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मेरी पसंद - उर्मिला अग्रवाल
डॉ उर्मिला अग्रवाल

आज समाज की ओर दृष्टि करें तो एक ही चीज़ नज़र आती है, विषमता अमानवीयता, आत्मीयता का अभाव रिश्तों का खोखलापन,ढेर सी विडंबनाएँ क्या–क्या गिनाऊँ...और यही  सब साहित्य में अभिव्यक्त होता है जो स्वाभाविक भी है; क्योंकि साहित्यकार अपनी रचना के विषय जीवन से ही चुनता है और ये रचनाएँ मन को एक पीड़ा अवसाद और नकारात्मक भाव–बोध से भर जाती हैं।
ऐसे में यदि कोई ऐसी रचना पढ़ने को मिल जाए जो सकारात्मकता की ओर संकेत करती हो तो मन उल्लास से भर जाता है एक सुकून की साँस प्राणों में भर जाती है और ऐसा ही अहसास कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘छुपा हुआ दर्द’ को पढ़ते समय हुआ।
बेटे–बहू बहुत दिन बाद माता–पिता से मिलने आए हैं और माता–पिता हैं कि उनके पास बैठकर उनकी बातों का सुख अनुभव करने के स्थान पर इस चिन्ता में डूबे है कि इन शहरी बेटे–बहू को क्या खिलाया जाए ;क्योंकि घर में बेटे–बहू को खिलाने के लिए कुछ नहीं सिवाय मक्की के आटे और बासी साग के । पिता इधर–उधर उधार माँगने भी जाते है; पर इन्तजाम नहीं हो पाता....सास को यह भी चिंता है कि बहू के सामने अपना मान कैसे बचाए...बेटा और बहू माता और पिता की बात सुन लेते है ।बेटा सोचता है क्या करे कि माता–पिता का स्वाभिमान भी बचा रहे और समस्या भी हल हो जाए।
लघुकथा संवेदना को कई स्तरों पर स्पर्श करती है–माता–पिता इतनी तंगी में जीवन गुज़ार रहे हैं और बेटे–बहू को शीघ्र ही आभास हो जाता है कि माता–पिता को खुद्दारी ने बेटे–बहू को इस स्थिति से परिचित नहीं कराया और बेटा–बहू स्वयं भी बहुत सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं–यह बात इस एक वाक्य से ही स्पष्ट हो जाती है–‘हम ही कौन- सा वहाँ पुलाव खाते हैं–बस दाल- रोटी ही हो पाती है।’
यह लघुकथा मन में एक और भाव भी जगाती है कि बहुत दिन बाद आने वाले बेटा–बहू भी जैसे बेटा बहू न रहकर मेहमान हो जाते हैं । माँ की ममता बच्चों को कुछ अच्छा खिलाना चाहती है। यह बात तो सरलता से समझी जा सकती है; पर बहू के सामने मान बचाने की बात से उपजी माँ की पीड़ा मन को कहीं गहरे में स्पर्श करती हैं।
इस लधुकथा का सबसे सशक्त प़क्ष है बहू की समझदारी जो सास की कुछ अच्छा खिलाने की भावना को आहत होने से बचा लेती है। वह बड़ी आत्मीयता के साथ सास से कहती है–‘‘ माँ जी हम तो शहर से स्पेशली आप के हाथ की मक्की की रोटी खाने आए हैं  । साग एक दिन का बासी भी होगा तो चलेगा और हाँ घी–मक्खन मत डालिएगा, डॉक्टर ने हमें मना किया है।’’
बहू की बात सुनकर माँ के चेहरे पर आई खुशी केवल एक माँ  के चेहरे पर नहीं वरन् प्रत्येक पाठक के चेहरे पर आई खुशी है। जो मन में एक सोच को स्थान देती है कि अच्छाई अभी शेष है ,सब कुछ बुरा नहीं है, अभी भी दुनिया में ऐसे इन्सान है जो भावनाओं को सहला देते हैं, मान की रक्षा करते हैं और सुकून का अहसास कराते हैं।
लघुकथा की शास्त्रीय दृष्टि से समीक्षा हो सकता है बहुत से बिन्दुओं को लेकर चलती हो; परन्तु मेरी दृष्टि में किसी भी विधा की कोई भी रचना तभी अच्छी होती है; जब उसमें संप्रेषणीयता हो,बेकार के घुमाव- फिराव न हो और जो सीधे आपके हृदय को स्पर्श कर जाए। इस दृष्टि से कमला चोपड़ा की लघुकथा ‘छुपा हुआ दर्द’ बेहद हृदय–स्पर्शी प्रभावोत्पादक और एक सकारात्मक सोच को स्वर देती लघुकथा है।
मूल्य परिवर्तन के प्रश्न पर एक विचार–गोष्ठी में बोलते हुए डा. सूर्यप्रकाश दीक्षित ने कहा था, जब तक हम पाप और पुण्य को पुण्य कह रहे हैं ;तब तक मूल्य परिवर्तन कहाँ हुआ ;परन्तु सुधा गुप्ता जी की यह लघुकथा कुछ और ही कहती प्रतीत होती है।
आज के समाज की सबसे बड़ी विडंबना है कि जो व्यक्ति धर्मशास्त्रों द्वारा बताए किन्हीं मूल्यों का पालन नहीं कर रहा ।वह बहुत सुखी है, हर प्रकार के ऐशो आराम भोग रहा है; परन्तु जो व्यक्ति सभी मूल्यों का पालन कर रहा है,वह जीवन में कुछ हासिल नहीं कर पाता। तब कभी–कभी ऐसा भी होता है जीवन के अंत तक आते–आते मनुष्य को सारे मूल्य झूठे लगने लगते है कि जिन तथाकथित पुण्यों के जाल में वह जीवन भर फँसा रहा वह तो वस्तुत: ऐसे पाप थे; जिन्होंने उस की सारी जि़न्दगी ही व्यर्थ कर दी।
साधारण सी आर्थिक स्थिति का स्वामी माइकेल कई वर्षों से बीमार है जीवन का अंतिम समय निकट देख परिवार के व्यक्ति फादर को बुलाते हैं कि कन्फ़ैस करने के लिए कहते है तो वह कहता है, फादर मैं झूठ, फरेब, कपट से हमेशा बचाता रहा’....फूलती साँसों के बीच जोर लगाकर कहता है, ‘‘फादर मैं दूसरों के दुख को देखकर दुखी हुआ परिवार की उपेक्षा करके भी दूसरों की सहायता की तो फादर झल्ला कर कह उठते हैं,‘माइकेल कन्फ़ैस करो....गुनाह कुबूलो’, और उखड़ती साँसों से कुछ शब्द फूटते है....वही तो कर रहा....हूँ...फा...दर......।
और इसी चरम बिन्दु पर कथा समाप्त हो जाती है......सच कहूँ तो पीड़ा समाप्त नहीं होती, मन के पृष्ठों पर अंकित हो जाती है। एक अथाह पीड़ा की चीत्कार कानों में गूँजती रहती हैं....एक ऐसी पीड़ा जो सारे मूल्यों के तार–तार हो जाने की पीड़ा है। माइकेल के स्वर साक्षात्कार कराने लगते हैं उस बदरंग दुनिया से ;जहाँ नेकी ही गुनाह बन जाती है।
लघुकथा पढ़कर लगता है यह कन्फ़ैशन माइकेल का कन्फ़ैशन नहीं , वरन् उस समूचे युग का कन्फ़ैशन, है जहाँ पाप और पुण्य की तथाकथित अवधारणाएँ बदलने लगी हैं और यह कनफैशन कु्छ पल के लिए हमें स्तब्ध कर जाता है। यह लघुकथा व्यवस्था की विडम्ब्ना को तो रेखांकित करती ही है, इसका कथ्य और भाषा अत्यन्त सशक्त है। यह इस लघुकथा की सम्प्रेषणीयता ही है कि पाठक बदलते मूल्यों के बारे में सोचने के लिए विवश हो जाता है। संसार को आईना दिखाने वाली इस सुन्दर लघुकथा की रचना के लिए सुधा गुप्ता जी निश्चय ही बधाई की पात्र है।

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1- छिपा हुआ दर्द – कमल चोपड़ा

उसे अजीब–सा लग रहा था। जब से वे आये थे तब से अम्मा और बाबूजी दोनों पता नहीं किस चक्कर में पड़े हुए थे। कभी बाहर जा रहे थे कभी वापस आ रहे थे। उसने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘तुम बैठो! मैं अम्मा और बाबूजी से पूछ के आता हूँ कि वे किस चक्कर में हैं? हम तो शहर से स्पेशली इनकी तबीयत का पता करने आये हैं..... और ये....? कुछ देर हमारे पास बैठें सुख–दुख कहें–सुनें। वक्त भी कम है.... शाम तक तो हमें लौट भी जाना है।’’
यह रसोई की ओर बढ़ गया। अन्दर से अम्मा और बाबूजी की आपस में चल रही बातचीत की आवाजें बाहर तक आ रही थीं। बाबू जी कह रहे थे, ‘‘रामप्रसाद ने उधार देने से मना कर दिया है। अब किसके पास माँगने जाऊँ? सिर्फ़ सौ रुपयों की तो बात थी पर.....’’
‘‘घर में सिर्फ़ मक्की का आटा और बचा हुआ थोड़ा सा साग पड़ा है। इतने दिन बाद बेटा और बहू मिलने आये हैं। अच्छे से रोटी–पानी नहीं खिलाया तो बहू क्या कहेगी – उसकी ससुरालवाले इतने गये गुजरे हैं? घर में गाय–भैंस भी तो नहीं कि इन शहरी बेटे–बहू को दही–मक्खन ही कुछ परोस सकें.... घी, शक्कर, सब्जी और आटा ही तो खरीदना है कहीं से.... साठ–सत्तर का इंतजाम हो जाये तो....’’
अन्दर तक आहत हो आया वह अम्मा और बाबू जी की बातचीत सुनकर। इतनी तंगी में दिन बिता रहे हैं ये फिर भी.... हम ही शहर में कौन से पुलाव खाते हैं.... दाल–रोटी ही हो पाती है पर....। अगर मैं मना करूँ कि हमें तो भूख नहीं, आपको इतनी तकलीफ उठाने की जरूरत नहीं.... तो माँ की भावनाएं आहत हो जाएगी..... माँ बाद में भी सोच–सोचकर बुझी रहेंगी कि वे बेटे–बहू को अच्छा खाना नहीं खिला पाई....
उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? उसने मुड़कर देखा, पीछे उसकी पत्नी खड़ी थी। शायद उसने भी सारी बातें सुन ली थीं। वह कुछ कहने को हुआ पर पत्नी ने इशारे से उसे चुप करा दिया और खुद अन्दर जाकर अम्मा से बोलीं, ‘‘माँ जी... हम तो शहर से स्पेशली आपके हाथ की बनी मक्की रोटी खाने आये हैं.... सागर अगर एक दिन का बासी हो तो अगले दिन और स्वादिष्ट लगता है पर हाँ, उसमें घी–मक्खन मत डालना। हमें डॉक्टर ने मना किया है। और बाबूजी आप हमारे पास बैठिए ना, हम तो आपकी तबीयत का हालचाल पूछने आए हैं.....’’
माँ अपनी बुझे चेहरे पर एकाएक आई खुशी को छिपा नहीं पायी थी।जोशी नहीं रही।
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2- कनफै़सन - डॉ सुधा गुप्ता

माइकेल कई बरस से बीमार था, साधारण -सी आर्थिक स्थिति:पत्नी,बच्चे,सारा भार। जितना सम्भव था, इलाज कराया गया ;किन्तु सब निष्फल। शय्या-कैद होकर रह गया। लेटे-लेटे जाने क्या सोचता रहता....अन्ततः परिवार के सदस्य भी अदृष्ट का संकेत समझकर, मौन रह,दुर्घटना की प्रतीक्षा करने लगे। एक बुजु़र्ग हितैषी ने सुझाया-‘अब हाथ में ज्यादा वक्त नहीं, फादर को बुला भेजो ताकि माइकेल ‘कनफै़स’ कर ले और शान्ति से जा सके।’ बेटा जाकर फ़ादर को बुला लाया। फ़ादर आकर सिरहाने बैठे, पवित्र जल छिड़का और ममताभरी आवाज़ में कहा-‘‘प्रभु ईशू तुम्हें अपनी बाँहों में ले लेंगे मेरे बच्चे! तुम्हें सब तकलीफ़ों से मुक्ति मिलेगी, बस एक बार सच्चे हृदय से सब कुछ कुबूल कर लो।’’
माइकेल ने मुश्किल से आँख खोलीं, बोला-
‘‘फादर मैंने कभी किसी को धोखा नहीं दिया।’’
फादर ने सान्त्वना दी- ‘‘यह तो अच्छी बात है, आगे बोलो!’’
माइकेल ने डूबती आवाज़ में कहा-‘‘फादर मैं झूठ,फरेब,छल-कपट से हमेशा बचता रहा।’’
फादर ने स्वयं को संयमित करते हुए कहा-‘‘यह तो ठीक है पर अब असली बात भी बोलो....माइकेल!’’
माइकेल की साँस फूल रही थी, सारी ताकत लगाकर उसने कहा.-‘‘फादर, दूसरे के दु:ख में दु:खी हुआ, परिवार की परवाह न कर दूसरो की मदद की...’’
अब फादर झल्ला उठे-‘‘माइकेल, कनफै़स करो....कनफै़स करो...गुनाह कुबूलो....वक्त बहुत कम है...।’’
उखड़ती साँसों के बीच कुछ टूटे-फूटे शब्द बाहर आए-‘’वही… तो कर… रहा हूँ… फ़ादर… !”
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