कोई भी पत्रिका हाथ में आते ही हर पाठक का ध्यान छोटी रचनाओं पर जाता है , ताकि प्रथम दृष्टया कुछ महत्त्वपूर्ण और रोचक सामग्री पढ़ ली जाए। यह पाठकीय स्वभाव है। यद्यपि इस तथ्य को बहुत से लेखक स्वीकार करने में अपनी तौहीन समझेंगे। मैं एक लम्बे अर्से से लघुकथाओं का पाठक रहा हूँ । सुकेश साहनी ,रमेश बतरा , सुभाष नीरव , श्याम सुन्दर अग्रवाल , श्याम सुन्दर ‘दीप्ति’,डॉ सतीश दुबे, युगल , उर्मिल कुमार थपलियाल ,रघुनन्दन त्रिवेदी ,डॉ सतीशराज पुष्करणा , सुदर्शन रत्नाकर , मुरलीधर वैष्णव , आदि की लघुकथाएँ अच्छी लगती हैं। नए रचनाकारों में दीपक मशाल , राधेश्याम भारतीय, पसन्द हैं । कुछ लघुकथाएँ ऐसी होती हैं ,जो अपने कथ्य के कारण मन-मस्तिष्क पर अंकित हो जाती हैं।शिल्प का महत्त्व है , लेकिन सधे हुए कथ्य के बिना शिल्प भी अपनी आब खो देता है। मुझे दीपक ‘मशाल’ की ‘पानी’ और राज कुमार गौतम की चेहरे सुबह के’ पसन्द हैं
‘दीपक मशाल’ की कहानी ‘पानी’ बाज़ारवाद की संस्कृति पर करारा व्यंग्य है। शर्माजी तीर्थयात्रा पर जाते है।वहाँ बहुत बड़ी त्रासदी घटित हो जाती है। शर्माजी किसी तरह इस महाप्रलय से बच निकलकर अपने गाँव पहुँच जाते है। गाँव लौटते समय शर्माजी जी की मनः स्थिति कुछ वैसी ही थी जैसी श्मशान घाट से लौटने वाले व्यक्ति की होती है। गाँव में शर्माजी का फूलमालाओं से स्वागत किया जाता है।शर्माजी जिस त्रासदी को देखकर आए है वे अभी उससे बाहर नहीं निकल पा रहे है।वे अपने को असहज महसूस करते है।
छोटे शर्माजी ने अपने दद्दू के इन्टरव्यू के लिये टी वी पत्रकारों को बुला रखा है।छोटे शर्माजी अपने दद्दू को टी वी पर दिखाकर उनको लोकप्रिय कर लोगो की आस्था को भुनाना चाहते है ताकि दद्दू को प्रधानी का चुनाव लड़ा सके।लघुकथा की अंतिम पंक्ति मनुष्य की संवेदनहीनता और स्वार्थपरता पर करारा व्यंग्य है।“बड़े शर्माजी छोटे का मुँह देखे जा रहे थे,उन्हें दिखाई दिया कि छोटा बड़ी तेज़ी से आपदा के समय पानी बेचने वालों के साँचे में ढलता जा रहा है।”आज तीर्थो का भी पूरी तरह बाज़ारीकरण हो गया है।राजनीतिक लोग इस काम मै सबसे आगे हैं।अभी हाल की घटना है देश मैं आई भीषण त्रासदी के लिए एक राजनीति पार्टी द्वारा राहत सामग्री भेजी जानी थी. राहत सामग्री से लदे ट्रक तैयार खड़े थे परन्तु जिस नेता द्वारा ट्रकों को हरी झंडी दिखाकर रवाना किया जाना था वे विदेश में आराम कर रहे थे।उनके आने ही ट्रक भेजेजा सके तब तक अधिकतर खाद्य सामग्री सड़ चुकी थी।पार्टी का उद्देश्य तो अपने नेता की ब्रांडिंग करना था।
राजकुमार गौतम की लघुकथा ‘चेहरे सुबह के’ मैं तमाशबीन भीड़ पुलिस एवम् प्रशासन तंत्र पर करारा व्यंग्य है।.सरेराह कुछ गुण्डे एक लड़की को उठाकर, गाड़ी मैं डालकर ले जाते हैं परन्तु कोई भी लड़की को बचाने की हिम्मत नहीं जुता पाता ।भीड़ अपनी आँखों के सामने अमानवीय कृत्य होते देखकर असंवेदनशील और मूकदर्शक बनी रही।पता नहीं लोग किस डर या स्वार्थ से अपना नैतिक बल खो देते हैं और अगली सुबह को वे ही लोग, जो घटना के समय मूकदर्शक बने खड़े थे, पीड़िता के हमदर्द बनकर पुलिस और प्रशासन के खिलाफ़ प्रदर्शन करते हैं ।यही भीड़ तंत्र है,तब न जाने कहाँ से इनमें इतना जोश आ जाता है ।प्रदर्शन के दौरान पुलिस और प्रशासन दोनों ही मुस्तैद नज़र आते हैं।यदि यहीं भीड़ पीड़िता पर अत्याचार होते देखकर थोड़ी भी हिम्मत दिखाती तो व्यभिचारियों के पैर उखाड़ते देर न लगती । लघुकथाकार ने यहाँ भीड़ की संवेदनहीनता और उनकी बुज़दिली पर तीखा व्यंग्य किया है।भीड़ द्वारा लड़की के चिंदी-चिंदी हुए कपड़ो को लंबे-लंबे बांसों पर टांगकर जुलूस निकालना लड़की की अस्मिता से पुनःखेलने से कम नहीं है। पुलिस द्वारा लड़की के माँ-बाप से लड़की के चाल-चलन के बारे मैं पूछना उनकी घटिया मानसिकता को दर्शाता है।पुलिस लड़की के चाल-चलन को गलत बताकर कहानी को दूसरा रूप देना चाहती है ताकि अपनी नाकामियों को छुपा सके।
शीर्षक की दृष्टि से भी ‘सुबह के चहरे’ शीर्षक सटीक एवं सार्थक है। वैसे तो शाम और सुबह के चेहरों भिन्नता नहीं है ‘सुबह के चेहरे’ जो अब मरने-मारने और हर सूरत मैं न्याय लेने की बात करते हैं ये उन्हीं बुजदिलों के हैं जिन के सामने लड़की को गुंडे उठाकर ले गए थे।गुंडों के लिए गबरूओं के स्थान पर मुस्टंडो का प्रयोग और इसी प्रकार ‘शिद्दत से दौड़ने लगी’ के स्थान पर ‘बदहवास -सी होकर दौड़ने लगी’
अधिक सार्थक होता।
-0-
1 - पानी
लघुकथाकार : दीपक मशाल
लघुकथाकार : दीपक मशाल
श्मशान या कब्रिस्तान से लौटते वक़्त किसी व्यक्ति की जो मनोदशा होती है कमोवेश वही शर्मा जी की थी। गए तो तीर्थ को थे लेकिन लौटते वक़्त लगता था कि महाप्रलय से बचकर निकल आये। वैसे हाथ-पैर में कुछ खुलीं, कुछ मुंदी चोटें थीं और कई छोटी-मोटी खरोंचें लेकिन औरों की तरह कोई गंभीर ज़ख्म नहीं था। अकेले गए थे सो साथी के खोने-छूटने का गम भी नहीं था लेकिन जितनी बड़ी त्रासदी उस घाटी में हुई थी और उनकी आँखों के सामने देखते ही देखते जितने लोग बेजान हुए थे वह दृश्य उन्हें अब भी सहज नहीं होने दे पा रहा था। सेना की मदद से दिल्ली तक पहुँच गए, वहां से ट्रेन पकड़ी और जनरल डब्बे में बैठ अपने गाँव की तरफ चल दिए। अभी भी एक भय सा था मन में, उन्हें लगता कि अभी यहाँ भी सैलाब आएगा और सबको डुबो देगा, लगता कि यहाँ भी पहाड़ टूटेगा और उसमे कई सारे दुःख भरे होंगे। अर्द्धविक्षिप्त से वो कभी खुद की हालत देखते तो कभी भूसे की तरह भरी ट्रेन में लोगों को और संसार की सार-हीनता के दर्शन से भर उठते।
ट्रेन से अपने गाँव के नजदीकी कसबे में उतरकर आगे के लिए उन्होंने बस ले ली। गाँव पहुंचे तो स्टैण्ड पर ही उनके भाई और गाँव के कई लोग हाथों में फूल-माला लिए खड़े थे, उन्हें ध्यान आया कि उन्होंने ही दिल्ली से निकलते समय आज घर पहुँचने की सूचना दी थी। लोगों में प्रसन्नता की लहर देख वह धीरे-धीरे आश्वस्त हो रहे थे, ठीक वैसे ही जैसे कोई मिट्टी को सुपुर्द-ए-खाक कर या जलाकर घर आने के बाद धीरे-धीरे दुनिया में घुलमिल जाता है।
घर पहुंचकर नहा-धोकर बरामदे में बैठे ही थे कि तभी छोटे शर्मा जी ने आकर उनसे कहा-
''दद्दू, नया कुर्ता और धोती पहनकर बैठिएगा, अखबारवाले एक घंटे में आ जायेंगे''
शर्मा जी ने विस्मय भरी नज़रों से छोटे की तरफ देखा
''अरे आप इतनी बड़ी विपदा से बचकर लौटे हैं, वो लोग अपने अखबार के लिए आपसे कुछ सवाल पूछेंगे और आपको वहाँ जो कुछ भी हुआ वो बता देना है बस''
''लेकिन मुझे तो न कुछ बोलना आता है और ना ही मैं किसी से बात करने की अवस्था में हूँ, खामख्वाह तुमने...'' बड़े शर्मा जी की आवाज़ कुए में पड़े असहाय आदमी की सी लग रही थी लेकिन उसे बीच में ही काटते हुए छोटे ने समझाया-
''अरे आपको नहीं पता तो मैं बता देता हूँ कैसे क्या बोलना है, आपके पीछे से हम लोग भी टी.वी. पर बहुत कुछ देखते-सुनते रहे वहां के बारे में। इस साल प्रधानी के लिए खड़े कर रहे हैं आपको और इस इंटरव्यू से जिले भर के लोग जान जायेंगे। गाँव वाले मान रहे हैं कि आप पर शिव जी की विशेष कृपा है, तभी न बच के आ पाए।''
बड़े शर्मा जी छोटे का मुँह देखे जा रहे थे, उन्हें दिखाई दिया कि छोटा बड़ी तेजी से आपदा के समय पानी बेचने वाले के साँचे में ढलता जा रहा है, वह अपनी हथेलियों से दोनों कानों को ढंकते हुए चीख पड़े-
''चल भाग जा राक्षस...... मैं मर जाऊँगा लेकिन बीस गुनी कीमत का तेरा पानी नहीं खरीदूँगा''।
बड़े शर्मा जी छोटे का मुँह ताके जा रहे थे, उन्हें दिखा कि छोटा बड़ी तेजी से आपदा के समय कई गुनी कीमत पर पानी बेचने वाले में तब्दील होता जा रहा है।
-0-