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हाथी के दाँत

घर में आयोजित एक समारोह से जैसे ही फुर्सत मिली, वह और उसके मित्र भीड़ से कटकर घर के एक कोने में जा बैठे, और बातचीत का क्रम चल निकला। बातचीत का मुख्य विषय राजनीति ही रहा। एक ने कहा, "परिवर्तन आवश्यक था…नई सरकार से आशाएं बँधी हैं।"
"अरे क्या खाक परिवर्तन हुआ! पहली सरकार के निकाले हुए कुछ लोगों की सरकार है…यदि वह इन्हें नहीं निकालती तो ये कुर्सी-चिपकू कब वहाँ से हटनेवाले थे!" दूसरे ने तर्क जड़ा।
इससे पूर्व कि वह कुछ बोले, उसने अपने नौकर को आवाज दी, "अरे ननकू, कहाँ मर गया!"
नौकर को आवाज देकर वह पुन: बातचीत में शामिल होते हुए बोला, "अरे यार! परिवर्तन तो तब समझो…जब सत्ता सर्वहारा के हाथ में आए। जब तक सरकार रईसजादों के हाथ में रहेगी, तब तक इस समाज और इस देशा का हित संभव नहीं है। भारत के अस्सी प्रतिशत लोग तो गांवों में बसते हैं।" अपनी बात समाप्त करते ही वह भुनभुनाया, "यह हरामजादा ननकू भी सुनता नहीं…आवाज्ञ दी थी…पर इस साले पर कोई असर हो…तब तो…!" उसने पुन: आवाज्ञ दी, "ननकू…तू सुनता क्यों नहीं रे?"
हाथ पोंछते हुए लपकते-लपकते ननकू आ गया और बोला, "जी मालिक ! खाना खा रहा था…इसी से कुछ देर हो गई।"
"अबे मालिक के बच्चे! तूझे खाने की पड़ी है… और मेरा गला मारे प्यास के सूखा जा रहा है।" इतना डाँटने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। उसे लगा-मित्रों के मध्य नौकर को बुलवाया…वह तुरंत उपस्थित ही नहीं हुआ। उसे यह स्थिति अपमानजनक लगी-यह सोचकर उसका क्रोध एकाएक सातवें आसमान पर जा पहुंचा और उसका दाहिना हाथ पूरे वेग से घूमा और 'चटाक्' की ध्वनि के साथ ननकू के गाल पर जा चिपका।


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