गतिविधियाँ
 
 
   
     
 
  सम्पर्क  
सुकेश साहनी
sahnisukesh@gmail.com
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
rdkamboj@gmail.com
 
 
 
मेरी पसंद - राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’

राजेन्द्रमोहन त्रिवेदी ‘बन्धु’

हिन्दी–लघुकथा समय के साथ–साथ विकास के नए–नए पड़ाव तय करते हुए साहित्यिक गरिमा के साथ आगे बढ़ती जा रही है । निश्चित रूप से इन विकास की राहों पर अनेक कथाकार आते गए, अपनी समर्थ एवं समृद्ध लघुकथाओं से इसके विकास में उल्लेखनीय योगदान देते रहे ।
समय के साथ इसकी विषयवस्तु सुर–ताल मिलाते हुए इसे एक ऐसी लय देती रही है कि व्यक्ति स्वयं को अपने समय से जुड़ा हुआ महसूस करता है और रंजनात्मकता का स्वाभाविक आनंद प्राप्त करता है ।
मैं एक लम्बे अरसे से इस विधा का गंभीर पाठक रहा हूँ और उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, डॉ सतीश दुबे, रमेश बत्तरा, कमल चोपड़ा, सुकेश साहनी, पृथ्वीराज अरोड़ा, डॉ सतीशराज पुष्करणा, चित्रा मुद्गल, बलराम अग्रवाल, शकुन्तला ‘किरण’, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ इत्यादि कथाकारों की लघुकथाएँ अक्सर पसंद करता रहा हूँ । पंजाबी की लघुकथाओं को भी जब-जब अवसर मिला, पढ़कर मुझे अच्छा अनुभव हुआ है । पंजाबी लघुकथाओं को पढ़ने पर ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि मैं हिन्दी से इतर किसी भाषा की लघुकथाएँ पढ़ रहा हूँ सिवा इसके कि कहीं–कहीं अनुवाद के बावजूद पंजाबी शब्दों के प्रयोग के । शायद इसका कारण यह भी हो सकता है कि अनेक हिन्दी के लघुकथाकार पंजाब की धरती से हिन्दी–साहित्य में आ और कुछ तो ऐसे भी हैं जो हिन्दी एवं पंजाबी दोनों भाषाओं में समान अधिकार से सृजन करते आ रहे हैं । उदाहरण स्वरूप डॉ श्याम सुन्दर दीप्ति, श्याम सुन्दर अग्रवाल, डॉ सुरेन्द्र मंथन, दर्शन मितवा, धर्मपाल साहिल, सैली बलजीत, सिमर सदोष, कमलेश भारतीय, जसबीर चावला, रमेश बत्तरा आदि की रचनाओं को देखा जा सकता है । अनेक कथाकार ऐसे हैं जिन्हें अनुवाद के माध्यम से पढ़ता रहा हूँ । ऐेसे कथाकारों में हरभजन खेमकरनी, विक्रम जीत नूर, सत्यपाल खुल्लर, जसबीर ढंड, जंगबहादुर घुम्मण इत्यादि हैं । इन सभी की कई–कई लघुकथाओं ने मेरा ध्यान आकर्षित किया है ।
दोनों भाषाओं के कथाकारों को गंभीरता से पढ़ने पर मैंने जो बुनियादी अंतर महसूस किया है वह यह है कि हिन्दी के अधिकतर लेखक जीवन के कटु यथार्थ को अभिव्यक्त करने में सिद्धहस्त सिद्ध हुए जबकि पंजाबी कथाकारों ने रोज़मर्रा के जीवन में घट रही आम–फहम घटनाओं को संवेदना के स्तर पर जीते हुए संवेदना के स्तर पर स्पर्श करती हुए स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति प्रदान की ।
हिन्दी–लघुकथाओं में प्राय: लघुकथाओं का अंत एक चौंकाते हुए वाक्य से होता रहा है । वहीं पंजाबी लघुकथाओं का अंत हृदय को स्पर्श करते हुए संवेदनापरक वाक्य से होता आया है जो सीधे हृदय में उतर जाता है और सोच–विचार करने हेतु विवश करता है । जब–जब अच्छी लघुकथाओं की चर्चा होती है मैं इन दो लघुकथाओं की चर्चा तो सबसे पहले प्रत्येक दशा में करता ही हूँ । इनमें पहली लघुकथा डॉ सतीशराज पुष्करणा की ‘अन्तश्चेतना’ है और दूसरी पंजाबी के लेखक विवेक की ‘साँझ’ है ।
‘अन्तश्चेतना’ बाल–मनोविज्ञान पर केन्द्रित एक ऐसी लघुकथा है जो संवेदना के स्तर पर हृदय को मथकर रख देती है । एक बच्चा स्कूल आते समय पतंग–डोर खरीदने हेतु अपनी माँ का सोने का झुमका चुरा लाता है । प्रथम पीरियड नैतिक–शिक्षा का होता है और शिक्षक पढ़ाता है, ‘हमें माता–पिता के प्रति अभारी होना चाहिए, जो हमें पालते हैं, पढ़ाते–लिखाते हैं तथा समाज में रहन–सहन का ढंग सिखाते हैं । माता तो पिता से भी महान् है, जो नौ माह तक बच्चे को गर्भ में रखती है, जन्म देती है और प्राथमिक शिक्षा का श्रीगणेश कराती है । अत: माता का स्थान पिता ही नहीं, ईश्वर से भी ऊपर है ।
बाल–नायक का हाथ बार–बार नेकर की जेब में रखे झुमके पर जाता है और उसे ख्याल आता है, माँ उसके सभी बहन–भाइयों में उसे ही अधिक चाहती है । वह अपने बहन–भाइयों में सबसे बड़ा है । कोई भी खाने की चीज हो, सबसे पहले, सबसे ज़्यादा उसे देती है । उसे पुन: स्मरण आता है कि एक बार जब उसके पेट में दर्द उठा था, तो माँ ने रोते–रोते आसमान सिर पर उठा लिया था । माँ तब तक आराम से नहीं बैठी थी ,जब तक उसे आराम नहीं आ गया । फिर उसे एहसास होने लगता है कि उसकी माँ झुमके के कारण रो रही है ।
ये सब सोचकर वह ग्लानि से भर जाता है और अपराध बोध उसकी आँखों से झर–झर बहने लगता है । शिक्षक उसे रोते देखकर रोने का कारण पूछता है और वह बिना कुछ छिपाये सब–कुछ सच बता देता है और वह तुरन्त घर जाने की इच्छा व्यक्त करता है और झुमके को माँ को देकर अपने अपराध हेतु क्षमा माँगना चाहता है ।
यह मनोवैज्ञानिक होने के साथ–साथ शैक्षिक लघुकथा भी है । शिक्षक की बातें बच्चों को कैसे सही राह पर ले आती हैं । दूसरा इस लघुकथा से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि बच्चे कितने मासूम एवं भावुक होते हैं ।
इस लघुकथा की अन्तर्वस्तु जितनी श्रेष्ठ है ,इसकी प्रस्तुति भी उसी के अनुसार श्रेष्ठ एवं सटीक है । इस लघुकथा का एक–एक शब्द हृदय को स्पर्श करते जाता है । किन्तु क्लाइमेक्स पर आते–आते लघुकथा का यह वाक्य पाठकों को इस सीमा तक संवेदना से भर देता है कि दिल भीग जाता है और आँखें बहने लगती हैं । वह वाक्य देखें-आज मेरा दिल क्लास में बिलकुल नहीं लग रहा है, बस रोने का मन करता है । मुझे क्षमा कर दीजिए, सर ।
इसका शीर्षक ‘अन्तश्चेतना’ बिलकुल सटीक है और वह लघुकथा से पूरी गहराई तक जुड़ा हुआ है । मेरी दृष्टि में इस लघुकथा का इससे सटीक दूसरा शीर्षक हो ही नहीं सकता था ।
मेरा मानना है कि जो रचना संवेदना के स्तर पर हृदय–स्पर्श न कर सके वस्तुत: वह रचना हो ही नहीं सकती । अत: ‘अन्तश्चेतना’ मेरी सर्वाध्कि पसंदीदा लघुकथा है ।
मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा ‘साँझ’ है । ‘साँझ’ लघुकथा जिसके मायने ‘हिस्सेदारी’ ‘बराबरी’, ‘अपनी बिरादारी का’ एवं ‘अपनत्व’ इत्यादि हो सकते हैं । कथाकार विवेक की इस कथा का कथानक मात्र इतना है कि एक माँ अपने बच्चे को इसलिए पीटती है कि वह छोटी बिरादरी वालों के साथ खेलता है और उसका पिता आकर अपनी पत्नी को समझाता है, ‘छोड़ ऊषा, यह कौन–सी बात हुई ! हम भी दिहाड़ी करके खाने वाले हैं, वो भी मज़दूरी करके पेट भरते हैं । बता फिर फर्क कहाँ हुआ ? हम भी गरीब, वे भी गरीब । हमारी तो ‘साँझ’ हुई न । जात–बिरादरी ने रोटी दे–देनी है ! रोटी तो मेहनत–मज़दूरी करके ही खानी है । यूँ ही लड़के को न मारा कर, खेलने दे जिसके साथ खेलता है ।
यह लघुकथा भी डॉ पुष्करणा की लघुकथा की तरह ही एक सकारात्मक संदेश लेकर प्रस्तुत हुई है । ऐसा प्रतीत होता है जैसे इसकी लघुकथा भी सहज–स्वाभाविक ढंग से लेखक को स्वयं ही अंत तक लेकर चली चलती है और लेखक विवश–सा उसके साथ चलता चला है । इसमें कहीं भी कोई कलात्मक दाँव–पेंच नहीं है । प्रस्तुति सीध्ी–सपाट होते हुए भी क्लाइमेक्स पर आते–आते बच्चे के पिता के संवाद के साथ ऊँचाइयाँ ग्रहण कर लेती है ।
इसका विषय तो श्रेष्ठ है ही, उसकी प्रस्तुति भी उत्कृष्ट है । भाषा का एक–एक शब्द माला में गुँथे हुए मोतियों की तरह से बहुत ही करीने से गुँथा हुआ है ।
लघुकथा समाप्त होते–होते बहुत–कुछ सोचने को छोड़ जाती है । यह लघुकथा संवेदना के स्वर पर हृदय में कहीं गहराई तक अपना गहरा प्रभाव छोड़ने में समर्थ है । यह संवेदनापरक लघुकथा संवेदना के सारे तार एक साथ झनझना देती है ।
इसका शीर्षक भी इस लघुकथा की उत्कृष्टता में बराबर का हिस्सेदार है ।
डॉ पुष्करणा की लघुकथा जहाँ मनोविज्ञान का आधार लेकर मानव–मूल्यों को बल देती है वहीं विवेक की यह लघुकथा व्यवहार का आधार लेकर मानव–मूल्यों को ताकत देती है । इसमें प्रयुक्त व्यावहारिकता बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । इसलिए ये दोनों ‘लघुकथाएँ’ मुझे बेहद पसंद हैं । प्रस्तुत हैं क्रमश: मेरी पसंद की दोनों लघुकथाएँ
1. अन्तश्चेतना
डॉ सतीशराज पुष्करणा
कक्षा पाँच में प्रथम पीरियड नैतिक–शिक्षा का चल रहा है। शिक्षक पढ़ा रहे हैं कि हमें माता–पिता के प्रति आभारी होना चाहिए जो हमें पालते हैं, पढ़ाते–लिखाते हैं तथा समाज में रहन–सहन का ढंग सिखाते हैं। माता तो पिता से भी महान् है, जो नौ माह तक बच्चे को गर्भ में रखती है, जन्म देती है और प्राथमिक शिक्षा का श्रीगणेश कराती है। अत: माता का स्थान पिता ही नहीं, ईश्वर से भी ऊपर है।
अभिषेक बहुत ही मेधवी छात्र है। कक्षा में सदैव आगे रहता है। प्रत्येक शिक्षक का प्रिय विद्यार्थी है। किन्तु आज ! आज वह शरीर से कक्षा में, किन्तु मन किसी अजीब उलझन में है। शिक्षक द्वारा पढ़ाए गए पाठ के कुछ अंशों पर उसका ध्यान जा सका है, कुछ पर नहीं। किन्तु जो अंश उसके कान में पड़े हैं, उन्होंने उसे दुखी ही नहीं किया, आत्मग्लानि से भी भर दिया है। अब उसका मन पूरी तरह से उचट गया है। रह–रहकर उसका हाथ नेकर की जेब में चला जाता है और फिर उसमें से ऐसे निकलता है, जैसे जेब के भीतर से उसे कोई डंक–सा लगा हो। उसकी जेब में उसकी माँ का झुमका है, सोने का झुमका।
उसे लगता है कि वह अभी इसी वक्त घर भाग जाए और झुमका माँ के चरणों में रख दे। रह–रहकर एक तरफ शिक्षक की बातें उसके मन–मस्तिष्क पर उभरती हैं, तो दूसरी तरफ माँ का रोता हुआ परेशान चेहरा उसके समक्ष उपस्थित हो जाता है। वह सोचने लगता है, माँ अपना एक झुमका ढूँढ़ रही होगी। वह उसे मिल नहीं रहा होगा। वह परेशान होगी। पिता की डाँट की कल्पना से वह सिहर–सिहर जा रही होगी। सोने की वस्तु खोना अशुभ माना जाता है – यों भी कीमती वस्तु.... वह जितना सोचता जाता है, दु:खी होता जाता है।
उसे ख्याल आता है, माँ उसके सभी बहन–भाइयों में उसे ही अधि चाहती है। वह अपने बहन–भाइयों में सबसे बड़ा है। कोई भी खाने की चीज हो, उसे सबसे पहले, सबसे ज्यादा देती है। उसे स्मरण हो आया एक बार जब उसके पेट में दर्द उठा था, तो माँ ने रोते–रोते आसमान सिर पर उठा लिया था। माँ तब तक आराम से नहीं बैठी थी, जब तक उसे आराम नहीं आ गया। यह सोचकर उसका मन ग्लानि की पराकाष्ठा तक भर आया। वह रुआँसा हो गया। हल्के–हल्के सिसकने भी लगा। पास बैठे लड़के ने जब अभिषेक की आँखों में आँसू देखे तो उठकर खड़ा हो गया, ‘‘सर ! अभिषेक रो रहा है।’’
‘‘रो रहा है ! मगर क्यों? अभिषेक खड़े हो जाओ, बताओ बेटे ! तुम क्यों रो रहे हो ? तुम्हें किसी ने कुछ कहा है? इधर आओ, मेरे पास।’’
इतना सुनते ही तो वह फफक पड़ा और अविरल अश्रुधार वह निकली। हिचकियाँ बँधने लगीं। शिक्षक उसे प्यार करने लगे। उसके सिर पर हाथ फेरा। उसकी हिचकियाँ थमने का नाम ही नहीं ले रही थीं। शिक्षक ने उसे सीने से लगाया और रोने दिया। शिक्षक समझ गया आज इसके साथ अवश्य ही कोई विशेष बात है, अन्यथा इतना मेधवी लड़का ... यह तो सदैव प्रसन्न रहने एवं चहकने वाला लड़का है। आज इसका इस प्रकार रोना कोई अर्थ अवश्य रखता है।
पीरियड समाप्त होने को आया। शिक्षक ने कहा, ‘‘बेटे ! तुम एक मेधावी छात्रा हो, प्रत्येक शिक्षक तुम पर गर्व करता है। तुम्हारे इस प्रकार रोने ने मुझे चिन्ता में डाल दिया है। तुम्हारी आँखों में आँसू देखकर मैं भी भावुक हो उठा हूँ। बताओ, क्या बात है?’’
अभिषेक ने अपनी की जेब से झुमका निकालकर शिक्षक के हाथ पर रख दिया।
‘‘यह क्या ! झुमका ?’’
‘‘सर ! यह मेरी माँ का है।’’
‘‘तो .... ?’’
‘‘ सर ! पतंग–डोर खरीदने की गरज से मैंने इसे चुरा लिया था।’’
‘‘तब ?’’
‘‘सर ! एक तो मैंने जब से इस झुमके को उठाया है, तभी से परेशान हूँ। पिफर आज क्लास में आपके पढ़ाए पाठ ने तो मुझे और अधिक ग्लानि से भर दिया है। रह–रहकर मुझे माँ का चेहरा परेशान एवं रोता हुआ नजर आता है। आज मेरा दिल क्लास में बिलकुल नहीं लगा रहा है। बस रोने का मन करता है। मुझे क्षमा कर दीजिए, सर ।’’
‘‘बेटे ! तुम मेधावी ही नहीं, समझदार भी हो, और बहादुर भी। आज से मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति और अधिक प्यार बढ़ गया है। चलो ! घर चलो ! मैं भी तुम्हारे साथ चलता हूँ।’’
2. साँझ
विवेक
फ्न मारो मम्मी, न मारो ! दस वर्षीय भोलू ने अपनी माँ के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा ।
नहीं, मैं तुझे अभी बताती हूँ । अब खेलेगा उसके साथ ? कहते हुए ऊषा देवी ने डंडा लड़के के टखनों पर मारते हुए कहा ।
डंडे की मार से लड़का चीख उठा । ऊषा देवी ने मारने के लिए फिर से हाथ उठाया ही था कि उसके पति कृष्णकांत शर्मा ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया । पिता को आया देख, बचाव के लिए भोलू उसकी टाँगों से लिपट गया ।
अब किधर जाता है ?य तुझे कितनी बार कहा, पर तुझ पर कोई असर नहीं । ऊषा देवी फिर भोलू की ओर लपकी ।
बात हो गई ? क्यों लड़़के को मार रही है ? सहमे हुए भोलू की पीठ पर हाथ रखते हुए कृष्णकांत ने पत्नी से पूछा ।
होना क्या है, जब देखो मजहबियों के लड़के के साथ खेलता रहता है । उसकी बाँह में बाँह डाले फिरता है । कभी खुद उसके घर चला जाता है, कभी उसे अपने घर ले आता है....मुझे ये बातें अच्छी नहीं लगतीं.....इसे बहुत बार समझाया, पर सुनता ही नहीं । कहता है, वह मेरा दोस्त है....दोस्त ही बनाना है तो अपनी जात–बिरादरी वाला देख ले....। ऊषा देवी ने भोलू को घूरते हुए कहा ।
छोड़ ऊषा, यह कौन–सी बात हुई । हम भी दिहाड़ी करके खाने वाले हैं, वे भी मज़दूरी करके पेट भरते हैं । बता फिर फर्क कहाँ हुआ ? हम भी गरीब, वे भी गरीब । हमारी तो साँझ हुई न । जात–बिरादरी ने रोटी दे–देनी है ! रोटी तो मेहनत–मज़दूरी करके ही खानी है । यूँ ही लड़के को न मारा कर, खेलने दे जिसके साथ खेलता है ।
इतना कह उसने ऊषा देवी के हाथ से डंडा पकड़ कर फेंक दिया ।

 

 
 
Developed & Designed :- HANS INDIA
Best view in Internet explorer V.5 and above