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मेरी पसंद - भूपालसूद

भूपालसूद

बात कहाँ से शुरू करूँ, समझ नहीं पा रहा। निर्देश हुआ है किअपनी पसन्द की दो लघुकथाओं का चयन करूँ। लघुकथा के अपारभंडार में से सिर्फ़ दो लघुकथाओं का चयन लगभग असंभव कार्य है।फिर भी निर्देश है, तो करना ही है।अयन प्रकाशन पिछले लगभग 35 वर्षों से पुस्तक प्रकाशन क्षेत्र मेंकार्यशील है। लघुकथा की अधिकतम पुस्तकें हमारे इस प्रकाशन सेप्रकाशित हुई हैं। सभी पुस्तकें मुझे संतानवत् प्रिय रही हैं। मेरे पसंदीदालेखकों में सर्वश्री सुकेश साहनी, कमल चोपड़ा, युगल, सतीशराजपुष्करणा, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, बलराम अगवाल, जगदीश कश्यपआदि अनेक लघुकथाकार रहे हैं;परन्तु यहाँ दो रचनाओं की सीमा होनेके कारण वही दो लघुकथाएँ चयनित की हैं, जिन्होंने अपनी कथावस्तुऔर गुणवत्ता के कारण मेरे मन और मस्तिष्क में अपना स्थान बनायाहै।निर्देश तो यह भी है कि यह भी लिखूँ कि ये मुझे ये रचनाएँ क्योंपसंद है, पर यह कार्य शायद मैं नहीं कर पाऊँगा। मेरी दृष्टि से यहकाम आलोचकों और समीक्षकों का है। लघुकथा के साथ दिक्कत यहभी रही है कि इतनी जन-जन में लोकप्रिय होने पर भी अपने लिएसमीक्षक नहीं ढूँढ पाई। फिर भी सामान्य पाठक की दृष्टि से मैं इतना
ही कहूँगा कि जो रचना अपने शिल्प, कथानक, शब्द विन्यास के कारणपाठक के मन में अपनी जगह बनाती है, और उसे स्मरण रहती है, वहीश्रेष्ठ रचना है।
           ठण्डीरज़ाईएकसकारात्मकलघुकथाहै ,
जोहमारीरोज़मर्राकीज़िन्दगीसेजुड़ीहै।इसलघुकथामेंसुशीलाकीविवशताहैतोपति -
पत्नीद्वारादिखायागयाउपेक्षाभावभीहै,
जिसकीपरिणतिरजाईनदेनेमेंहोतीहै।एकबारकोलगताहैकिपति-पत्नीनिष्ठुरस्वभावकेहैं; लेकिनरज़ाईदेनेसेइन्कारकरनाउनकास्थायीभावनहींहै।मनाकरनेपरदोनोंबेचैनीमहसूसकरतेहैं।
दोनोंकीयहबेचैनीसुशीलाकोरज़ाईदेनेपरहीदूरहोतीहै।पति-
पत्नीकेमनोविज्ञानकाविश्लेषणकियाजाएतोवेसामान्यव्यक्तिहैं ,
उसीसामान्यव्यक्तिमेंएकविशिष्टव्यक्तिभीछुपाहै, परपीड़ासेद्रवितहोनेवाला।यहीठण्डीरज़ाई
(ठण्डेस्वभाव) सेनिकलकरगर्माहटदेनेवालारूपहै।
‘पेटकाकछुआ’ कापूराघटनाक्रमआर्थिकविपन्नताकीपरिणतिकोचित्रितकरताहै।समस्याकानिदाननकरके
समस्याकोहीजीविकाकारूपदेदेना,पीड़ासेछटपटानाविवशताजन्यकरुणाकोजन्मदेताहै।इसलघुकथाका
एक-एकवाक्यपाठककेमनकोमथदेताहै।
दोनोंलघुकथाएँअपनेकथ्यऔरप्रस्तुतिदोनोंहीकारणोंसेअविस्मरणीयबनगईहैं।

ठंडी रजाई-
सुकेशसाहनी

“कौन था ?” उसने अँगीठी की ओर हाथ फैलाकर तापते हुए पूछा ।
“वही, सामने वालों के यहाँ से,” पत्नी ने कुढ़कर सुशीला की नकल उतारी, “बहन, रजाई दे दो, इनके दोस्त आए हैं।” फिर रजाई ओढ़ते हुए बड़बड़ाई, “इन्हें रोज़-रोज़ रजाई माँगते शर्म नहीं आती। मैंने तो साफ मना कर दिया- आज हमारे यहाँ भी कोई आने वाला है।”
“ठीक किया।” वह भी रजाई में दुबकते हुए बोला, “इन लोगों का यही इलाज है ।”
“बहुत ठंड है!” वह बड़बड़ाया।
“मेरे अपने हाथ-पैर सुन्न हुए जा रहे हैं।” पत्नी ने अपनी चारपाई को दहकती अँगीठी के और नज़दीक घसीटते हुए कहा ।
“रजाई तो जैसे बिल्कुल बर्फ हो रही है, नींद आए भी तो कैसे!” वह करवट बदलते हुए बोला ।
“नींद का तो पता ही नहीं है!” पत्नी ने कहा, “इस ठंड में मेरी रजाई भी बेअसर सी हो गई है ।”
जब काफी देर तक नींद नहीं आई तो वे दोनों उठकर बैठ गए और अँगीठी पर हाथ तापने लगे।
“एक बात कहूँ, बुरा तो नहीं मानोगी?” पति ने कहा।
“कैसी बात करते हो?”
“आज जबदस्त ठंड है, सामने वालों के यहाँ मेहमान भी आए हैं। ऐसे में रजाई के बगैर काफी परेशानी हो रही होगी।”
“हाँ,तो?” उसने आशाभरी नज़रों से पति की ओर देखा ।
“मैं सोच रहा था---मेरा मतलब यह था कि---हमारे यहाँ एक रजाई फालतू ही तो पड़ी है।”
“तुमने तो मेरे मन की बात कह दी, एक दिन के इस्तेमाल से रजाई घिस थोड़े ही जाएगी,” वह उछलकर खड़ी हो गई, “मैं अभी सुशीला को रजाई दे आती हूँ।”
वह सुशीला को रजाई देकर लौटी तो उसने हैरानी से देखा, वह उसी ठंडी रजाई में घोड़े बेचकर सो रहा था । वह भी जम्हाइयाँ लेती हुई अपने बिस्तर में घुस गई । उसे सुखद आश्चर्य हुआ, रजाई काफी गर्म थी।

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पेट का कछुआ- युगल
गरीब बन्ने का बारह साल का लड़का पेट–दर्द से परेशान था और शरीर से बहुत कमजोर होता गया था। टोना–टोटका और घरेलू इलाज के बावजूद हालत बिगड़ती गई थी। दर्द उठता तो लड़का चीखना, और मां–बाप की आंखों में आंसू आ जाते। एक रात जब लड़का ज्यादा बदहवास हुआ, तो मां ने बन्ने को बच्चे का पेट दिखलाया। बन्ने को देखा–छोटा कछुए के आकार–सा कुछ पेट के अन्दर से थोड़ा उठा हुआ है और हिल रहा है। गांव के डॉक्टर ने भी हैरत से देखा और सलाह दी कि लड़के को शहर को अस्पताल में ले जाओ।
बन्ने पत्नी के जेवर बेच लड़के को शहर ले आया। अस्पताल के सर्जन को भी अचरज हुआ–पेट में कछुआ! सर्जन ने जब पेट को ऊपर से दबाया तो कछुए–जैसी वह चीज इधर–उधर होने लगी और लड़के के पेट का दर्द बर्दाश्त के बाहर हो गया। सर्जन ने बतलाया–‘‘लड़के को बचाना है, तो प्राइवेट से आपरेशन के लिए दो हजार रुपए का इन्तजाम करो।’’
दो हजार! बन्ने की आंखें चौंधियां गई। दो क्षण साँस ऊपर ही अटकी रह गई। न! लड़के को वह कभी नहीं बचा सकेगा। उसे जिस्म की ताकत चुकती लगी। वह बेटे को लेकर अस्पताल के बाहर आ गया और सड़क के किनारे बैठ गया।
लड़के को कराहता देखकर किसी ने सहानुभूति से पूछा–‘‘क्या हुआ है?’’
बन्ने बोला–‘‘पेट में कछुआ है साहब!’’
‘‘पेट में कछुआ?’’ मुसाफिर को अचरज हुआ।
‘‘हां साहब! कई महीनों से है।’’ और बन्ने ने लड़के का पेट दिखलाया। पेट पर उँगलियों का टहोका दिया, तो वह कछुए–जैसी चीज ज़रा हिली। बन्ने का गला भर गया–‘‘आपरेशन होगा साहब! डॉक्टर दो हजार माँगता है। मैं गरीब आदमी....’’ और वह रो पड़ा।
तब कई लोग वहाँ खड़े हो गए थे। उस मुसाफिर ने दो रूपए के नोट निकाले और कहा–‘‘चन्दा से इकट्ठा कर लो और लड़के का आपरेशन करा लो।’’
फिर कई लोगों ने एक–एक दो–दो रुपए और दिए। जो सुनता टिक जाता–पेट में कछुआ?...हां जी चलता है...चलाओ तो!
बन्ने लड़के के पेट पर उँगलियों से ठोकर देता। कछुआ हिलता। लड़के के पेट का दर्द आँखों में उभर आता। लोग एक, दो या पाँच के नोट उसकी ओर फेंकते–‘‘आपरेशन करा लो भाई। शायद लड़का बच जाए!’’
सांझ तक बन्ने के अधकु‍र्ते की जेब में नोट और आँखों में आशा की चमक भर गई थी।
अगले दिन बन्ने उस बड़े शहर के दूसरे छोर पर चला गया। वह लड़के के पेट पर टकोरा मारता। पेट के अन्दर का कछुआ ज़रा हिलता। लोग प्रकृति के इस मखौल पर चमत्कृत होते और रुपए देते। बन्ने दस दिनों तक उस शहर के इस नुक्कड़ से उस नुक्कड़ पर पेट के कछुए का तमाशा दिखलाता रहा और लोग रुपए देते रहे। बीच में लड़के की मां बेटे को देखने आती। बन्ने उसे रुपए थमा देता।
लड़के ने पूछा–‘‘बाबू, आपरेशन कब होगा?’’
बन्ने बोला–‘‘हम लोग दूसरे शहर में जाकर रुपए इकट्ठे करेंगे।’’ फिर कुछ सोचता हुआ बोला–‘‘मुन्ने, तेरा क्या खयाल है कि पेट चीरा जाकर भी तू बच जाएगा? डॉक्टर भगवान तो नहीं। थोड़ा दर्द ही होता है न? बर्दाश्त करता चल। यों जिन्दा तो है। मरने से कित्ती देर लगती है? असल तो जीना है।’
लड़का कराहने लगा। उसके पेट का कछुआ चलने लगा था।


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