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मेरी पसंद - डॉ ज्योत्स्ना शर्मा

डॉ ज्योत्स्ना शर्मा

पत्र –पत्रिकाओं में अन्य विधाओं के साथ लघुकथाएँ भी पढ़ती रही हूँ ;परन्तु लघु कथा डॉट कॉम ,हिंदी चेतना, अविराम आदि पत्रिकाओं के लघुकथा को ही समर्पित अंक पढ़ने को मिले तो चकित रह गई ।प्रेमचन्द (राष्ट्र का सेवक ),सुदर्शन (मेरी बड़ाई ),श्यामनन्दन शास्त्री (धरती का काव्य ),शरद जोशी (मैं वही भागीरथ हूँ ),विष्णु प्रभाकर (पानी की जाति)से लेकर असगर वजाहत की ‘आग’ ,रमेश बतरा की ‘सूअर’ ,पृथ्वी राज अरोड़ा की ‘कथा नहीं’ श्याम सुन्दर अग्रवाल की ‘उत्सव’ ,सुभाष नीरव की ‘धूप’ ,राम पटवा की ‘अतिथि कबूतर’ सुदर्शन रत्नाकर की ‘प्रबंधन’ ,बलराम अग्रवाल की ‘कंधे पर बैताल’ ,सतीश राज पुष्करणा की ‘सहानुभूति’ ,सुकेश साहनी की ‘दूसरा चेहरा’, श्याम सुन्दर दीप्ति की ‘रिश्ता’ ;कहाँ तक गिनाऊँ ,पढ़ना आरम्भ किया तो लगा कि लघुकथा तो लघु कलेवर में विशद आत्मा का साक्षात्कार है, चमत्कृत करती अनुभूति के साथ । ऐसी ही भाव और शिल्प दोनों ही दृष्टि से बेजोड़ दो लघुकथाओं का उल्लेख यहाँ अभीष्ट है ।एक है –रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की “नवजन्मा “ और दूसरी प्रद्युम्न भल्ला जी की लघुकथा 'बड़े साहब '।दोनों ही लघु कथाएँ एक ओर सहज सरल शैली में सामाजिक परिवेश को यथातथ्य कहती हैं दूसरी ओर सुन्दर, सुखद सन्देश की संवाहक भी बनती हैं ।उनकी यही विशेषता मेरी दृष्टि में उन्हें विशिष्ट स्थान प्रदान करती है ।
रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की कथा “नवजन्मा” में शहर से वापस आया कथा नायक जिले सिंह घर के वातावरण को उदासियों से भरा पाता है ।बेटी के जन्म ने दादी ,माँ और बहन के अरमान मार दिए ।उनके संवाद हमारे समाज की उस सोच को उजागर करते हैं ;जहाँ स्त्री खुद अपने स्त्रीत्व को अभिशाप स्वीकार करती है ।आगत की आशंका से माँ मौन है और पत्नी बेटी को जन्म देने के अपराध-बोध से ग्रस्त ,भरी आँखों को पोंछकर मुँह फेर लेती है ।
अवाक् पाठक के लिए कथा के उत्तरार्द्ध में परिदृश्य बदला हुआ है ।पारंपरिक परिधान में जिले सिंह ने ढोल की थाप पर नाचते हुए सौ का नोट बिटिया पर वार कर ढोलिया को थमा दिया और ढोल और जोर से बज उठा ।कथा यहीं समाप्त होती है ।परन्तु इस परिदृश्य में कथाकार की पंक्ति , “पति के चेहरे पर नज़र पड़ते ही मनदीप की आँखों के सामने जैसे उजाले का सैलाब उमड़ पड़ा” पाठकों के मन को उजालों से भर जाती है ।निराशा से आशा तक का सफ़र बहुत छोटी सी कालावधि में घटित घटना में बहुत सशक्त रूप में तय हुआ ।
भाषा और भावाभिव्यक्ति पात्रों की मनोवृत्ति के अनुरूप है ।दादी , “जिल्ले तेरा तो इभी से सिर बंध ग्या रे” कहती है ,तो बहन , “मेरा तो नेग मारा गया” बेहद सरल सहज ।माँ का मौन और फिर भुनभुनाना मनोभावों को अभिव्यक्त करने में पूर्णत: समर्थ है ।कथानक निरंतर रोचकता लिये है ।जिले सिंह का तीर- सा लौट जाना उत्सुकता बढ़ा देता है- जाने क्या होगा आगे ? सहज सरल संवाद सहृदय पाठक को घटना क्रम से जोड़ देते हैं । मनदीप की उदासी और संतोष दोनों बेहद प्रभावी ढंग से व्यक्त किए गए ।उजाले के सैलाब जैसे छलकते आँसुओं को उसने इस बार नहीं पोंछा । नायक के संवाद न के बराबर हैं; लेकिन उसके हाव-भाव अनकही कथा कहते हैं । जिले सिंह के माथे की लकीरें दिखाई देती हैं और उसका तुर्रेदार पगड़ी पहन आँगन में नाचना बिटिया के जन्म की उदासी को गौरव पूर्ण पलों में परिवर्तित कर देता है ।मनोभावों की ऐसी अभिव्यक्ति दुर्लभ है ।
कहना अतिशयोक्ति न होगा कि कथा अपने कलेवर ,भाव-भूमि ,भाषा-शैली और प्रस्तुति की दृष्टि से अनुपम है ।कथा के समापन में समाज की सोच में सुखद परिवर्तन और उमंगों के ढोल की अनुगूँज सुनाई पड़ती है –तिड़क धुम्म ! और एक “नवजन्मा” अहसास मन को मुदित कर जाता है ।
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प्रद्युम्न भल्ला जी की लघुकथा 'बड़े साहब 'बहुत सरल सहज और रुचिकर लगी।विशिष्टता यह कि जहाँ वह पूर्वाग्रह से ग्रस्त समाज की झलक दिखाती है वहीं एक राह भी सुझाती है।कथा का ताना बाना एक छोटे से दृश्य को लेकर बुना गया है ।कार्यालय में वाटर मैन हरिया का लोन मंजूर हो गया ।पिछले कई वर्षों की भांति बड़े बाबू को कुछ देकर शेष प्रक्रिया संपन्न करने के स्थान पर उसने इस बार स्वयं बड़े साहब से मिलने का निर्णय लिया , जिसका परिणाम भी सुखद रहा ।बड़े साहब ने न केवल बिल पर साइन किये अपितु उसका रहन -सहन देखकर और सहायता भी की ।चकित हरिया ने साहब के पैर पकड़ लिये।वह सोच रहा था काश वह बड़े साहब से पहले मिला होता और साहब ने सोचा काश हरिया जैसे लोग सीधे उन तक पहुँच पाते ।
कथा सामाजिक व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार का चित्र तो उजागर करती ही है ,साथ ही अनजाने ही यहाँ हमारे योगदान की ओर भी इंगित करती है ।भूल हमारी है तो सुधार की ओर कदम भी हमारा ही बढ़ना चाहिए ।कथाकार की विशेषता है कि उसने यह कदम किसी शिक्षित बड़े समाज सुधारक या नेता का नहीं ;वरन कार्यालय के वाटर मैन हरिया का बनाया ।हरिया ऐसा पात्र है जो अपने चारों ओर के वातावरण के प्रति सजग है ।उसकी भाषा और भाव भी इसके परिचायक हैं ।पहला बदलाव हरिया की सोच में सुखद लगा ।दूसरा पात्र अनुपस्थित रहकर भी उपस्थित है -बड़ा बाबू ; जो प्राय: यत्र -तत्र सर्वत्र दिखाई पड़ता है तथा यथार्थ रूप में चित्रित है ।तीसरा चरित्र है 'बड़े साहब ' का जो वास्तव में बड़े साहब हैं ,प्रत्येक दृष्टि से ।कहानी का शीर्षक बड़े साहब की बड़ी सोच के अनुसार बहुत सटीक है तथा आगत अर्थ का संकेत देने में पूर्णतः समर्थ है ।भाषा और संवाद रोचक एवं प्रभावी हैं ।
संक्षेप में कहूँ तो कथा के घटना चक्र ने कार्यालय में लगी 'किसी भी काम के लिए सीधे बड़े साहब से मिलें 'की निष्प्राण तख्ती को प्राणवंत कर दिया तथा नए हौंसले से उठे नए कदम ने नई मंजिलें तलाश लीं ।आशा की जा सकती है कि इन नए कदमों का सहृदय समाज स्वागत करेगा और ऐसे बड़े साहब खूब मिलेंगें ।
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नवजन्मा-रामेश्वर काम्बोज’हिमांशु’

जिलेसिंह शहर से वापस आया तो आँगन में पैर रखते ही उसे अजीब -सा सन्नाटा पसरा हुआ लगा ।
दादी ने ऐनक नाक पर ठीक से रखते हुई उदासी -भरी आवाज़ में कहा -‘जिल्ले ! तेरा तो इभी से सिर बँध ग्या रे । छोरी हुई है !’
जिलेसिंह के माथे पर एक लकीर खिंच गई ।
‘ भाई लड़का होता तो ज़्यादा नेग मिलता। मेरा भी नेग मारा गया’- बहन फूलमती ने मुँह बनाया-‘पहला जापा था । सोचा था- खूब मिलेगा।’
जिले सिंह का चेहरा तन गया। माथे पर दूसरी लकीर भी उभर आई ।
माँ कुछ नहीं बोली । उसकी चुप्पी और अधिक बोल रही थी । जैसे कह रही हो-जूतियाँ घिस जाएँगी ढंग का लड़का ढूँढ़ने में । पता नहीं किस निकम्मे के पैरों में पगड़ी रखनी पड़ जाए ।
तमतमाया जिलेसिंह मनदीप के कमरे में घुसा ।बाहर की आवाज़ें वहाँ पहले ही पहुँच चुकी थीं । नवजात कन्या की आँखें मुँदी हुई थीं । पति को सामने देखकर मनदीप ने डबडबाई आँखें पोंछते हुए आना अपना मुँह अपराध भाव से दूसरी ओर घुमा लिया ।
जिलेसिंह तीर की तरह लौटा और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ चौपाल वाली गली की ओर मुड़ गया ।
‘सुबह का गया अभी शहर से आया था ।तुम दोनों को क्या ज़रूरत थी इस तरह बोलने ?’ माँ भुनभनाई । घर में और भी गहरी चुप्पी छा गई ।
कुछ ही देर में जिलेसिंह लौट आया ।उसके पीछे-पीछे सन्तु ढोलिया गले में ढोल लटकाए आँगन के बीचों-बीच आ खड़ा हुआ ।
‘ बजाओ !’ जिलेसिंह की भारी भरकम आवाज़ गूँजी ।
तिड़क-तिड़-तिड़-तिड़ धुम्म , तिड़क धुम्म्म ! ढोल बजा।
मुहल्ले वाले एक साथ चौंक पड़े । जिलेसिंह ने अल्मारी से अपनी तुर्रेदार पगड़ी निकाली; जिसे वह वह शादी-ब्याह या बैसाखी जैसे मौके पर ही बाँधता था। ढोल की गिड़गिड़ी पर उसने पूरे जोश से नाचते हुए आँगन के तीन-चार चक्कर काटे । जेब से सौ का नोट निकाला और मनदीप के कमरे में जाकर नवजात के ऊपर वार-फेर की और उसकी अधमुँदी आँखों को हलके - से छुआ । पति के चेहरे पर नज़र पड़ते ही मनदीप की आँखों के सामने जैसे उजाले का सैलाब उमड़ पड़ा हो ।उसने छलकते आँसुओं को इस बार नहीं पोंछा ।
बाहर आकर जिलेसिंह ने वह नोट सन्तु ढोलिया को थमा दिया ।
सन्तु और जोर से ढोल बजाने लगा -तिड़-तिड़-तिड़ तिड़क-धुम्म , तिड़क धुम्म्म ! तिड़क धुम्म्म ! तिड़क धुम्म्म !
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बड़े साहब-प्रद्युम्न भल्ला
आज हरिया बहुत खुश था। तीन चार दिन की भाग–दौड़ के बाद आखिर पैसे निकलवाने की मंजूरी मिल ही गई थी। हर वर्ष ऐसा होता था। मंजूरी मिलने पर वह बड़े बाबू की शरण में जाता था जहाँ कुछ दे कर ही रुपए निकलते थे। इस ‘कुछ’ में बड़े साहब का भी हिस्सा था, ऐसा बड़े बाबू कहते थे।
इस बार हरिया ने सोचा था कि क्यों न बड़े साहब से ही मिला जाए और सीधी बात की जाए। यह सोच कर वह बड़े साहब के दफतर की ओर चल पड़ा। ‘‘किसी भी काम के लिए सीधे बड़े साहब से मिले’’ की तख्ती पढ़ कर उसका हौसला बढ़ा।
‘‘मे आई कम इन सर’’ हरिया ने डरते–डरते पूछा। दफ़्तर में पानी पिलाने का कार्य करते यह वाक्य उसने सीख लिया था।
‘‘यस’’
मैं वाटरमैन हरिया !
“हाँ कहो”, साहब ने बिना उसकी ओर देखे कहा।
“साहब, ये मेरा छोटे से लोन का बिल था–आपके साइन हो जाते तो?”
“लाओ।”
फुर्ती से हरिया ने बिल आगे किया, साहब ने साइन किए।वह लौटने लगा।
सुनो, “साहब ने कहा।”
जी, हरिया ठिठक गया। उसे लगा अब साहब उससे पैसे भी माँग सकते हैं अथवा बिल भी लटका सकते हैं।
इधर आओ–साहब ने जोर देकर कहा तो हरिया उनके बिल्कुल पास जा खड़ा हुआ।
अच्छी पगार है तुम्हारी–कपड़े साफ–सुथरे पहना करो, धोते नहीं क्या इन्हें? ये लो–इससे साबुन खरीद लेना– आइंदा जब आओ तो कपड़े धुले होने चाहिए। कह कर साहब ने पचास का नोट उसे थमा दिया।
हरिया को कुछ नहीं सूझा। वह साहब के पाँव पकड़ कर बोला।-साहब आपके नाम पर बड़े बाबू हर वर्ष मुझसे पैसे ऐठते रहे। आप तो देवता आदमी हैं -कहते हुए उसकी आँखें भर आईं।
दफ़्तर से बाहर निकलते हुए हरिया सोच रहा था- काश! वह पहले ही बड़े साहब से मिला होता। कही–सुनी बातें सुन कर अपना नुकसान करता रहा था।
उधर दफ़्तर में बैठे–बैठे बड़े साहब सोच रहे थे–काश! ये हरिया और हरिया जैसे न जाने कितने सीधे उस तक पहुँच पाते। न जाने ऐसा कब तक चलता रहेगा?
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