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सुकेश साहनी
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सहानुभूति

कहीं से स्थानान्तरण होकर आए नए-नए अधिकारी एवं वहां की वर्कशाप के एक कर्मचारी रामू दादा के मध्य अधिकारी के कार्यालय में गर्मागर्म वार्तालाप हो रहा था।
अधिकारी किसी कार्य के समय पर पूरा न होने पर उसे ऊँचे स्वर में डाँट रहे थे-
"तुम निहायत ही आलसी और कामचोर हो।"
"देखिए सर! इस तरह गाली देने का आपको कोई हक नहीं है।"
"क्यों नहीं है? "
"आप भी सरकारी नौकर हैं, और मैं भी।"
"चोप्प! "
"दहाड़िए मत! आप ।ट्रांसफर से ज्यादा मेरा कुछ भी नहीं कर सकते।"
"और वही मैं होने नहीं दूँगा।"
"आपको जो कहना या पूछना हो, लिखकर कहें या पूछें। मैं जवाब दे लूँगा। किन्तु इस प्रकार आप मुझे डाँट नहीं सकते। वरना…"
"मैं लिखित कार्रवाई करके तुम्हारे बीवी-बच्चों के पेट पर लात नहीं मारूँगा। गलती तुम करते हो। डाँटकर प्रताड़ित भी तुम्हें ही करूँगा। तुम्हें जो करना हो….कर लेना। समझे? "
निरुत्तर हुआ-सा रामू इसके बाद चुपचाप सिर झुकाए कार्यालय से निकल आया।
बाहर खड़े साथियों ने सहज ही अनुमान लगाया कि आज घर जाते समय साहब की खैर नहीं। दादा इन्हें भी अपने हाथ जरूर दिखाएगा, ताकि फिर वे किसी को इस प्रकार अपमानित न कर सकें।
इतने में से उन्हीं में से कोई फूटा-"दादा! लगता है इसे भी सबक सिखलाना ही पड़ेगा।"
"नहीं रे! सबक तो आज उसने ही सिखा दिया है मुझे। वह सिर्फ अपना अफसर ही नहीं, बाप भी है, जिसे मुझसे भी ज्यादा मेरे बच्चों की चिन्ता है।"
इतना कहकर वह अपने कार्यस्थल की ओर मुड़ गया।


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