकड़ी मधुमक्खी से कहती है कि तुम शहद बनाती हो तो इसमें तुम्हारा क्या करिश्मा है! फूलों–पत्तों से भीख माँग–माँगकर एकाध बूँद किसी तरह एकत्र करती हो। मैं अपने मन से जाली निकालती हूँ और जाल तैयार करती हूँ। मुझे किसी से न कुछ कहना, न कुछ माँगना। इसपर मधुमक्खी का शालीन उत्तर लघुकथा को शीर्ष तक पहुँचा देता है–‘‘मगर, कभी यह भी सोचा है कि तुम्हारी जाली फिजूल की चीज है, जबकि मेरा बनाया हुआ मधु मीठा और पथ्य होता है।’’
इसके शीर्षक से लेकर इसके समापन बिन्दु तक प्रतीकात्मकता अपना प्रभाव दिखाती है। लघु आकार की प्रत्येक विधा में प्रतीकात्मकता बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं निर्णायक भूमिका का निर्वाह करती है।
डॉ सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘जीवन–संघर्ष’ भी अपने श्रेष्ठ शिल्प के कारण हृदय में न केवल उतरती है, अपितु एक अजीब–सी हलचल भी मचा देती है।
इसके कथानक में इतनी–सी बात है कि एक व्यक्ति जो सच्चाई, मेहनत और ईमानदारी से धनार्जन करता है, किन्तु वह इतना नहीं कर पाता कि अपने परिवार हेतु एक मकान खरीद सके। यदि इस कथानक को सहज शिल्प में प्रस्तुत किया जाता तो यह एक साधारण लघुकथा बनकर रह जाती किन्तु डॉ पुष्करणा जैसा प्रयोगधर्मी लघुकथाकार के कथा नायक को स्नान–गृह में नहाते हुए अपने बहिन–भाइयों का वार्त्तालाप सुनायी पड़ता है, जिसका सार यह है कि पैसा कमाने हेतु अगर नम्बर दो का रास्ता भी अपनाना पड़े, तो अपना लेना चाहिए।
नायक का संघर्ष नहाते समय देह पर साबुन लगाने और मग से पानी डालने तथा डालते हुए हाथों के हावभाव कोे बहुत ही सुन्दर प्रतीकत्मक ढंग से दिखाया गया है। वस्तुत: यह एक प्रतीकात्मकता लिये हुए एक श्रेष्ठ एवं कलात्मक लघुकथा है जो सहज ही प्रेषणीय भी है। मेरी दृष्टि में यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।
यह लघुकथा जब अपने शीर्ष का स्पर्श करती है तो संवेदनाओं को छूते हुए भावुक कर देती तथा सोचने हेतु बाध्य करती है। शीर्ष को स्पर्श करता पत्नी का संवाद लघुकथा को अतिरिक्त सार्थकता प्रदान करता है। वह संवाद देखें, हर आदमी की अपनी–अपनी परिस्थितियाँ होती है , अपनी–अपनी समस्याएँ होती हैं जो व्यक्ति जिम्मेदारियों से पलायन करके जूझने में विश्वास रखते हैं।उन्हें मंजिल देर से ही सही, मगर मिलती जरूर है। मुझे अपने पति पर न केवल विश्वास है, बल्कि गर्व भी है।’’
इस लघुकथा की अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त एक विशेषता यह भी है कि इस लघुकथा में जो कहा गया है वह तो प्रत्यक्ष है ही, किन्तु जो शब्दों में प्रत्यक्ष नहीं है, वह भी उतनी से त्वरा से प्रत्यक्ष होकर संप्रेषित हो जाता है।
‘जीवन–संघर्ष’ इसका शीर्षक इस लघुकथा के उद्देश्य तक सहज ही पहुँचा देता है
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1. परोपकार-रामधारी सिंह दिनकर
मकड़ी ने मधुमक्खी से कहा, हाँ, बहन ! शहद बनाना तो ठीक है, लेकिन, इसमें तुम्हारी क्या बड़ाई है ? बौरे हुए आम पर चढ़ो, तालाब में खिले हुए कमलों पर बैठो, काँटों से घिरी कलियों से भीख माँगो या फिर घास की पत्ती–पत्ती की खुशामद करती फिरो, तब कहीं एक बूँद तुम्हारे हाथ आती है । मगर, मुझे देखो । न कहीं जाना है न आना, जब चाहती हूँ जाली पर जाली बुन डालती हूँ । और मजा यह कि मुझे किसी से भी कुछ माँगना नहीं पड़ता । जो भी रचना करती हूँ अपने दिमाग से करती हूँ, अपने भीतर संचित संपत्ति के बल पर करती हूँ । देखा है मुझे किसी ने किसी जुलाहे या मिलवाले से सूत माँगते ?
मधुमक्खी बोली, सो तो ठीक है बहन ! मगर, कभी यह भी सोचा है कि तुम्हारी जाली फिजूल की चीज है, जब कि मेरा बनाया हुआ मधु मीठा और पथ्य होता है ।
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2. जीवन–संघर्ष- डॉ सतीशराज पुष्करणा
आज फिर सुबह वह हताश लौटा। हृदय से व्यथा और मस्तिष्क में तनाव लिये वह घर में किसी से भी बात करने के मूड में नहीं था। घर में दोनों बहनें भी आयी हुई थीं। बहनोई भी थे।उसने कपड़े उतारते हुए स्नान की तैयारी आरंभ कर दी।
पत्नी ने पूछा, ‘‘बात बनी ?’’
‘‘नहीं, अभी तक तो कोई सूरत नहीं निकली।’’ धीमे स्वर में कहकर वह बाथरूम में घुस गया और भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। किंतु उसके कान बहन–बहनोइयों में हो रहे वार्तालाप की ओर लगे थे।
‘‘भैया जैसा सोचते हैं.... उस हिसाब से कहीं मकान मिला है!’’ यह बड़ी बहन थी।
‘‘भैया थोड़ी हिम्मत और दिखाएँ तो चार लाख में तीन कमरे वाला ठीक–ठाक फ़्लैट तो मैं दिला सकता हूँ।’’ यह छोटा बहनोई था।
यह संवाद कान में पड़ते ही उसका मन हुआ कि वह इसी समय बाथरूम से बाहर निकले और बहनोई का मुँह नोच ले, ‘‘सुअर कहीं का ! यदि इतना पल्ले होता, तो मैं नहीं खरीद सकता था। मैं क्या मूर्ख हूँ ? वह नहीं, हराम का पैसा बोल रहा है.... बड़ा बाबू है न.... टनाटन बरसता है सीट पर ही..... वह तो बोलेगा ही।’’ वह क्रोध एवं ईर्ष्या से भर उठा और एक झटके से पानी भरा मग सिर पर उलट लिया। एक क्षण रुका और फिर तीन–चार मग अपने शरीर पर उलट लिए और बदन पर साबुन रगड़ने लगा। लगा जैसे गरीबी का मैल छुड़ाने हेतु संघर्ष कर रहा है। उसके कान पुन: बाहर चल रही वार्त्ता की ओर सतर्क हो गए।
आज पैसे का ही बोलबाला है। सरकार भी पैसे की भाषा बोलती है। केवल लेखन से क्या होगा.....जुगाड़ किए बिना कुछ नहीं होगा। यह बड़ा बहनोई था।
साबुन रगड़ते उसके हाथ रुक गए..... घुटकर रह गया.... जिन बातों के विरोध में उसकी कलम चलती है....वही काम वह स्वयं करे.... यह नहीं हो सकता। लेक्चर देने से काम नहीं होगा.... जीवन के यथार्थ को समझना होगा। आदमी के कुछ अपने भी तो आदर्श होते हैं..... उससे मकान खरीदा जाए.... या न खरीदा जाए। मगर वह ऐसा कुछ नहीं करेगा कि अपनी नजरों से ही गिर जाए ।
मग से पानी फिर बदन पर डालने लगा। साबुन बदन से उतरने लगा। उसने राहत महसूस की।
‘‘ऐसी बात नहीं है.... रास्ता निकल आएगा। हर आदमी की अपनी–अपनी परिस्थितियाँ होती हैं..... अपनी–अपनी समस्याएँ होती हैं जो व्यक्ति जिम्मेदारियों से पलायन न करके जूझने में विश्वास रखते हैं..... उन्हें मंजिल देर से ही सही, मगर मिलती जरूर है। मुझे अपने पति पर न केवल विश्वास है.... बल्कि गर्व भी है।’’ यह उसकी पत्नी थी।
पत्नी का संवाद सुनकर उसका चेहरा खिल उठा। उसका मन हुआ कि पत्नी को बाहों में भर ले। अब तक वह तौलिए से अपना बदन पोंछकर कपड़े बदलने लगा था। वह किसी ताजे फूल की तरह फ़्रेश हो गया था।
1. परोपकार-रामधारी सिंह दिनकर
मकड़ी ने मधुमक्खी से कहा, हाँ, बहन ! शहद बनाना तो ठीक है, लेकिन, इसमें तुम्हारी क्या बड़ाई है ? बौरे हुए आम पर चढ़ो, तालाब में खिले हुए कमलों पर बैठो, काँटों से घिरी कलियों से भीख माँगो या फिर घास की पत्ती–पत्ती की खुशामद करती फिरो, तब कहीं एक बूँद तुम्हारे हाथ आती है । मगर, मुझे देखो । न कहीं जाना है न आना, जब चाहती हूँ जाली पर जाली बुन डालती हूँ । और मजा यह कि मुझे किसी से भी कुछ माँगना नहीं पड़ता । जो भी रचना करती हूँ अपने दिमाग से करती हूँ, अपने भीतर संचित संपत्ति के बल पर करती हूँ । देखा है मुझे किसी ने किसी जुलाहे या मिलवाले से सूत माँगते ?
मधुमक्खी बोली, सो तो ठीक है बहन ! मगर, कभी यह भी सोचा है कि तुम्हारी जाली फिजूल की चीज है, जब कि मेरा बनाया हुआ मधु मीठा और पथ्य होता है ।
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2. जीवन–संघर्ष- डॉ सतीशराज पुष्करणा
आज फिर सुबह वह हताश लौटा। हृदय से व्यथा और मस्तिष्क में तनाव लिये वह घर में किसी से भी बात करने के मूड में नहीं था। घर में दोनों बहनें भी आयी हुई थीं। बहनोई भी थे।उसने कपड़े उतारते हुए स्नान की तैयारी आरंभ कर दी।
पत्नी ने पूछा, ‘‘बात बनी ?’’
‘‘नहीं, अभी तक तो कोई सूरत नहीं निकली।’’ धीमे स्वर में कहकर वह बाथरूम में घुस गया और भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। किंतु उसके कान बहन–बहनोइयों में हो रहे वार्तालाप की ओर लगे थे।
‘‘भैया जैसा सोचते हैं.... उस हिसाब से कहीं मकान मिला है!’’ यह बड़ी बहन थी।
‘‘भैया थोड़ी हिम्मत और दिखाएँ तो चार लाख में तीन कमरे वाला ठीक–ठाक फ़्लैट तो मैं दिला सकता हूँ।’’ यह छोटा बहनोई था।
यह संवाद कान में पड़ते ही उसका मन हुआ कि वह इसी समय बाथरूम से बाहर निकले और बहनोई का मुँह नोच ले, ‘‘सुअर कहीं का ! यदि इतना पल्ले होता, तो मैं नहीं खरीद सकता था। मैं क्या मूर्ख हूँ ? वह नहीं, हराम का पैसा बोल रहा है.... बड़ा बाबू है न.... टनाटन बरसता है सीट पर ही..... वह तो बोलेगा ही।’’ वह क्रोध एवं ईर्ष्या से भर उठा और एक झटके से पानी भरा मग सिर पर उलट लिया। एक क्षण रुका और फिर तीन–चार मग अपने शरीर पर उलट लिए और बदन पर साबुन रगड़ने लगा। लगा जैसे गरीबी का मैल छुड़ाने हेतु संघर्ष कर रहा है। उसके कान पुन: बाहर चल रही वार्त्ता की ओर सतर्क हो गए।
आज पैसे का ही बोलबाला है। सरकार भी पैसे की भाषा बोलती है। केवल लेखन से क्या होगा.....जुगाड़ किए बिना कुछ नहीं होगा। यह बड़ा बहनोई था।
साबुन रगड़ते उसके हाथ रुक गए..... घुटकर रह गया.... जिन बातों के विरोध में उसकी कलम चलती है....वही काम वह स्वयं करे.... यह नहीं हो सकता। लेक्चर देने से काम नहीं होगा.... जीवन के यथार्थ को समझना होगा। आदमी के कुछ अपने भी तो आदर्श होते हैं..... उससे मकान खरीदा जाए.... या न खरीदा जाए। मगर वह ऐसा कुछ नहीं करेगा कि अपनी नजरों से ही गिर जाए ।
मग से पानी फिर बदन पर डालने लगा। साबुन बदन से उतरने लगा। उसने राहत महसूस की।
‘‘ऐसी बात नहीं है.... रास्ता निकल आएगा। हर आदमी की अपनी–अपनी परिस्थितियाँ होती हैं..... अपनी–अपनी समस्याएँ होती हैं जो व्यक्ति जिम्मेदारियों से पलायन न करके जूझने में विश्वास रखते हैं..... उन्हें मंजिल देर से ही सही, मगर मिलती जरूर है। मुझे अपने पति पर न केवल विश्वास है.... बल्कि गर्व भी है।’’ यह उसकी पत्नी थी।
पत्नी का संवाद सुनकर उसका चेहरा खिल उठा। उसका मन हुआ कि पत्नी को बाहों में भर ले। अब तक वह तौलिए से अपना बदन पोंछकर कपड़े बदलने लगा था। वह किसी ताजे फूल की तरह फ़्रेश हो गया था।


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