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मेरी पसंद - मधुदीप
मधुदीप

पिछले कुछ समय मैं लघुकथा से दूर रहा मगर गत वर्ष (2013) ‘पड़ाव और पड़ताल’ शृंखला दुबारा शुरू करने की योजना बनी तो इससे फिर गहरा जुड़ाव हुआ । बीसवीं सदी के सातवें दशक के मध्य से प्रारम्भ करके इक्कीसवीं सदी के तेरह वर्ष बीत जाने तक इस विधा ने बहुत लम्बी यात्रा तय की है । इतनी लम्बी यात्रा में से अपनी पसन्द की दो लघुकथाओं का चयन करना भूसे के ढेर में से सुई तलाश करने जैसा ही था । यह भी मेरे लिए बहुत कठिन था फिर भी ;पड़ाव और पड़ताल’ शृंखला पर काम करते हुए सभी लघुकथाओं का चयन मैंने ही किया था और वे सभी मेरी पसन्द की थीं ।
प्रबोधकुमार गोविल की लघुकथा ‘माँ’ मेरी पसन्द की लघुकथाओं में बहुत ऊँचा स्थान रखती है । इसका रचनाकाल आठवें दशक के प्रारम्भ का है । तब से लेकर आज तक यह लघुकथा मेरे मस्तिष्क पर दस्तक देती रही है और मैंने कई मंचों पर इसे एक मानक लघुकथा के रूप में प्रस्तुत किया है । भारतीय परिवार में ‘माँ’ की स्थिति का जैसा प्रभावी और यथार्थ चित्रण इस लघुकथा में प्रस्तुत किया गया है वैसा आज तक किसी दूसरी लघुकथा में देखने को नहीं मिला । यह लघुकथा निम्न वर्ग के परिवारों और उनकी सुबह की सहज दिनचर्या से प्रारम्भ होकर तीव्र गति से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होती है । इन परिवारों के कुछ बच्चे अपने-अपने घरों से आकर “घर-घर’ खेलने में व्यस्त हो जाते हैं । यहीं से यह लघुकथा अपने विकास की ओर अग्रसर होती है । इन बच्चों के खेल के माध्यम से ही लेखक चुपके से भारतीय परिवार में ‘माँ’ की यथार्थ स्थिति का सहज चित्रण कर जाता है । इसकी अन्तिम पंक्तियों पर गौर करने की आवश्यकता है ----“अरे, भात तो खत्म हो गया । इतने सारे लोग आ गए...चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में खा लूँगी ।”
“तू माँ बनी है क्या ?”
मेरे विचार से भारतीय परिवार की ‘माँ’ का इससे बेहतर और सहज-सटीक चित्रण सम्भव ही नहीं है । हर भारतीय परिवार में माँ इसे अपना पुनीत कर्त्तव्य मानती है कि वह पहले घर के अन्य सदस्यों का भरण-पोषण करे और सबसे अन्त में बचा-खुचा स्वयं ग्रहण करे । इसमें उसे कई बार उपवास भी करना पड़ जाता है । आज के समय में यह शायद कुछ अतिरेक लगे मगर भारतीय परिवार में माँ की यह शाश्वत नियति है । इस लघुकथा में कहीं बडबोलापन नहीं है और न ही यह किसी आदर्शवाद का शिकार होती है । इसमें लघुकथाकार कहीं भी ‘इन्वाल्व’ नहीं है । लेखक ने सब-कुछ बच्चों की सहज गतिविधि पर छोड़ दिया है । कैसे एक लघुकथा किसी लघुकथाकार की पहचान बन जाती है यह सत्य किसी को भी चकित कर सकता है ।
भाई रमेश बतरा आज हमारे मध्य मौजूद नहीं हैं । वे समकालीन लघुकथा के प्रारम्भिक लेखकों में ही नहीं, प्रथम पंक्ति के लेखकों में रहे हैं । यह अफसोस की बात है कि उनका एकल लघुकथा संग्रह नहीं आ पाया और उनकी सारी लघुकथाएँ कहीं भी एक साथ उपलब्ध नहीं हैं। उनकी लघुकथा ‘सूअर’ को मैं साम्प्रदायिकता पर लिखी गई लघुकथाओं में पहले दर्जे की लघुकथा स्वीकार करता हूँ और इसे ही मैं अपनी पसन्द की दूसरी लघुकथा के रूप में यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। शहर में साम्प्रदायिक दंगा फैला हुआ है, एक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों के खून के प्यासे हो रहे हैं । कारण बहुत छोटा-सा है । मस्जिद में ‘सूअर’ घुस आया है । लघुकथा का अन्त कितना सार्थक और गहरा असर छोड़ता है, इस पर गौर करें ----- वह करवट लेकर फिर से सोते हुए बोला, “यहाँ क्या कर रहे हो?...जाकर सूअर को मारो न !” साम्प्रदायिक दंगे फैलाने वालों पर किया गया यह तंज और लताड़ इस लघुकथा को मारक,मानक और सार्थक लघुकथा की श्रेणी में स्थापित करता है । साम्प्रदायिकता का जो जहर हमारे दिमागों में घुस गया है ,वही तो इस लघुकथा में सूअर के रूप में प्रतीक बनकर आया है । सूअर को मस्जिद से भगाने के माध्यम से उस जहर को हमारे दिमागों में से निकलने की बात लेखक यहाँ कर रहा है । एक छोटी कथा कितनी बड़ी बात कह सकती है, यह यहाँ देखने योग्य है । यही समकालीन लघुकथा की ताकत है और पहचान भी । इस लघुकथा की एक विशेषता और भी है । एक नाजुक विषय पर लिखी होने के बावजूद यह कहीं भी बनावटी, असहज या काल्पनिक नहीं लगती और न ही किसी नारे का शिकार होती है । यह बिल्कुल सहज लघुकथा है और इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो पाठक पर जबरन थोपा गया हो ।

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माँ - प्रबोधकुमार गोविल

उसका बाप सुबह–सुबह तैयार होकर काम पर चला गया। मां उसे रोटी देकर, ढेर सारे कपड़े लेकर नहर पर चली गई।
वह घर से बाहर निकली थी कि उसी तरह रुखे–उलझे मैले बालों–वाली उसकी सहेली अपना फटा और थोड़ा ऊँचा फ़्राक बार–बार नीचे खींचती आ गयी। फिर एक–एक करके बस्ती के दो–चार बच्चे और आ गये।
‘‘चलो घर–घर खेलेंगे’’
‘‘पहले खाना बनाएँगे, तू जाकर लकड़ी बीन ला। और तू यहां सफाई कर दे।’’
‘‘अरे ऐसे नहीं। पहले आग तो जला।’’
‘‘मैं तो इधर बैठूँगी।’’
‘‘चल अपन दोनों चलकर कपड़े धोएँगे’’
‘‘नहीं चलो, पहले सब यहां बैठ जाओ। खाना खाओ फिर बाहर जाना।’’
‘‘मैं तो इसमें लूँगा।’’
‘‘अरे ! भात तो खत्म हो गया। इतने सारे लोग आ गए.....चलो तुम लोग खाओ, मैं बाद में खा लूँगी।’’
‘‘तू माँ बनी है क्या ?’’

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सूअर - रमेश बतरा

वे हो–हल्ला करते एक पुरानी हवेली में जा पहुँचे। हवेली के हाते में सभी घरों के दरवाजे बंद थे। सिर्फ़ एक कमरे का दरवाजा खुला था। सब दो–दो, तीन–तीन में बँटकर दरवाजे तोड़ने लगे और उनमें से दो जने उस खुले कमरे में घुस गए।
कमरे में एक ट्रांजिस्टर होले–होले बज रहा था और एक आदमी खाट पर सोया हुआ था।
‘‘यह कौन है?’’ एक ने दूसरे से पूछा।
‘‘मालूम नहीं,’’ दूसरा बोला, ‘‘कभी दिखाई नहीं दिया मुहल्ले में।’’
‘‘कोई भी हो,’’ पहला ट्रांजिस्टर समेटता हुआ बोला, ‘‘टीप दो गला!’’
‘‘अबे, कहीं अपनी जाति का न हो?’’
‘‘पूछ लेते हैं इसी से।’’ कहते–कहते उसने उसे जगा दिया।
‘‘कौन हो तुम?’’
वह आँखें मलता नींद में ही बोला, ‘‘तुम कौन हो?’’
‘‘सवाल–जवाब मत करो। जल्दी बताओ वरना मारे जाओगे।’’
‘‘क्यों मारा जाऊँगा?’’
‘‘शहर में दंगा हो गया है।’’
‘‘क्यों.. कैसे?’’
‘‘मस्जिद में सूअर घुस आया।’’
‘‘तो नींद क्यों खराब करते हो भाई ! रात की पाली में कारखाने जाना है।’’ वह करवट लेकर फिर से सोता हुआ बोला, ‘‘यहाँ क्या कर रहे हो?...जाकर सूअर को मारो न !’’

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