जैसे-जैसे संचार-क्रांति विकास पाती जा रही है लघुआकारीय रचनाएँ अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिक होती जा रही हैं। यों तो हिन्दी-लघुकथा के विकास में अनेक मोड़ आ, जहाँ लघुकथा ने कुछ नया रूप लिया। नवें दशक के मध्य से लघुकथा ने एक बड़ा जोखिम उठाया था कि चार-पाँच या सात-आठ पंक्तियों के आकार से उसने कुछ विस्तार पाने के साथ व्यंग्यात्मकता की अनिवार्यता से पिंड छुड़ाकर स्वयं में संवेदनात्मकता को समेटना शुरू किया। यह जोखिम काफी फल रहा और आज इसी कारण लघुकथा अन्य विधाओं के समक्ष ससम्मान खड़ी होने में सफल हो सकी है।
इस काल में लघुकथा को साहित्य-द्वार तक पहुँचने का शॉर्ट-कट समझने वाले शनैः शनैः पलायन करते गए और गुरु-गंभीर कथाकार जैसे- डॉ सतीश दुबे, रमेश बतरा, जगदीश कश्यप, बलराम अग्रवाल, डॉ सतीशराज पुष्करणा, विक्रम सोनी, सुकेश साहनी, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, डॉ कमल चोपड़ा इत्यादि लोग क्रमशः गंभीर होते गए और इन लोगों ने एक-से-बढ़कर एक श्रेष्ठ लघुकथाएँ देकर लघुकथा को पर्याप्त समृद्धि प्रदान की। इन सभी लोगों की अनेक-अनेक रचनाएँ प्रायः मुझे आकर्षित करती रही हैं और मुझे आलोचना-कर्म हेतु उकसाती भी रही हैं। जब बात मात्र दो लघुकथाओं के चुनाव की हो, तब थोड़ी द्विविधा तो अवश्य हो जाती है। लेकिन फिर भी दो लघुकथाओं में डॉ॰ सतीशराज पुष्करणा की लघुकथा ‘जीवन-संघर्ष’ एवं रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की लघुकथा ‘खुशबू’ ने मुझे बार-बार आकर्षित किया है और बार-बार सोचने हेतु विवश किया है। ये दोनों लघुकथाएँ प्रत्येक दृष्टिकोण से आपस में नितान्त भिन्न हैं, अतः इनमें तुलना का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। इनके पसंद आने एवं दिल में उतर जाने के अन्य अलग-अलग कारण हैं, किन्तु दोनों में एक सामान्य कारण इनकी संवेदनात्मकता सहज ही हृदय-स्पर्श कर जाती है।
‘जीवन-संघर्ष’ में मध्यवर्गीय लेखक की सिद्धान्तवादिता तथा उसके आत्मगौरव की रक्षा करते हुए भी सभी पात्रों का सूक्ष्म मनोविश्लेषण प्रस्तुत हुआ है जिसमें कहीं भी किसी को मनोचिकित्सक की केस-डायरी पढ़ने जैसा एहसास नहीं होता। इस लघुकथा का महत्त्व या मेरी पसंद होने का मुख्य कारण यह नहीं है कि उसकी बुनावट में ताना यथार्थ का और बाना आदर्श का है, अपितु मेरी पसंद का मुख्य कारण इस बात में है कि इसमें सभी पात्रों का सूक्ष्म मनोविश्लेषण इस सहजता से किया गया है कि इस लघुकथा में इस उत्कृष्टता तक निखार आ गया है कि शिल्प की दृष्टि से यह लघुकथा पांक्तेय बन गई है और चर्चा करने हेतु बरबस विवश करती है। उदाहरणार्थ निम्नलिखित व्याख्या सापेक्ष पंक्तियों का अवलोकन किया जा सकता है- ‘‘वह क्रोध एवं ईर्ष्या से भर उठा और एक झटके से पानी भरा मग सिर पर उलट लिया.....एक क्षण रुका और फिर तीन-चार मग अपने शरीर पर उलट लिये और वह बदन पर साबुन रगड़ने लगा। लगा जैसे ग़रीबी का मैल छुड़ाने हेतु संघर्ष कर रहा है।’’
इस लघुकथा को बार-बार पढ़ते समय मुझे प्रेमचंद की यह उक्ति सहज ही स्मरण हो आती है -सब से उत्तम होता है, जिसका आधर किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर आधरित हो ।यह ‘जीवन-संघर्ष’ मनोवैज्ञानिक सत्य इतने श्रेष्ठ ढंग से प्रस्तुत हुआ है कि एडलर का कथन भी सत्य प्रतीत होने लगता है फ्अहं स्थापना की इच्छा, और जीवन के यथार्थ का विरोध ही मानसिक जीवन की मुख्य समस्या है, यह इच्छा जीवन के तीन क्षेत्रों में व्यक्त होती है, समाज व्यवसाय और विवाह । डॉ पुष्करणा की लघुकथा ‘जीवन-संघर्ष’ में यथार्थ संघर्ष के कारण व्यक्ति के आत्म-स्थापना को संतोष नहीं मिल पाता और उसमें हीन भावना विकसित हो जाती है । इस भावना से मुक्ति पाने हेतु व्यक्ति प्रयत्न करता है । इसका दमन करता है । दमन के परिणाम स्वरूप कुछ व्यक्तियों में अत्यधिक गर्व आ जाता है, जिसे हम हीनत्व-कुंठा का कपट-रूप मान सकते हैं । इस अहं स्थापना के मूल सिद्धान्त को इस लघुकथा-सृजन में डॉ पुष्करणा ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक विन्यस्त किया है ।
जहाँ तक शिल्प की बात है तो प्रतीकों के माध्यम से डॉ पुष्करणा ने नायक के संघर्ष को स्नान-घर में नायक को स्नान करते हुए दिखाया उसमें भी काफी महीनता से मग द्वारा पानी डालने तथा साबुन को उतारने का बहुत ही कुशलता से प्रयोग किया है । लघुकथा-सृजन में ऐसा कौशल बहुत ही कम लघुकथाओं में देखने-पढ़ने को मिलता है ।
‘जीवन-संघर्ष’ शीर्षक इतना सटीक है कि इससे बेहतर इसका दूसरा शीर्षक हो ही नहीं सकता, कारण यह शीर्षक लघुकथा से अलग न होकर उसका अभिन्न अंग बनकर उभरा है। अन्य कारणों के साथ-साथ मेरी पसंद का एक कारण यह भी है कि इस लघुकथा में आदर्शात्मक-आदेशात्मक संदेश स्पष्ट होते हुए भी स्वाभाविक तौर पर इस तरह विन्यस्त हो गया है कि जैसे सही अनुपात में दूध में चीनी। इन्हीं कतिपय कारणों से यह मेरी पसंद की एक श्रेष्ठ लघुकथा है।
मेरी पसंद की दूसरी लघुकथा चर्चित लघुकथाकार रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की ‘खुशबू’ है जो मेरी दृष्टि में अस्तित्वबोध की में सबसे मुखर लघुकथा है। दो भाइयों के जीवन-निर्माण हेतु अपने जीवन और अपनी जवानी को होम कर देने वाली शाहीन अपने भाइयों द्वारा उपेक्षित होकर अकेलेपन की उदासी में घिर जाती है। और वही उदास शाहीन जब अपने विद्यालय पहुँचती है तो अपनी बेटी-सी छात्रा द्वारा उपहार स्वरूप गुलाब का फूल पाकर खिल उठती है। दरअसल जब व्यक्ति अपने सगे-संबंधियों या अपने व्यक्तिगत जीवन के सुखों के प्रति मोह को त्याग देता है ;बेशक यह त्याग परिस्थितिजन्य ही हो; तथा एक बृहत् परिवार से, समाज से मुड़ जाता है, तब जो स्नेह का स्थायी सोता फूटता है वह व्यक्ति को प्राणवंत एवं अस्तित्ववान् बना देता है। दार्शनिक पृष्ठभूमि पर सृजित यह लघुकथा भी मुझे बार-बार अपने होने का एहसास कराती रहती है।
हमारे आर्ष ग्रंथों में अनेक स्थानों पर इस बात को रेखांकित किया है कि नारी-जाति स्नेह और सौजन्य की देवी है, यह नर-पशु को मनुष्य बनाती है, वाणी से जीवन को अमृतमय बनाती है, उसके नेत्रा में आनन्द का दर्शन होता है । वह संतृप्त हृदय की शीतल छाया है, उसके हास्य में निराशा मिटाने की अपूर्व शक्ति है । ‘खुशबू’ लघुकथा में ‘हिमांशु’ जी ने वस्तुतः इसी दर्शन को बहुत ही सलीके से प्रस्तुत करने में सफलता प्राप्त की है, जोकि एक असाधारण कार्य था, जिसे हिमांशु जी ने बहुत खूबसूरती से अंजाम दिया । इतना ही नहीं, इस कथा यानी ‘खुशबू’ की नायिका शाहीन वस्तुतः सही अर्थों में आर्ष ग्रंथों में वर्णित नारी-स्वरूप की सुन्दर प्रतिनिधित्व करती है । आर्ष ग्रंथों में लिखा है कि नारी बड़े-से-बड़े दुख भी होठों पर मुस्कुराहट लेकर सह लेती है । अपने इन्हीं आदर्शों के कारण आज नारी दुखी है । नारी समपर्ण में विश्वास करती है । ‘खुशबू’ की नायिका आर्ष ग्रंथों के वचनों को यथार्थ के धरातल पर सार्थकता प्रदान करती है । इस लघुकथा को पसंद करने का सबसे बड़ा कारण यह है कि नारी का ऐसा स्वरूप कम ही लघुकथाओं में देखने को मिलता है ।
शिल्प की दृष्टि से जब मैं सोचता हूँ तो इसका अंतिम पैराग्राफ़ अपनी सटीक भाषा-शैली के कारण अपनी स्थायी स्मृति बनाये रखता है, देखें ! गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी। वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रही थी। उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने हेतु गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ़ तेज़ी से बढ़ गयी।
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1. जीवन-संघर्ष
डॉ सतीशराज पुष्करणा
आज फिर सुबह वह हताश लौटा। हृदय में व्यथा और मस्तिष्क में तनाव लिये वह घर में किसी से भी बात करने के मूड में नहीं था। घर में दोनों बहनें भी आई हुई थीं। बहनोई भी थे।
उसने कपड़े उतारते हुए स्नान की तैयारी आरम्भ कर दी। पत्नी ने पूछा, ‘‘बात बनी?’’
‘नहीं! अभी तक तो कोई सूरत नहीं निकली।’’ धीमे स्वर में कहकर वह बाथरूम में घुस गया और भीतर से दरवाज़ा बंद कर लिया। किन्तु उसके कान बहन-बहनोइयों में हो रहे वार्त्तालाप की ओर लगे थे।
‘‘भैया जैसा सोचते हैं...... उस हिसाब से कहीं मकान मिला है!’’ यह बड़ी बहन थी।
‘‘भैया थोड़ी हिम्मत और दिखाएँ तो बीस लाख में तीन कमरे वाला ठीक-ठाक फ़्लैट तो मैं दिला दे सकता हूँ।’’ यह छोटा बहनोई था।
यह संवाद कान में पड़ते ही उसका मन हुआ कि वह उसी समय बाथरूम से बाहर निकले और छोटे बहनोई का मुँह नोच ले। सूअर कहीं का ! यदि इतना पल्ले होता तो मैं नहीं खरीद सकता था। मैं क्या मूर्ख हूँ। .... वह नहीं, हराम का पैसा बोल रहा है....... बड़ा बाबू है न ....... टनाटन बरसता है सीट पर ही .......... वह तो बोलेगा ही।’’ वह क्रोध एवं ईर्ष्या से भर उठा और एक झटके से पानी भरा मग सिर पर उलट लिया और बदन पर साबुन रगड़ने लगा। लगा जैसे ग़रीबी का मैल छुड़ाने हेतु संघर्ष कर रहा है। उसके कान पुनः बाहर चल रही वार्त्ता की ओर सतर्क हो गए।
‘‘आज पैसे का ही बोलबाला है। सरकार भी पैसे की भाषा बोलती है। केवल लेखन से क्या होगा ...... जुगाड़ बिना कुछ नहीं होगा।’’ यह बड़ा बहनोई था।
साबुन रगड़ते उसके हाथ रुक गए ...... घुटकर रह गया। यह कॉलेज की कक्षा नहीं है। जिन बातों के विरोध में उसकी कलम चलती है .......वही काम वह स्वयं करे ......यह नहीं हो सकता। लेक्चर देने से काम नहीं होगा .....जीवन के यथार्थ को समझना होगा। आदमी के कुछ अपने भी तो आदर्श होते हैं ......उससे मकान खरीदा जाए....या न खरीदा जाए, मगर वह ऐसा कुछ नहीं करेगा कि अपनी नज़रों से ही गिर जाए।
पानी के मग फिर बदन पर डालने लगा। साबुन बदन से उतरने लगा। उसने राहत महसूस की।
‘‘ऐसी बात नहीं है ....रास्ता निकल आएगा, हर आदमी की अपनी-अपनी परिस्थितियाँ होती हैं......अपनी-अपनी समस्याएँ होती हैं। जो व्यक्ति जिम्मेदारियों से पलायन न करके जूझने में विश्वास करते हैं...उन्हें मंज़िल देर से ही सही, मगर मिलती ज़रूर है। मुझे अपने पति पर न केवल विश्वास है ....बल्कि गर्व भी है।’’ यह उसकी पत्नी थी।
पत्नी के संवाद सुनकर उसका चेहरा खिल उठा। उसका मन हुआ कि पत्नी को बाँहों मं भर ले। अब तक वह तौलिये से अपना बदन पोंछकर कपड़े बदलने लगा। वह किसी ताजे़ फूल की तरह फेश हो गया था।
उधर पत्नी के संवाद ने सभी के मुँह पर ताले जड़ दिए थे। उसने बाहर आते हुए सभी के चेहरों पर खिली हुई दृष्टि डाली। सभी उसे लज्जित से लग रहे थे।
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रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
अब घर में बूढ़ी माँ है और जवानी के पड़ाव को पीछे छोड़ने को मजबूर वह । खूबसूरत चेहरे पर सिलवटें पड़ने लगीं । कनपटी के पास कुछ सफ़ेद बाल भी झलकने लगे । आईने में चेहरा देखते ही शाहीन के मन में एक हूक-सी उठी !कितनी अकेली हो गई है मेरी ज़िन्दगी ! किस बीहड़ में खो गए मिठास भरे सपने !
भाइयों की चिट्ठियाँ कभी-कभार ही आती हैं । दोनों अपनी गृहस्थी में ही डूबे रहते हैं । उदासी की हालत में वह भी पत्रा-व्यवहार बंद कर चुकी है । सोचते-सोचते शाहीन उद्वेलित हो उठी है । आँखों में आँसू भर आए । आज स्कूल जाने का भी मन नहीं था । घर में भी रहे तो माँ की हाय-तौबा कहाँ तक सुने !
उसने आँखें पोंछी और रिक्शा से उतर कर अपने शरीर को ठेलते हुए गेट की तरफ कदम बढ़ाए । पहली घंटी बज चुकी थी । तभी ‘दीदी जी !दीदी जी ! की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ ।
‘दीदी जी, यह फूल मैं आपके लिए लाई हूँ’-दूसरी कक्षा की एक लड़की हाथ में गुलाब का फूल लिये उसकी तरफ बढ़ी ।
शाहीन की दृष्टि उसके चेहरे पर गई-वह मंद-मंद मुस्करा रही थी । उसने गुलाब का फूल शाहीन की तरफ बढ़ा दिया । शाहीन ने गुलाब का फूल उसके हाथ से लेकर उसके गाल थपथपा दिये ।
गुलाब की खुशबू उसके नथुनों में समाती जा रही थी । वह स्वयं को इस समय बहुत हल्का महसूस कर रही थी । उसने रजिस्टर उठाया और उपस्थिति लेने के लिए गुनगुनाती हुई कक्षा की तरफ तेज़ी से बढ़ गयी ।
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