एन उन्नी की लघुकथा ‘कबूतरों से भी खतरा है’ राष्ट्रीय चेतना से ओतप्रोत होने के कारण बेहद अच्छी लगी। इस लघुकथा के अच्छी लगने के पीछे मैं और भी कई कारण मानता हूँ। इस लघुकथा का विचारपक्ष जितना मजबूत है, वहीं कला पक्ष भी इसके अनुरूप है। लघुकथा प्रेरित करती है कि हमें स्वाभिमान को बरकरार रखना चाहिए और स्वाभिमान केवल आजादी से मिलता हैं। पराधीन सपनेहु सुख नाही उक्ति भी यहाँ चरितार्थ होती है। और इसी स्वाभिमान या आजादी के लिए हमें अपने प्राणों की बाजी भी लगानी पड़े तो खुशी खुशी से लगा देनी चाहिए।
इस लघुकथा में दर्शन प्रभावित करने वाला है - पिताजी ने बोझिल स्वर में कहा,‘ बेटे जब प्रजा आजादी की तीव्र इच्छा से जाग उठती है तो बड़े से बड़ा तानाशाह भी घुटने टेकने को मजबूर हो जाता है...फिर तुम्हारे पिता तो....
सामाजिक बदलाव की बयार देखिए - बड़ा कबूतर बच्चों को सावधान कर रहा था,‘ बेटे तुम उस आदमी के सामने उड़ने का प्रयास नहीं करना । वह तुम्हारे पंख काट देगा... तुम्हें मालूम है बाहर की दुनिया कितनी सुन्दर और असीम है....अनंत विशाल, रंग -बिरंगे आकाश में मैं खो गया था। आजादी और स्वछंद रूप से घूमने का जो आनंद है उसे सुन्दर शब्दों में ढालकर लेखक ने मनुष्य को भी इसी तरह आजाद रहने के लिए प्रेरित किया है।साथ ही सावधान भी किया है कि कोई भी व्यक्ति भले ही पिता तुल्य प्यार करे ;परन्तु गुलामी हमारे स्वाभिमान को छलनी -छलनी कर देती है। अतः हमें आजादी के महत्त्व को समझना चाहिए। । कथ्य में आजादी क्या है और आजादी का सुख क्या होता है, इसी कथ्य को लेकर इसका ताना -बाना बुना गया। इसमें दो पात्रों के माध्यम से लघुकथा अपने उद्देश्य की ओर बढ़ती है। उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है कि हमें अपने पंखों का महत्त्व समझना चाहिए। पूरे आसमान (दुनिया) के हर सुख पर तुम्हारा भी हक है; इसलिए उसे हर हालत में पाना सीखो।गुलामी से लड़ना सीखों।
शिल्प -सौन्दर्य भी लाजवाब है। प्रतीकात्मक शब्द, कथ्य के अनुरूप भाषा शैली सुन्दर बिम्ब लघुकथा के सौन्दर्य को चार चाँद लगा देते हैं।
दूसरी लघुकथा अरूण कुमार द्वारा रचित लघुकथा‘सीख’ बेहद प्रसन्द आई। इस कई कारण मानता हैं। इस लघुकथा में बुजुर्गों की मनोवैज्ञानिक सोच का जो चित्रण हुआ वह बहुत प्रभावी है। यह लघुकथा पाठक के सामने एक प्रश्न पैदा करती हैं कि आज समाज कितना बदल गया है! उन्हीं माता- पिता से बच्चे मुख मोड़ लेते हैं जिन्हें वे अँगुली पकड़ कर चलना सिखाते हैं। यह लघुकथा समाज के यथार्थ रूप का चित्रण करती है। लघुकथा जहाँ जिज्ञासा बढ़ाती है,वहीं बुजुर्गों को सचेत भी करती है कि हमें कुछ धन अपने पास भी बचा कर रखना चाहिए, ताकि उनका स्वाभिमान बरकरार रहे। लेखक यह जानता है कि जब व्यक्ति को क्रोध आता है तो वह रिश्ते नाते सब भूल जाता है । ऐसा ही रूप इस लघुकथा में देखने को मिलता है।
‘‘.....मैं पछता रहा हूँ रामचन्द्र, अगर मैंने अपने पास लाख -दो लाख रूपये होते तो ये साले लालच में ही सही,पर मेरी सेवा तो करते...।’’
कथ्य के अनुरूप भाषा शैली और इसकी मार्मिकता लघुकथा को श्रेष्ठ बनाती है।
...तेरे तो दो ही हैं, पर मेरे तो पाँच-पाँच बेटे हैं रामचन्द्र। आज दो रोटी के लिए तरसकर रह जाता हूँ....।’’
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1- कबूतरों से भी खतरा है- एन. उन्नी
मेरे पिताजीने कबूतर पाले थे। कबूतर पालना उनके लिए टाइम पास करने का साधन नहीं था। वे सचमुच कबूतरों से प्यार करते थे। उनको नहलाना-धुलाना, समय-समय पर दाना चुगाना , उनसे बातें करना आदि कार्यां के लिए पिताली समर्पित थे। पिताजी के चारों तरफ कबूतर नृत्य करते थे। धीरे-धीरे ऊपर उड़कर पिता जी को हवा देते थे।
एक दिन ऊपर उड़ा कबूतर घर के ऊपर चक्कर लगाकर कहीं उड़ गया। पिताजी ने कबूतर की बोली बोलकर घर के चारों तरफ चक्कर काटे, लेकिन कबूतर देखने को नहीं मिला। पिताजी पागल-से हो गए। खाना नहीं खाया और रात भर सोए भी नहीं। दूसरे दिन फिर सुबह बेचैनी से मोहल्ले के चक्कर काटने लगे। थके-भूखे कबूतर वापस घर लौटे। पिताजी ने उस कबूतर के पंख काट दिए। उसके लिए वे जीवन साथी भी ले आए थे,लेकिन उस दिन के बाद फिर कभी पिताजी और कबूतरों का संबंध उतना मधुर नहीं रहा।
कबूतर बच्चे देने लगे। बच्चे बड़े होने लगे । बच्चे धीरे-धीरे उड़ने लगे। एक दिन पिताजी के सामने बच्चे उड़ने लगे तो बड़े ने उन्हें क्रोध से देखा, मगर वह कुछ बोला नहीं,क्योंकि कबूतर को मालूम था कि उसकी भाषा पिताजी समझने लगे हैं। पिताजी भी कबूतर के व्यवहार से सावधान हो गए। शाम को कबूतरों को पिंजरे में बंद करके पिताजी बेचैन हो रहे थे। वे पिंजरे के बाहर एक कुशल जासूस की तरह निश्चल खड़े अंदर की बातचीत ध्यान से सुन रहे थे। पिताजी के चेहरे के हाव-भाव से मुझे लगा कि कोई गंभीर बात हो रही है।
बड़ा कबूतर बच्चों को सावधान कर रहा था, ‘‘बेटे, तुम उस आदमी के सामने कभी भी उड़ने का प्रयास नहीं करना। वह तुम्हारे पंख काट देगा। तुम्हें मालूम है, बाहर की दुनिया कितनी सुन्दर और असीम है। एक बार मैंने भी देखा था। अनंत विशाल, रंग-बिरंगे आकाश में मैं खो गया था। लौटकर आने की इच्छा मुझे कतई नहीं थी, लेकिन भूख और प्यास के कारण लौटना पड़ा । बाहर से दाना-पानी जुटाने की जानकारी मुझे उस समय नहीं थी, लेकिन बाद में मालूम हुआ कि बाहर की आजाद दुनिया में हमजातों के झुण्ड हैं। उनके साथ मिलकर में भी भूख और प्यास से जूझ सकता था।
पिता की व्यथा को देखकर बच्चे ने पूछा,‘‘ अब तो आपके पंख बड़े हो गए हैं,फिर भी आप उड़ते क्यों नहीं?’
‘अब मेरा क्या? तुम्हारे बड़े होने का इंतजार कर रहा था मैं... अब हम साथ उड़ेंगे। अपनी जैसी कमजोरियों से तुम्हें बचाना भी तो है......।’
मुझे लगा कि पिताजी भयभीत हो उठे हैं। रात को दो-तीन बार पिताजी बिस्तर छोड़कर बाहर चले गए थे। दूसरे दिन सुबह होते ही पिताजी ने पिंजरा खोला और सभी कबूतरों को आकाश में उड़ा दिया। इस पर मैंने पिताजी से पूछा ,‘‘ आपने यह क्या किया पिताजी? आपने कबूतरों को उड़ा दिया?’
पिताजी ने बोझिल स्वर में कहा,‘‘ बेटे, जब प्रजा आजादी की त्रीव इच्छा से जाग उठती है तो बड़े से बड़ा तानाशाह भी घुटने टेकने को मजबूर हो जाता है। फिर तुम्हारे पिता तो...’
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2-सीख - अरुण कुमार
इसी साल के आखिरी रोज मैं रिटायर हो जाऊँगा, मुझे भविष्यनिधि वगैरह का सब मिलाकर कुल जमा सात लाख रुपया मिलेगा। अब मैं ठहरा अकेली जान (पत्नी पिछले वर्ष ही लम्बी बीमारी के बाद चल बसी थी) अब मुझे क्या करना है इतने रुपयों का! भगवान की दया से मैं अपनी जिम्मेदारियों से फारिग ही हूँ दोनों बेटे व इकलौती बेटी समय रहते ही ब्याह दिए थे। सब कुछ बेटी-बेटों में बराबर -बराबर बाँट दूँगा। बड़के को अपनी दुकान का विस्तार करना है, छुटका गाड़ी लेने को कह रहा है, बेटी-दामाद को भी अपना अधबना मकान पूरा करना है। सब खुश हो जाएँगे, मेरा क्या है। मेरा गुजारा तो जो मुझे चार हजार के करीब की पेंशन मिलेगी उसी में ही हो जाएगा।दो रोटी ही तो खानी है मैंने, कोई न कोई बेटा दे ही देगा....
मैं ये सब हिसाब-किताब बिठा ही रहा था कि गोकुल चाचा ने(मेरे पड़ोसी) मेरा हाथ पकड़ लिया। कहने लगे,‘‘ ऐसी भूल कभी मत करना रामचन्द्र, कभी मत करना। जो अपना बुढ़ापा सम्मान से व आराम से काटना है तो सारा रुपया औलाद में बाँटकर खुद को कंगाल कभी मत करना....तेरे तो दो ही हैं, मेरे तो पाँच -पाँच बेटे हैं रामचंद्र। आज दो रोटी के लिए तरसकर रह जाता हूँ.... परमात्मा गवाह है रामचंद्र जो मैंने एक फूटी कौड़ी भी अपने पास रखी हो, सारा पैसा सालों में बराबर -बराबर बाँट दिया था, इसके बावजूद मेरी छोटी-सी पेंशन के लिए मुझे जलील करते हैं , धमकाते हैं और आपस में भी सिर- फुटौव्वल करते हैं सो अलग।... मैं बहुत पछता रहा हूँ रामचंद्र, आज मैं बहुत पछता रहा हूँ। अगर मैंने अपने पास लाख-दो लाख रखे होते तो ये साले लालच में ही सही ,पर मेरी सेवा तो करते....।
उनका शरीर गुस्से से काँप रहा था और मेरा शरीर अपने भविष्य को देखकर काँप रहा था।