आधुनिक साहित्य के संबंध में लघुकथा का अपना स्वतंत्र महत्त्व एवं अस्तित्व है। जीवन की
उत्तरोत्तर द्रुतगामिता एवं संघर्ष के फलस्वरूप उसकी अभिव्यक्ति की संक्षिप्तता ने आज कहानी के क्षेत्र में लघुकथाओं ने अत्यधिक प्रगति की है। इसमें क्षिप्रता सबसे आवश्यक तत्त्व है
आज व्यस्ततम मानव-जीवन में लघुकथा गद्य की शीर्ष और पठनीय विधा बन चुकी है। मुझे जो लघुकथाएँ पसन्द हैं , उनमें मुख्य हैं-सतीश दुबे -श्रद्धांजलि, विष्णु प्रभाकर -फर्क,खलील जिब्रान-मोती, उपेन्द्र नाथ अश्क-गिलट, भवभूति मिश्र -बची खुची संपत्ति,, रमेश बतरा-सूअर, जगदीश कश्यप-नागरिक, सुकेश साहनी -कसौटी, विक्रम सोनी -मीलों लंबे पें,रामेश्वर काम्बोज हिमांशु -ऊँचाई,, चित्रा मुद्गल -बोहनी, पवन शर्मा -कुंदन, सतीशराज पुष्करणा-आत्मिक सम्बन्ध, कमल चोपड़ा -खेल-, मंटो -गोश्त और हड्डी, रूप देवगुण -जगमगाहट,बलराम अग्रवाल -जहर की जड़ें, कृष्णानंद कृष्ण -सहानुभूति, मिथिलेशकुमारी मिश्र -पूँजी, पुष्पा जमुआर -रजाई, इत्यादि हैं।
मैं यहाँ अपनी पसन्द की दो लघुकथाओं के बारे में बात करना चाहूँगा, जिनमें पहली लघुकथाहै- डॉ0 सतीशराज पुष्करणा की ‘बोफोर्स कांड’ और दूसरी लघुकथा है प्रबोध कुमार गोबिल की ‘माँ’।
सतीशराज पुष्करणा लघुकथा के शीर्ष हस्ताक्षर हैं। लघुकथा की विभूतियों में चार-पाँच का यदि नाम लिया जाए तो उनमें सहज शुमार डॉ पुष्करणा का हो जाता है। पठित रचनाओं के आधार पर यह बात बिना लाग-लपेट के कही जा सकती है कि पुष्करणा एक एवं प्रयोगधर्मी साहित्यकार हैं। इनकी जो लघुकथाएँ मैंने पढ़ी हैं, उनमे ‘बोफोर्स कांड’ महत्त्वपूर्ण है।यह एक प्रतीकात्मक लघुकथा है। राजीव गाँधी के समय में बोफोर्स तोप घोटाला हुआ था, जिसका सत्य आज तक उद्घाटित न हो सका । वजह - काफी शातिराना ढंग से इसकी बुनियाद रची गई थी। आज असंख्यों घोटाले हो रहे हैं, जिनके बारे में पता लगाना जाँच एजेंसियों के बूते के बाहर की चीज है। इसका कारण यह है कि या तो जाँच एजेंसियाँ सरकार के खिलाफ काम नहीं कर सकतीं या वे स्वयं पैसों पर बिक जाती हैं। कुछ एक में फेल भी हो जाती हैं। इसी का गुस्सा, टीस, सम्वेदना और पर्दाफाश है.‘बोफोर्स कांड’ में।
लेखक की बात पूरी तरह कथात्मक है। जैसी अन्तर्वस्तु है, वैसा ही सटीक शीर्षक। देखिए न, हेडमास्टर खाता-बही में पूर्व का लिखा काटकर उसपर अनर्गल हिन्दी, फिर अनर्गल अँग्रेजी का लेप चढ़ा देता है। वह जब आश्वस्त हो जाता है कि लाख उलट-पुलट कर देखने पर भी पूर्व का लिखा पता न चलेगा, तब उस स्थान को आयत के आकार में अपने कलम की स्याही से भर देता है। हेडमास्टर की इस शातिराना हरकत पर जब उसका सहायक आश्चर्य चकित होकर पूछता है कि सर वगैर हिन्दी और अँग्रेजी में लिखे भी यदि आयत बनाकर आप स्याही से भर देते, तब भी पूर्व लिखित दिखाई नहीं देता, हेडमास्टर का उत्तर था- ‘‘यदि आपको इतनी ही समझ होती तो आप मेरे सहायक नहीं....... कहीं हेडमास्टर होते।’’ अब यहाँ पर यह भी सच्चाई उद्घाटित होती है कि ऊँचे पदों पर अधिकतर धूर्त ही बैठे हैं।
फिर हेडमास्टर द्वारा ऐसा प्रयोग की बात पर सहायक असफल रहता है। और विजयगर्व से
हेडमास्टर समझाते हुए कहता है, ‘‘यदि सच्चाई को छिपाना हो तो पहले उसपर इधर-उधर कुछ अनर्गल लिखो और काटो। तब सफाई से मेरी तरह एक खूबसूरत आयत बनाकर उसमें स्याही भर दो। सच्चाई स्वतः छिप जाएगी।’’
इसपर सहायक लगभग डरता हुआ कहता है कि सच्चाई तो जरूर छिप जाएगी, लेकिन आयताकार धब्बा तो रह ही जाएगा, जो देखने वालों की आँखों में चुभता रहेगा।
शीर्षक तो लघुकथा की एक बड़ी ताकत है। अगर इस लघुकथा का शीर्षक ‘बोफोर्स
कांड’ न रहता तो लघुकथा बिल्कुल साधारण बनकर रह जाती। पर इसके शीर्षक ने इसे काफी ऊँचाई तक पहुँचा दिया है। ‘बोफोर्स कांड’ प्रत्यक्षतः कुछ और परोक्षतः कुछ और कहती है।
दूसरी लघुकथा है- प्रबोध कुमार गोबिल की ‘माँ’। इनकी ‘माँ’ ने इन्हें सर्वाधिक ऊँचाई और चर्चा दिलाई है। यह कहना रत्ती भर भी अतिशयोक्ति न होगी। ‘माँ’ शब्द ऐसा है, जिसे सुनते ही मन-प्राण को एक अजीब-सी शांति और सुकून मिलता है। डर,भय, संशय, तनाव, सब कुछ छू-मंतर हो जाते हैं। ‘मौत भी न छू सकती’ का अहसास होता है। माँ की ममता, उसका संघर्ष, उसकी सहनशीलता, उसका जीवन कैसा कि सब कुछ संतान के लिए समर्पित। कितना कष्ट झेलती है माँ अपनी संतान के लिए। इसका व्यापक फलक है। माँ को सम्बोधित करती एक-से-एक लघुकथाएँ हैं, पर इस माँ ने सर्वाधिक छुआ है। इसकी अंतर्वस्तु में एक गरीब लड़की का चित्र है, जो अपने माँ-बाप के बाहर जाने पर कुछ बच्चों के साथ खेलने बैठती है। ‘घर-घर’ खेलने से पूर्व खाना बनाने का निर्णय होता है। बीच में कपड़े धोने की बात उठती है पर, ‘‘नहीं, चलो, पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।’’
‘‘मैं तो इसमें लूँगा’’। ‘‘अरे भात तो खत्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए...... चलो तुम सब खाओ,मैं बाद में खा लूँगी’’।
‘‘तू माँ बनी है क्या?’’ माँ की सम्वेदना को लेखक ने जिस चतुराई और कौशल के साथ पेश किया है, वह उसके एक सफल और सिद्धहस्त कथाकार होने की ओर इशारा करता है।साथ ही कितने सरल और अबोध पात्रों द्वारा कहानी का ताना-बाना बुना गया है! कितने सरल, सहज शब्द और भाषा है! लेखकों के लिए एक प्रेरणास्रोत भी है कि बड़ी-से-बड़ी रचनाओं के लिए अंतर्दृष्टि की जरूरत होती है।
‘माँ’ लघुकथा पूरी तरह से एक कालजयी रचना है। ‘माँ’ शीर्षक लघुकथा की कसौटी पर खरा उतरता है। अगर सबसे बड़ी विशेषता को माँ में रेखांकित किया जाए तो वह है उसकी सम्वेदना। सम्वेदना की तो इसमें इतनी गहराई है कि सैंकड़ों लघुकथाओं- में से इक्का-दुक्का लघुकथा में में यह बात देखने को मिलती है। इसकी अंतिम पंक्ति ‘‘तू माँ बनी है क्या?’’ तो सम्वेदना के चरम बिन्दु तक पहुँचा देती है और यही उसकी बड़ी प्राण भी है। जितनी बार यह लघुकथा पढ़ी जाए ,वह अंतिम पंक्ति सम्वेदना और रोमांच में डूबा ही देती है।लघुकथा की पूरी संरचना काबिले-तारीफ है। पात्र, वातावरण और परिवेश के अनुसार भाषा और शब्दों का चयन हुआ है। संप्रेषणीयता तो इतनी सहज है कि साधारण पाठक भी एक बार में आसानी से समझ ले। यह भी किसी रचना के लिए एक बड़ी उपलब्धि है । अंतर्वस्तु और शिल्प एकदम कसे हुए हुए हैं।
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1-बोफोर्स कांड
-डॉ सतीश राज पुष्करणा
किसी विद्यालय के हेडमास्टर ने स्कूल के खाता-बही में पूर्व लिखित कुछ काट दिया। फिर उस
काटे हुए पर, कुछ अनर्गल हिन्दी में लिख दिया। उन हिन्दी में लिखे अनर्गल शब्दों पर फिर कुछ अनर्गल अँग्रेजी शब्दों का लेप कर दिया। अब उस खाता-बही में पूर्व लिखित क्या था, लाख इधर-उधर से उलट-पुलट कर देखने पर भी पढ़ पाना असंभव हो गया था। अब हेडमास्टर ने उस काटे हुए स्थान को आयत के आकार में अपने कलम की स्याही से भर दिया। यह सब कुछ उनके एक सहयोगी ने देखा, तो कहा, ‘‘सर! आपने पूर्व लिखित को पहले काटा फिर उसपर कुछ हिन्दी में, तब अँग्रेजी में लिखकर, उसपर कलम से खूबसूरत आयत बनाकर स्याही से भर दिया। बगैर हिन्दी और अँग्रेजी में लिखे भी यदि आयत बनाकर आप स्याही से भर देते, तब भी पूर्व लिखित दिखाई नहीं देता।’’
‘‘यदि आपको इतनी ही समझ होती, तो आप मेरे सहायक नहीं, ......... कहीं हेडमास्टर होते..।
आप किसी अन्य कागज पर अपना प्रयोग करके देखें, तो आप स्वतः ही समझ जाएँगे।’’
सहायक शिक्षक ने अपना प्रयोग किया और वह असफल रहा, क्योंकि थोड़ा इधर-उधर कागज
को घूमाकर देखने पर पूर्व लिखित पढ़ा जा सकता था। मन-ही-मन वह शिक्षक हेडमास्टर की बुद्धिमानी पर चकित था। तब हेडमास्टर ने पुनः कहा, ‘‘देखिए! यदि सच्चाई को छिपाना हो तो पहले उस पर इधर-उधर का कुछ अनर्गल लिखो और काटो। तब सफाई से मेरी तरह एक खूबसूरत आयत बनाकर उसमें स्याही भर दो। सच्चाई स्वतः छिप जाएगी।’’
‘‘हाँ सर! सच्चाई तो जरूर छिप जाएगी, लेकिन आयताकार धब्बा तो रह ही जाएगा, जो सदैव
देखने वालों की आँखों में चुभता रहेगा।’’
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माँ
-प्रबोध कुमार गोविल
उसका बाप सुबह-सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। माँ रोटी देकर ढेर सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई। वह घर से बाहर निकली थी कि उसी की तरह उसे उलझे मैले बालों वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ़्राक बार-बार खींचती आ गई। फिर एक-एक करके बस्ती के दो चार बच्चे और आ गए।
‘‘चलो, घर-घर खेलें।’’
‘‘पहले खाना बनाएँगे, तू जाकर लकड़ी बीन ला और तू यहाँ सफाई कर दे।’’
‘‘अरे, ऐसे नहीं। पहले आग तो जला।’’
‘‘मैं तो इधर बैठूँगी।’’
‘‘चल, अपन दोनों चलकर कपड़े धोएँगे।’’
‘‘नहीं, चलो, पहले सब यहाँ बैठ जाओ। खाना खाओ, फिर बाहर जाना।’’
‘‘मैं तो इसमें लूँगा।’’
‘‘अरे! भात तो खत्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए .......... चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में
खा लूँगी।’’
‘‘तू माँ बनी है क्या?’’
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