वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. सुरेन्द्र गुप्त के लघुकथा संग्रह ‘यहाँ सब चलता है’ की लघुकथाओं को पढ़कर मुझे लगा कि श्री गुप्त उस यथार्थ से जुड़े होकर जुस्त–जू कर रहे हैं जिसमें सत्य की धड़कनें साफ सुनाई देती हैं। उनकी लघुकथा यात्रा विसंगतियों, अन्तर्विरोधों, विडम्बनाओं की परत दर परत अंधेरी सतहों पर जलती हुई उजली चिंगारियों को सहेजने, उछालने
का अनवरत उपक्रम है।‘यहाँ सब चलता है’ संग्रह में कुल 71 लघुकथाएं हैं। संग्रह की प्रथम लघुकथा ‘गाइड’ के दो पक्ष हैं। पहला पक्ष संवेदनहीनता है। जब पत्नी एक गाइड की मजबूरी का फायदा उठाते हुए उसे कुली बना देती है जो उसके पुत्र को गोद में उठाकर मंदिर की ढेरों सीढ़ियाँ चढ़ता है। अपने बच्चे को पचास रुपये का खिलौना दिला सकती है किंतु गाइड से कुली बने नौजवान को सिर्फ़ बीस रुपये में तय करती है। दूसरा पक्ष है संवेदनशीलता का, जिसमें पति गाइड के अथक परिश्रम का मूल्यांकन करते हुए उसके रेट के अनुसार पचास रुपये देता है।
संयुक्त परिवार से अलग होकर उस समय पति–पत्नी को गहरी पीड़ा से गुजरना पड़ता है जब उनका बालक कहीं खो जाता है। बच्चा मिल भी जाता है, तब पत्नी को अपनी भूल का अहसास एवं पश्चाताप होता है। संयुक्त परिवार एक सुरक्षा कवच है। ‘लौटना’ लघुकथा संयुक्त परिवार में लौटने की कथा है।
‘माँ’ जैनरेशन गेप की एक उमदा लघुकथा है, जिसके कदमों में जन्नत है––उसके सर पर मुकाम क्या होगा––इन पंक्तियों की सार्थकता अब खंडित होती जा रही है। तीन बेटों की माँ अपना सिर छुपाने एवं उदर की क्षुधा मिटाने के लिए तिरस्कृत होकर भी बारी–बारी से अपने पुत्रों की शरण में जाती है। अपने मरहूम पति के पैसे वह अपने तीनों बेटों में बराबर–बराबर बाँट चुकी है। जिस भी बेटे के पास जाती है, पति की पेंशन में से वह खर्चा देती है। बेटे का बेटा जब यह कहता है––‘‘दादी तू कौन- सा कभी हमें पैसा देती है।’’ बेचारी माँ अपने खण्डहर हो रहे कच्चे मकान में रहकर बूढ़े हाथों से रोटियाँ सेंक रही है। बदलते जीवन मूल्यों, खंडित होते सम्बन्धों की सशक्त अभिव्यक्ति इस लघुकथा में हुई है।
नौकरियों के साक्षात्कार के लिए प्रत्याशियों को बुलाना महज एक औपचारिकता है। प्रत्याशियों का चयन योग्यता के आाधार पर नहीं, बड़े अधिकारियों से उनकी एप्रोच एवं धन के बल पर होता है। ‘यहाँ सब चलता है’ लघुकथा हकीकत की तर्जमानी करने वाली लघुकथा है। कॉलेज में चपरासी का रिक्त पद आखिर ठंडे बस्ते में क्यों पड़ा रहा, क्यों नहीं उसे भरा गया––इन सवालों का उत्तर मिलता है ‘ठण्डा बस्ता’ लघुकथा में। चपरासी के रिक्त पद के लिए ढेरों आवेदन आये, साक्षात्कार भी हुए प्रत्याशियों के––इस पद के लिए प्राचार्य पशोपेश में पड़े रहे––हुआ यह कि किसी का भी चयन नहीं हुआ और पद रिक्त ही रहा। नौकरियों प्राप्त करने के लिए किसी नेता या उद्योगपति के सरपरस्ती की आवश्यकता पड़ती है––यही संदेश यह लघुकथा देती है।
‘सपने’ इस संग्रह की बेहतरीन लघुकथाओं में से है। संभ्रांत परिवार के बच्चे बड़े लक्ष्य पर ही अपनी आँख टिकाये बड़े–बड़े स्वप्न देखते हैं लेकिन छोटे लोगों के बच्चों का लक्ष्य, उनके पेट की भूख ही तय करती है। अपने पेट की भूख को मिटाने में वे अपने पिता की राह पर चलते हुए अपना सपना साकार करने जुट जाते हैं। निर्धन बच्चों के कोई अपने सपने नहीं होते, उन्हें तो उन्हीं राहों पर चलना होता है, और वही काम करने होते हैं जो उनके माता–पिता करते हैं। दोनों वर्गों के सपनों की व्याख्या इस लघुकथा में हुई है।
परिवार में लड़की का आगमन क्यों अशुभ माना जाता है––उसके आगमन पर मातम क्यों छा जाता है, इन सब तथ्यों को उठाया गया है ‘वंशबेल’ लघुकथा में। वंश चलाने के लिए परिवार को पुत्र चाहिए। किरणो के लड़की होने पर पूरा परिवार गम में डूब गया है, किंतु किरणो का पति हाथों में लड्डुओं का लिफाफा पकड़े आनन्द में डूबा हुआ था––लड़की के आगमन पर वह परिवार के सदस्यों को अपनी खुशी का इजहार करने के लिए सभी को, लड्डू खिलाना चाहता था। उसने मां, दादी सभी को स्मरण दिलाया, आप भी तो लड़की हैं। पुरुषों के अनुपात में लड़कियों के जन्म दर से गिरते ग्राफ को ऊँचा उठाने के लिए यह लघुकथा प्रेरणा संदेश देती है।
बाढ़ के गंदे पानी में भी सड़ी रजाई बाहर फेंकने के लिए मां–बेटे में बहस होती है। फैसला यह होता है कि संध्या समय इस रजाई को बाहर फेंक आयेंगे। उसके पिता संध्या समय रजाई को नाले के किनारे छोड़ आये। वे कुछ दूर गये थे कि उन्होंने देखा, एक बुढि़या बड़बड़ाते हुए जा रही थी। उसके कान में टूटे–फूटे शब्द सुनाई पड़े––‘पिछला जाड़ा तो बोरी को ओढ़कर ही काटा था, इस बार तो तूने सुन ली। एक अच्छी सी रजाई भेज दी। सचमुच भगवान तू कितना दयालु है।’ एक जरूरतमंद के लिए वह रजाई प्रभु का दिया हुआ उपहार बन जाती है जबकि संपन्न परिवार के लिए एक बोझ.....।
गंगास्नान, हर्षिता, विवशता, समाधान, आदान–प्रदान, सम्बन्ध, बूंदें नेह की, मुआवजा एवं अन्य बहुत सारी लघुकथाएं अपने कथ्य एवं अपने पैने शिल्प के कारण पाठकों के भीतर सोई हुई संभावनाओं को जगाने में कामयाब हुई हैं।
‘यहाँ सब चलता है’ लघुकथा संग्रह की लघुकथाएं पूर्ण सत्य को जीती हुई अंतर्मन की गाथाएं हैं। आप इनसे जुड़ें, एक गहरा रिश्ता बनाएं और पात्रों में जीएं तभी इस संग्रह की सार्थकता है। एक नव विश्लेषणात्मक परिपे्रक्ष्य, एक नव धरातल व नव क्षितिज प्राप्त करें। मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस संग्रह की लघुकथाओं का साहित्य जगत में स्वागत होगा और सुविज्ञ पाठक इन लघुकथाओं को पढ़कर अपने आस–पास के परिवेश एवं उसमें विचरण करते पात्रों एवं घटनाओं को इस संग्रह की कथाओं में पाकर लेखक की ईमानदारी के साक्षी बनेंगे।
पुस्तक–यहाँ सब चलता है (लघुकथा संग्रह): डॉ. सुरेन्द्र गुप्त,प्रकाशक –सूर्य भारती प्रकाशन,
नई सड़क, दिल्ली–110006 , पृष्ठ: 160, मूल्य :250 रुपये ।
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