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मेरी पसंद - प्रियंका गुप्ता
प्रियंका गुप्ता

‘लघुकथा’, जैसे कि नाम से ही परिलक्षित होता है, एक छोटी कथा...। एक ऐसी कथा, जिसका आकार भले ही कम हो, पर उसमे कथ्य की किसी भी प्रकार की शिथिलता नहीं होनी चाहिए। कथ्य भी ऐसा, जो फ़िज़ूल न हो, सही मायने में अपने आप में सम्पूर्ण हो और पाठक को कुछ सोचने पर मजबूर कर दे...। अक्सर लोग किसी भी घटना को सिर्फ़ कह देने भर को ही लघुकथा मान लेते हैं, बिना ये सोचे कि उसमे कुछ कहने-गुनने लायक था भी या नहीं...। कथारस है या नहीं, कलात्मकता और गहन संवेदना है या नहीं।

बहुत पुरानी कहावत है...देखन मे छोटे लगें, घाव करे गम्भीर...। लघुकथा के बारे में हम ऐसा ही कुछ कह सकते हैं...। अपने लघु-कलेवर में न जाने कितनी गहरी बातें कह दी जाती हैं ;जो शायद कई पन्ने भरने के बावजूद कह पाना सम्भव न हो पाए। एक लघुकथा का सबसे बड़ा गुण ‘गागर में सागर’ समा लेने की क्षमता का होना है। जितना कहा, उससे ज़्यादा ही अनकहा रह जाने के बावजूद वही अनकहा ही सबसे ज़्यादा गूँज पैदा कर जाए, यही तो सबसे बड़ी विशेषता होती है एक अच्छी लघुकथा की...। इस कसौटी पर यूँ तो बहुत सारी लघुकथाएँ नज़रों के सामने से गुज़री हैं, पर कुछ ऐसी भी रहीं; जिन्हें भुला पाना लगभग नामुमकिन रहा। कुछ लघुकथाओं का जिक्र यहाँ कर रही हूँ, जो किसी-न-किसी वजह से यादों में रह गई। डॉ.कमल चोपड़ा (अभी गुंजाइश है क्या !), महेन्दर फ़ारग (नसीहत), प्रेम गुप्ता ‘मानी’ (पुरस्कार), सुकेश साहनी( ठण्डी रज़ाई),असगर वज़ाहत (आग), विकेश निझावन (कटे हाथ), विष्णु प्रभाकर (फ़र्क), अखिल रायजादा (पहला संगीत) उर्मिल कुमार थपलियाल ( मुझमें मण्टो), डॉ सतीशराज पुष्करणा ( ड्राइंग रूम), रमेश बतरा ( लड़ाई)आदि। कुछ लघुकथाओं का जिक्र यहाँ सिर्फ़ इस लिए छूट रहा है; क्योंकि उनके शीर्षक मुझे याद नहीं आ रहे।

पेश हैं उन याद रह गई लघुकथाओं में से मेरी पसन्दीदा दो लघुकथाएँ...सुभाष नीरव जी की ‘एक और कस्बा’ और रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी की ‘ऊँचाई’ ।

‘एक और कस्बा’ में नीरव जी ने हमारे समाज में पल रही जातिगत और धार्मिक नफ़रत को हवा देती एक मामूली- सी घटना की ओर इंगित करते हुए पर्दे के पीछे का एक कटु सत्य उजागर किया है।
रहमत मियाँ का दिल गोश्त खाने का होता है और वे आलसवश अपने बेटे सुक्खन को गोश्त लाने के लिए बाज़ार भेज देते हैं। बच्चा अपनी उम्र के हिसाब से एक कटी पतंग को लूटने का लोभ संवरण नहीं कर पाता और गोश्त का थैला बेख्याली में मंदिर की सीढ़ियों पर पटक पूरे उत्साह से लूटी पतंग के साथ दूर निकल जाता है...। जब तक उसे अपने थैले की याद आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और पूरा कस्बा धार्मिक उन्माद में अन्धा हो चुका होता है। कुत्तों द्वारा गोश्त के लिए हो रही छीना-झपटी के माध्यम से सुभाष जी ने मानव-मन के अन्दर के जानवर की ओर भी इंगित किया है, जो ऐसी परिस्थितियों में पूरी तौर से जाग्रत हो जाता है।

यह लघुकथा पाठक को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देती है। अपने जीवन में भी हम अक्सर किसी घटना की तह तक गए बग़ैर एक निष्कर्ष निकाल कर उसी के अनुरूप काम कर गुज़रते हैं, बिना कुछ भी सोचे-विचारे...। एक छोटे बच्चे की बालसुलभ हरकत किस तरह एक षड़यन्त्र की नज़र से देखी जाती है और उसका क्या भयानक असर होता है, इन सब बातों से अन्त तक वो बच्चा अनजान रहता है...। उसकी समस्त चिन्ता, उसका पूरा ख़ौफ़ सिर्फ़ अपनी पिटाई तक ही सीमित रहता है...। सुभाष जी ने इस बाल-मनोविज्ञान का भी बहुत बखूबी चित्रण कर दिया है अपनी इन पंक्तियों में-‘घर लौटने पर गोश्त का यह हश्र हुआ जानकर यकीनन उसे मार पड़ती।’

कुल मिलाकर यह लघुकथा पाठक तक अपनी बात बखूबी संप्रेषित कर पाने में पूरी तौर से कामयाब हुई है और बहुत देर तक पढ़ने वाले को किंकर्तव्यविमूढ़-सा कर जाती है...।
दूसरी लघुकथा जिसका मैं यहाँ पर जिक्र करना चाहूँगी, वह है काम्बोज जी की लिखी लघुकथा-‘ऊँचाई’।

माता-पिता तमाम उम्र बच्चों को सहारा देने में एक पल भी नहीं सोचते, चाहे वो नन्हें से डगमगाते कदम हों या बड़े हो जाने के बाद होने वाली लड़खड़ाहट...वे तो हमेशा लपक कर हमारा हाथ थाम लेते हैं, पर बच्चे सहारा देने से पहले अपनी ओर, अपनी सुविधा और खुशियों की ओर देखते हैं।

बेटे के घर जब अचानक ही बूढ़े पिता आ जाते हैं तो पत्नी के साथ-साथ बेटा भी थोड़ा असहज हो जाता है। पिता से मिलने की उसे खुशी नहीं होती बल्कि इस बात की फ़िक्र हो जाती है कि एक तो वो वैसे ही बहुत समृद्ध नहीं है, ऊपर से अगर पिता ने कोई मदद माँग ली तो...?

‘बाबू जी को भी अभी आना था।’ इस पंक्ति में उसकी झल्लाहट साफ़ तौर से झलकती है। बेटे-बहू को इस बात की प्रसन्नता नहीं होती कि पिता उनसे मिलने आए हैं, जबकि पिता इस उम्र में भी काम की व्यस्तता के बावजूद सिर्फ़ इस अन्दाज़े से कि उनका बेटा शायद परेशान है, उससे मिलने आए हैं। इन पंक्तियों से यह बात बहुत अच्छे से स्पष्ट हो जाती है।
"तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”

वे बेटे पर भी किसी तरह का बोझ नहीं बने हैं, क्योंकि न केवल गाँव में वे खेती-बाड़ी सम्हाल रहे, बल्कि उसी दिन वापस भी लौट रहे। बेटा-बहू भले ही उनको एक पराए की तरह महसूस करते हैं, परन्तु इस अजनबीयत से अनजान पिता पूरी सहजता से कुर्सी पर उकड़ू बैठ जाते हैं। शहर के परायेपन के आदी हो चुके बेटा-बहू यह सोच ही नहीं पाते कि महज बच्चों की चिन्ता और उनके मोह के वशीभूत होकर भी पिता इतना लम्बा सफ़र कर के आ सकते हैं।

लघुकथा आगे बढ़ती है और पाठक अभी एक सामान्य से घटनाक्रम की उम्मीद कर ही रहा होता है कि सहसा आगे पढ़कर एकदम चौंक जाता है...जब पिता बेटे की उम्मीद के विपरीत जेब से सौ-सौ रुपए के नोट निकाल कर उसे ज़बर्दस्ती थमा देते हैं और वो शर्मिन्दगी से मानो ज़मीन में गड़ जाता है। लघुकथा की ये पंक्तियाँ जैसे सीने में एक घूँसा-सा मारती हैं-‘“रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।” जिस पिता को वे लोग एक अनचाहा बोझ मान रहे थे, वो अब भी उनकी उतनी ही परवाह करते हैं, जितनी बचपन में करते थे।

काम्बोज जी की ये लघुकथा पाठक को अन्दर बहुत गहरे तक उद्वेलित कर जाती है। आज आए दिन हम बच्चों द्वारा माता-पिता को निराश्रित छोड़ देने की घटनाएँ पढ़ते हैं, वहाँ यह लघुकथा न केवल हमको आईना दिखाती है, बल्कि माता-पिता के लिए भी एक पॉज़िटिव सन्देश छोड़ती है कि यदि वे खुद पर भरोसा रखें तो उम्र के किसी भी मोड़ पर उन्हें किसी के आसरे की ज़रूरत नहीं, बल्कि ज़िन्दगी के हर पड़ाव पर स्वाभिमान के साथ वे हमेशा की तरह एक बार फिर सक्षम हैं अपने बच्चों का सहारा बनने के लिए।
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एक और कस्बा - सुभाष नीरव

देहतोड़ मेहनत के बाद, रात की नींद से सुबह जब रहमत मियां की आँख खुली तो उनका मन पूरे मूड में था। छुट्टी का दिन था और कल ही उन्हें पगार मिली थी। सो, आज वे पूरा दिन घर में रहकर आराम फरमाना और परिवार के साथ बैठकर कुछ उम्दा खाना खाना चाहते थे। उन्होंने बेगम को अपनी इस ख्वाहिश से रू-ब-रू करवाया। तय हुआ कि घर में आज गोश्त पकाया जाए। रहमत मियां का मूड अभी बिस्तर छोड़ने का न था, लिहाजा गोश्त लाने के लिए अपने बेटे सुक्खन को बाजार भेजना मुनासिब समझा और खुद चादर ओढ़कर फिर लेट गए।

सुक्खन थैला और पैसे लेकर जब बाजार पहुँचा, सुबह के दस बज रहे थे। कस्बे की गलियों-बाजारों में चहल-पहल थी। गोश्त लेकर जब सुक्खन लौट रहा था, उसकी नज़र ऊपर आकाश में तैरती एक कटी पतंग पर पड़ी। पीछे-पीछे, लग्गी और बाँस लिये लौंडों की भीड़ शोर मचाती भागती आ रही थी। ज़मीन की ओर आते-आते पतंग ठीक सुक्खन के सिर के ऊपर चक्कर काटने लगी। उसने उछलकर उसे पकड़ने की कोशिश की, पर नाकामयाब रहा। देखते ही देखते, पतंग आगे बढ़ गयी और कलाबाजियाँ खाती हुई मंदिर की बाहरी दीवार पर जा अटकी। सुक्खन दीवार के बहुत नज़दीक था। उसने हाथ में पकड़ा थैला वहीं सीढ़ियों पर पटका और फुर्ती से दीवार पर चढ़ गया। पतंग की डोर हाथ में आते ही जाने कहाँ से उसमें गज़ब की फुर्ती आयी कि वह लौंडों की भीड़ को चीरता हुआ-सा बहुत दूर निकल गया, चेहरे पर विजय-भाव लिये !

काफी देर बाद, जब उसे अपने थैले का ख़याल आया तो वह मंदिर की ओर भागा। वहाँ पर कुहराम मचा था। लोगों की भीड़ लगी थी। पंडित जी चीख-चिल्ला रहे थे। गोश्त की बोटियाँ मंदिर की सीढ़ियों पर बिखरी पड़ी थीं। उन्हें हथियाने के लिए आसपास के आवारा कुत्ते अपनी-अपनी ताकत के अनुरूप एक-दूसरे से उलझ रहे थे।

सुक्खन आगे बढ़ने की हिम्मत न कर सका। घर लौटने पर गोश्त का यह हश्र हुआ जानकर यकीनन उसे मार पड़ती। लेकिन वहाँ खड़े रहने का खौफ भी उसे भीतर तक थर्रा गया- कहीं किसी ने उसे गोश्त का थैला मंदिर की सीढ़ियों पर पटकते देख न लिया हो ! सुक्खन ने घर में ही पनाह लेना बेहतर समझा। गलियों-बाजारों में से होता हुआ जब वह अपने घर की ओर तेजी से बढ़ रहा था, उसने देखा- हर तरफ अफरा-तफरी सी मची थी, दुकानों के शटर फटाफट गिरने लगे थे, लोग बाग इस तरह भाग रहे थे मानो कस्बे में कोई खूंखार दैत्य घुस आया हो!
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ऊँचाई - रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

पिताजी के अचानक आ धमकने से पत्नी तमतमा उठी, “लगता है बूढ़े को पैसों की ज़रूरत आ पड़ी है, वर्ना यहाँ कौन आने वाला था। अपने पेट का गड्‌ढा भरता नहीं, घर वालों का कुआँ कहाँ से भरोगे?"
मैं नज़रें बचाकर दूसरी ओर देखने लगा। पिताजी नल पर हाथ-मुँह धोकर सफर की थकान दूर कर रहे थे। इस बार मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग हो गया। बड़े बेटे का जूता मुँह बा चुका है। वह स्कूल जाने के वक्त रोज़ भुनभुनाता है। पत्नी के इलाज़ के लिए पूरी दवाइयाँ नहीं खरीदी जा सकीं। बाबू जी को भी अभी आना था।

घर में बोझिल चुप्पी पसरी हुई थी। खाना खा चुकने पर पिताजी ने मुझे पास बैठने का इशारा किया। मैं शंकित था कि कोई आर्थिक समस्या लेकर आए होंगे। पिताजी कुर्सी पर उकड़ू बैठ गए। एकदम बेफिक्र, “सुनो” -कहकर उन्होंने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा। मैं साँस रोककर उनके मुँह की ओर देखने लगा। रोम-रोम कान बनकर अगला वाक्य सुनने के लिए चौकन्ना था।वे बोले, “खेती के काम में घड़ी भर की फ़ुर्सत नहीं मिलती है। इस बखत काम का जोर है। रात की गाड़ी से ही वापस जाऊँगा। तीन महीने से तुम्हारी कोई चिट्ठी तक नहीं मिली। जब तुम परेशान होते हो, तभी ऐसा करते हो।”

उन्होंने जेब से सौ-सौ के दस नोट निकालकर मेरी तरफ़ बढ़ा दिए- “रख लो। तुम्हारे काम आ जाएँगे। इस बार धान की फ़सल अच्छी हो गई है। घर में कोई दिक्कत नहीं है। तुम बहुत कमज़ोर लग रहे हो। ढंग से खाया-पिया करो। बहू का भी ध्यान रखो।”

मैं कुछ नहीं बोल पाया। शब्द जैसे मेरे हलक में फँसकर रह गए हों। मैं कुछ कहता इससे पूर्व ही पिताजी ने प्यार से डाँटा- “ले लो। बहुत बड़े हो गए हो क्या?”“नहीं तो” - मैंने हाथ बढ़ाया। पिताजी ने नोट मेरी हथेली पर रख दिए। बरसों पहले पिताजी मुझे स्कूल भेजने के लिए इसी तरह हथेली पर इकन्नी टिका दिया करते थे, परन्तु तब मेरी नज़रें आज की तरह झुकी नहीं होती थीं।

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