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लघुकथाएँ - देश - पवन शर्मा
अनुभव

‘‘गुमटी वाले ने कहा !’’ विभा को आश्चर्य हुआ।
‘‘हाँ!’’
‘‘क्या कह रहा था?’’ विभा ने पूछा।
‘‘कहेगा क्या। कह रहा था कि अपने पिताजी को मना कर दें कि सुबह–सुबह अखबार पढ़ने न आया करें। ग्राहकी का टाइम रहता है।’’ अमित ने कहा।
‘‘ठीक ही कहता है। पिताजी भी तो दिन नहीं निकला कि निकल पड़े अखबार पढ़ने। जैसे कि चैन नहीं मिलता अखबार पढ़े बिना।’’ विभा ने मुँह तरेरा।
‘‘मुझे बहुत बुरा लगा।’’ अमित बोला।
‘‘बुरा लगने वाली बात ही है।’’
थोड़ी देर दोनों चुप बैठे रहे।
‘‘मैं सोचता हूं कि घर में ही अखबार बुलवाना शुरू कर दूँ।’’ अमित बोला, ‘‘घर में ही पढ़ लिया करेंगे।’’
‘‘तुम और एक नया खर्च लगा लो हर माह।’’ विभा रोष में थी।
‘‘शी–शी!...धीमे बोलो। पिताजी बाहर वाले कमरे में बैठे हैं। सुन लेंगे।’’ अमित ने धीमे स्वर में कहा।
‘‘सुने तो सुन लें। ये खुसुर–पुसुर मुझे अच्छी नहीं लगती।’’ विभा के स्वर में पहले जैसा ही रोष था।
‘‘तुमसे बात करना ही बेकार है।’’ कहता हुआ अमित बाहर वाले कमरे में आ गया। पिताजी कुर्सी पर बैठे हुए थे।
‘‘अब सुबह का टहलना बंद करना पड़ेगा।’’ पिताजी ने कहा।
‘‘क्यों?’’ अमित चौंक गया। उसे लगा कि पिताजी ने उसकी और विभा की बातें सुन ली हैं।
‘‘दिन–भर हाथ–पैरों में दर्द रहता है।’’ पिताजी बोले, ‘‘सुबह–सुबह गुमटी वाले के यहाँ भी बैठ जाता हूं। वह बेचारा अखबार थमा देता है। वो समय उसकी ग्राहकी का रहता हैं मैं क्यों खोट करूँ उसकी ग्राहकी की...है न! अब तो अखबार पढ़ने की इच्छा नहीं होती। वही लूट–पाट, चोरी–डकैती, हत्या–बलात्कार के समाचार छपे रहते हैं रोज।’’
अमित हैरान रह गया। किस तरह पिताजी ने बात पलट कर अपनी बात कह दी।

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