वर्ष 2013 में मुझे कुछ लघुकथाएँ पढ़ने का मौका मिला और मैं शुक्रगुज़ार हूँ 'अभिनव इमरोज़' पत्रिका की, जिसमें सर्वप्रथम मैंने फ़रवरी 2013 के अंक में कुछ लघुकथाएँ पढ़ी। उसके बाद सुकेश साहनी और रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' जी द्वारा सम्पादित ‘लघुकथाएँ जीवन मूल्यों की’ पढ़ी। मन प्रसन्न हो गया। नहीं पता था कि इन लघुकथाओं में ऐसा अद्भुत आस्वाद भी होगा , जिसके ख़त्म होते ही मन में कहीं एक अजीब- सी संतुष्टि का आभास होगा, कहीं किसी कोने में कुछ कर गुज़रने का एहसास, कुछ भूल सुधारने की तमन्ना .... तथा और भी विभिन्न सुखद अनुभूतियों से रू-ब-रू होने का अवसर मिलेगा ! नन्ही-मुन्नी सी कहानी जीवन के छोटे-छोटे लम्हों को एक नया जीवन सा देती हुई …तथा अपने-आप में कितनी आत्मीयता छुपाए हुए होतीं हैं..। सही कहा है , आदरणीय उर्मिल कुमार थपलियाल जी ने .... लघुकथा लिखना 'आईने से धूल पोंछने जैसा ' होता है।
पत्रिका की लगभग सभी लघुकथाएँ मुझे अत्यंत भाईं ,ऐसा लगा , जीवन के विविध रूप एक साथ मेरी आँखों के आगे आ गए ...! 'माँ का कमरा', 'जीवन सुख', 'बिछुड़े हुए', 'शर्ट', 'मुँहमाँगी मुराद', 'बंधन' इत्यादि ....लघुकथाओं में एक सकारात्मक सन्देश दिया गया । इसके अतिरिक्त कुछ भावुक कर देने वाली, झकझोर देने वाली लघुकथाएँ जैसे .... 'गोश्त की गंध', 'मानुस गंध', 'गोभोजन कथा', 'साँझा दर्द', 'पहचान' , 'दो बूँद ज़िन्दगी', 'अहं' , 'पहला वेतन', 'टेक केयर ', 'जन्मदिन' …… आदि पढ़कर दिल बहुत कुछ सोचने को विवश हुआ।
इनमें से मुझे दो लघुकथाएँ अत्यधिक पसंद आईं-'बंधन' एवं 'माँ का कमरा' दोनों ही समसामयिक विषयों पर आधारित हैं तथा दोनों में ही सोचने-समझने योग्य , विचारने योग्य ख़ूबसूरत सन्देश निहित हैं। बहुत ही सहज ढंग से दोनों लघुकथाकारों ने अपने दिल की बात अपने पात्रों के ज़रिये पाठकों तक पहुँचाई है।
-0-
हमारे समाज रूढ़िवादी संस्कार एवं बंधन कुछ इस क़दर हमें जकड़े हुए हैं कि हम जान-समझकर भी उनसे अपने-आप को मुक्त नहीं कर पाते , भले ही प्रेम व अपनत्व का स्वतन्त्र आकाश ही हमें क्यों न मिल जाए। 'बंधन' लघुकथा भी समाज के ऐसे ही ढकोसलों में फँसे अपने जीवन के सुख ढूँढने वाले दो घनिष्ठ मित्रों के परिवारों की है। कथाकार ने बहुत ही खूबसूरती के साथ इस कथा का ताना-बाना पिरोया है।
दो मित्र हैं … जिनकी मित्रता एक मिसाल के रूप में पूरे शहर में विख्यात थी। वे इस सुन्दर, पवित्र दोस्ती को और प्रगाढ़ बनाने के लिए इसे रिश्तेदारी में बदलने की सोचते हैं और अपने बच्चों का आपस में वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित करते हैं। सम्बन्धों के इसी मोड़ पर हमारे समाज के कुरूप, रूढ़िवादी मुखौटे उनकी सुन्दर, पवित्र दोस्ती का चेहरा ढँक लेते हैं। अच्छे, सच्चे, अभिन्न मित्रों से वे दोनों 'लड़के वाले' व 'लड़की वाले' बन जाते हैं। 'लड़की वाले' मित्र की पत्नी खुद को नीचा समझने लगती है 'सिर पर लिए दुपट्टा ठीक करते हुए' तथा 'लड़के वाले मित्र की पत्नी अपनी 'रेशमी साड़ी का पल्ला लहराते हुए' खुद को ऊँचा ! इस जगह दुःख की बात ये लगती है कि सभी जानते हैं कि इस 'असमानता' का सीधा प्रभाव हमारे समाज में एक लड़की या स्त्री पर पड़ता है , क्योंकि ससुराल में वही प्रताड़ित होती है … फिर भी, दोनों परिवारों में पत्नियाँ ही ऐसी ओछी मानसिकता का प्रदर्शन करतीं हैं , उसे बढ़ावा देती हैं , जबकि उन्हें ऐसी बातों का विरोध करना चाहिए। पुरुषों को इस मामले में थोडा उदार दिखाया है … क्योंकि उन मित्रों को अपनी दोस्ती ही याद थी। मगर साथ ही कथाकार ने.... पुरुष वर्ग को लापरवाह भी दिखाया है। तभी तो वे अपनी-अपनी पत्नियों से सहमत भी हो जाते हैं। पत्नी के कहने से सूट पहनता है ! 'लड़के वाले' होने से एक अहं भाव उसमें भी आ जाता है तभी तो वो 'मूँछे उमेठता' है! यहाँ पर पति अगर ज़रा सा भी अपना पौरुष दिखाते और अपनी पत्नियों को ऐसा असमान व्यवहार करने से रोकते या रोकने कि कोशिश करते.... तो आज हमारे समाज की स्थिति शायद कुछ और ही होती। शायद इसीलिए कि हमारे समाज के अधिकतर परिवारों में घर के अंदरूनी मामलों में पत्नियों का ही एकाधिकार है, या तो पुरुषों को उसमें हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं, या फिर पुरुष कलह से बचने के लिए इन झंझटों में पड़ने से बचते हैं। और पत्नियों के कह देने भर से ही उनके मन में भी वही फ़र्क़ की दीवार खड़ी हो जाती है … तभी तो 'शगुन-व्यवहार की रस्मों के बाद उनके गले मिलने में वह दोस्ती वाली गर्माहट' महसूस नहीं होती .... क्योंकि उस पर समाज के रूढ़िवादी ढकोसलों की धूल जम चुकी है। जो बात दिल में होती है वही भाषा हमारा शरीर बोलता है (बॉडी लैंग्वेज)। .... इसको कथाकार ने बहुत ही सहज तरीक़े से रिश्ता होने के बाद दोनों मित्रों के गले मिलने वाले उपर्युक्त वाक्य में समझा दिया। जो दोस्ती एक नए रिश्ते की नींव रखने कि वजह बनती है … वही दोस्ती ये रिश्ता होने पर अपनी गरमाहट खो देती है।
कथाकार ने इस लघुकथा के माध्यम से हमें, हमारे समाज की कुरीतियों को दर्पण दिखाया है एवं साथ ही साथ यह सन्देश भी दिया है कि दोस्ती से ज़यादा सुन्दर कोई रिश्ता नहीं होता। इसमें दो लोग निस्वार्थ भाव से प्रेमपूर्वक आजन्म जुड़े रह सकते हैं। उसके अनुसार रिश्ता जुड़ते ही 'अपेक्षाएँ' उत्पन्न हो जाती हैं …अब ये हमारे ऊपर निर्भर है कि या तो इंसान होने के कारण हम इन अपेक्षाओं पर विजय प्राप्त करें या फिर इंसान होने के कारण हम इनके वश में हो जाएँ।
आजकल का सबसे अधिक व्यथित कर देने वाला मुद्दा वृद्ध माता-पिता का उनके बच्चों के रहते अकेला होना, कष्ट उठाना, अपमान सहना व बच्चों का उनके प्रति दुर्व्यवहार सहना बन गया है। हर तरफ़ से कानों में बस उनकी व्यथा ही गूँजती है। लघुकथा 'माँ का कमरा' उस नुकीले काँटों जैसी घटनाओं एवं परिस्थितियों की शय्या पर नर्म, सुगन्धित फूलों के बिछौने -सी है। 'आह आह..... ' के माहौल में 'अह्हा …' सा सुक़ून है।
यह कथा है एक पुत्र के अपनी माँ के प्रति प्रेम व कर्तव्यों के अधिकारपूर्वक निर्वहन की। कथा का ताना-बाना माँ के मन की ऊहापोह एवं माँ-बेटे की आपसी समझ, स्नेह तथा विश्वास को दर्शाते हुए बुना गया है।
अपने 'छोटे से पुश्तैनी मकान' में रह रही वृद्धा माँ बसंती को दूर शहर में रहने वाले अपने पुत्र का पत्र मिलता है जिसमें पुत्र का एक 'अधिकार भरा आग्रह' होता है कि उसकी माँ यानी बसंती अब उसके साथ आकर रहे ;क्योंकि अब उसे 'एक बड़ी कोठी' मिल गई है जहाँ उसकी माँ को कोई तक़लीफ़ नहीं होगी। (यहाँ यह महसूस होता है कि पुत्र को अपनी माँ की तक़लीफ़ों का पूरा एहसास है, और अब वह उसे आराम देना चाहता है!) माँ का अपना आस-पड़ोस है, अपनी सखियाँ हैं जो बच्चों द्वारा किये गए दुर्व्यहार से पीड़ित हैं तथा जिनका अब बच्चों से ही विश्वास उठ गया है। ऐसी ही एक सखी रेश्मा को जब पुत्र के द्वारा बसंती को भेजे हुए पत्र का पता चलता है, तो वह उसे आजकल माँ-बाप की पुत्र एवं पुत्रवधू के हाथों होती दुर्दशा का हवाला देते हुए सावधान करती है और उसे पुत्र के पास जाने से मना करती है। परन्तु बसंती एक समझदार माँ है, जो सुनी-सुनाई बातों पर यक़ीन न करके अपना ख़ुद का एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखती है। वह परिस्थितियों के आगे समर्पण नहीं करती ,वरन अच्छी तरह सोच-समझकर, नाप-तौल कर व्यावहारिक दृष्टि से ही कोई क़दम उठाती है। अगले दिन जब पुत्र उसे लेने आता है तो उसके अनुरोध पर वह चुपचाप उसके साथ उसकी गाड़ी में बैठ जाती है .... यह सोचकर कि 'जो होगा देखा जाएगा' !
माँ में कितना संयम होता है! वह हर स्थिति में सब्र के साथ सोच-समझकर ही कोई फैसला लेती है -यह बात इस लघुकथा में बहुत ख़ूबसूरती के साथ उभरकर आती है।
माँ बेटे के साथ उसकी 'बड़ी सी कोठी' पर पहुँच जाती है। बेटा माँ को नौकर के हवाले करके चला जाता है ;क्योंकि उसे कुछ ज़रूरी काम होता है। बहू अपने काम पर तथा बच्चे स्कूल जा चुके होते हैं। यहाँ एक और बात देखने को मिलती है .... कि पुत्र एवं माँ बसंती दोनों ही खुले विचारों के हैं, संकीर्ण, दकियानूसी सोच से दूर। नहीं तो पहली बार पुत्र अपनी माँ को अपने घर ला रहा है, तो बहू को कम से कम उस दिन अपने काम पर न जाकर अपनी सास का स्वागत करने की अपेक्षा पुत्र एवं सास (बसंती) दोनों ही कर सकते थे। मगर इन माँ-पुत्र की दुनिया दिखावे में विश्वास न करके शुद्ध, सच्ची तथा पवित्र विचारधारा से परिपूर्ण थी ;जहाँ प्रेम, आदर, आपसी समझ, अधिकार सबकुछ अपने पावन रूप में भरपूर उपस्थित था …तथा किसी भी रिश्ते को फलने-फूलने के लिए ऐसे शुद्ध विचारों की खाद की ही आवश्यकता होती है।
पुत्र के जाने के बाद माँ उस आलीशान कोठी का उत्सुकतापूर्वक निरीक्षण करती है, साथ ही कोठी के तीनों कमरों में से किसका कौन सा कमरा है ये अंदाजा लगाती है-बहू-बेटे का कमरा, बच्चों का कमरा तथा मेहमानों का कमरा .... यहाँ तक कि वह पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरों को भी देख आती है! यह शायद रेशमा की कही बातों का असर था जो उसके मन में भय बनकर उसे आगे आने वाली परिस्थिति का सामना करने को तैयार कर रहा था। बच्चों के 'प्यार के मीठे बोलों' और 'दो जून की रोटी' के बदले वह मन ही मन नौकरों के कमरे के साथ भी समझौता कर लेती है।
यहाँ कथाकार ने .... एक माँ के स्वभाव की विशेषता, उसकी सुंदरता दर्शाते हुए... उसकी उच्च कोटि की सहनशीलता, बुरी से बुरी परिस्थिति में भी समझौता कर लेना, थोड़े से में ही संतुष्ट हो जाना अर्थात् बाहरी आडम्बरों में न उलझकर जीवन की आधारभूत आवश्यकताओं में ही अपने मन को तृप्त करना सीख लेना , जिससे घर में शान्ति बनी.रहे.... आदि गुणों का बहुत सुंदरता के साथ चित्रण किया है। इसके अतिरिक्त एक माँ को और चाहिए भी क्या भला।
कथा आगे बढ़ती है , माँ पूरी कोठी घूमने के बाद अंततः उस कमरे में आ जाती है जहाँ उसका सामान घर के नौकर ने रक्खा होता है। वह कमरा भी उसको बहुत पसंद आता है .... बड़ा सा कमरा, उसमें खूब बड़ा डबल बेड, उसपर नरम-नरम गद्दा बिछा हुआ, गुसलखाना, टी वी , टेप रिकॉर्डर इत्यादि सभी सुख-सुविधा की चीज़ें उपलब्ध थीं। माँ अपने मन में कोई ऐसी आस नहीं बाँधना चाहती थी शायद … जिससे कि उसको बाद में दुःख हो। इसी कारण से वह उस कमरे को अपना नहीं समझती और डर-डरकर बेड पर लेट जाती है। कहीं उसकी आँख लग जाए और बहू आकर उसे डाँटने न लगे … इस डर से वह तुरंत उठकर खड़ी भी हो गई। शाम को पुत्र घर वापस आता है तो बसंती उससे अपने कमरे में सामन रखवाने को कहती है। इसपर बेटा हैरान हो जाता है। उसको माँ के मन में चल रहे द्वन्द्व की शायद खबर भी नहीं थी। वह उसे बताता है कि जहाँ उसका सामान रक्खा है वही उसका कमरा है। इस बात पर माँ को विश्वास नहीं होता … कि डबल बेड वाला कमरा उसका हो सकता है … ! तब पुत्र उसे बड़े प्यार से समझाता है कि वह कमरा उसी का है, वो आराम से वहाँ रहेगी , टी वी देखते हुए, भजन सुनते हुए। उसके साथ उसके पोता-पोती भी सो जाएँगे। साथ ही जब उसकी बेटी यहाँ... अपने भाई के घर रहने आएगी ,तो वह भी अपनी माँ के साथ सो जाएगी ;क्योंकि उसे माँ के साथ सोना ही पसंद है। यह सब देख-सुनकर बसंती की आँखों में आँसू आ गए। उसके मन का द्वन्द्व मानों अब ख़त्म हो चुका था। ये आँसू ख़ुशी के थे।
इस प्रकार पुत्र ने प्रेमपूर्वक बड़ी ही सूझ-बूझ तथा बुद्धिमानी से अपने पूरे परिवार को एक छत के नीचे, एक साथ जोड़ लिया।
इस लघुकथा में कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं हुआ … कि पुत्र अपनी माँ बसंती के प्रति कर्त्तव्य को सिर्फ़ निभाने के लिए ही निभा रहा है … बल्कि उसकी दिली इच्छा यही है कि वह अपनी माँ को भरपूर सुख दे , आराम दे व कष्टरहित जीवन दे। उसके हर आग्रह में एक स्नेहभरा अधिकार छिपा हुआ है। आजकल के बच्चे जो अपने माता-पिता के प्रति कर्तव्यों से विमुख हो रहे हैं … उनके लिए यह लघुकथा एक सुन्दर उदाहरण है तथा हमारे समाज में इस समस्या के चलते हर ओर जो हाहाकार मचा हुआ है … यह लघुकथा उसपर आराम पहुँचाने एक नर्म फाहा है, एक ठण्डा लेप है।
-0-
आज सगाई का दिन है। होने वाले दोनों समधी घनिष्ठ मित्र हैं। उनकी मित्रता को सारा शहर जानता है।
“मित्रता हो तो इन जैसी, नहीं तो बिन मित्र ही भले।” कोई कहता।
“मित्र तो लगते ही नहीं, यूँ लगता है जैसे सगे भाई हों,” कोई अन्य कहता, “वे सदा गले लग कर मिलते हैं।”
पिछले दिनों जब ये मित्र मिले तो एक ने कहा, “यार, क्यों न हम अपनी मित्रता को रिश्ते में बदल लें।”
“तुमने तो मेरे दिल की बात कह दी।” दूसरे ने खुश होकर कहा था। और फिर रिश्ते की बात पक्की हो गई।
“आज उन्होंने आना है और आप अभी तक उठे ही नहीं।” बिस्तर पर लेटे पति से पहले मित्र की पत्नी ने कहा।
“फिर क्या हुआ, मेरा मित्र ही तो है!” वह आँखों को मसलता हुआ उठ कर बैठ गया।
“पहले बात और थी, अब हम लड़की वाले हैं।” पत्नी ने सिर पर लिया दुपट्टा ठीक करते हुए कहा।
“ठीक है, मैं तैयार होता हूँ, तुम बेटे को बाज़ार से सामान लाने के लिए भेजो।”
“यह क्या पहन लिया, कोई ढंग का सूट पहनो।” उधर दूसरे की पत्नी ने अपनी रेश्मी साड़ी का पल्ला लहराते हुए पति से कहा।
“वे कौनसा हमें भूले हैं, सब जानते हैं, फिर सूट का क्या है।”
“अब पहले वाली बात नहीं रही। हम लड़के वाले हैं।”
“ठीक है, ठीक है।” वह मूँछों को उमेठता हुआ बोला।
शगुन-व्यवहार की रस्मों के पश्चात् विदा होते वक्त दोनों मित्र गले मिले। दोनों को लगा कि उनकी मिलनी(झफ्फी) में पहले जैसी गर्मजोशी नहीं रही।
-0-