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वर्ग-भेद

वे तीनों आपस में न तो मित्र थीं, और न ही शत्रु थीं। तीनों रेखाएँ विषमबाहु त्रिभुज की थीं। माप में सभी भिन्न थीं। आधारभुजा सबसे बड़ी थी। अन्य भुजाओ में एक मध्यम तथा दूसरी छोटी थी। बड़ी भुजा अन्य दोनों भुजाओ को आधार दिए हुए थी और दोनों को अपने-अपने ढंग से तथा उनके स्तर को ध्यान में रखकर उपयोग करती थी। छोटी भुजा उसको अपेक्षाकृत अधिक प्रिय थी कि थोड़े-से लालच में वह उसे एक नौकरानी की तरह उपयोग कर लेती थी। छोटी भुजा के लिए यही गर्व की बात थी कि उसे बड़ी भुजा का सान्निध्य प्राप्त था।
मध्यम भुजा दोनों के मध्य थी। उसका संबंध भी दोनों से था, मगर अपना अस्तित्व एवं स्वाभिमान बरकरार रखकर। पढ़ी-लिखी होने के कारण मध्य भुजा की दृष्टि बहुत पैनी तथा सोच खुली एवं निखरी हुई थी। अत:,दोनों भुजाओ को कभी-कभी उससे भय भी लगता था और खतरे का अनुभव भी करती थीं। बड़ी और छोटी दोनों मिलकर मध्यम के विरूद्ध षडयंत्र भी रचातीं, किन्तु सफल नहीं हो पाती थीं। फिर भी बहुत ही चालाकी से बड़ी उसे उसकी हैसियत का एहसास करा देती और मध्यम को मोहरा बना लेती। एक-दो बार तो मध्यम मोहरा बनी, किन्तु तीसरी बार उसने स्पष्ट इन्कार तो नहीं किया, किन्तु धीरे-धीरे अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाने हेतु दोनों का साथ छोड़ने लगी, और छोड़ते-छोड़ते वह पूर्णत: स्वतंत्र हो गई। इस प्रकार विषमबाहु त्रिभुज बिखरकर स्वतंत्र रेखाओ में परिवर्तित हो गया।
छोटी भुजा अब उदास थी और अपने जीवन को रक्षा हेतु अपने अस्तित्व की तलाश करने लगी। बड़ी भुजा छोटी भुजा को देखकर किसी सामंत की तरह धीरे-धीरे कुटिल मुस्कान छोड़ रही थी।


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