वर्ण -व्यवस्था आचरण के अनुसार थी , लेकिन प्रभावशाली वर्ग ने उसको अपहृत करके जन्मजात बनाने के लिए शास्त्रों में भी अपनी सुविधा के अनुसार श्लोक जोड़कर पूरी व्यवस्था को ही अँगूठा दिखा दिया । व्यक्ति को सुखी बनाने के लिए समाज बना , समाज को परिष्कृत करने और मानवीय दिशा- निर्देश देने लिए शास्त्र बने । कालान्तर में शास्त्र ही प्रमुख हो गया , समाज उससे नीचे और व्यक्ति सदियों पीछे अर्थात् आदमी मरे या जिन्दा रहे ;वह गौण और उपेक्षित हो गया । समाज उससे भी ऊपर और शास्त्र इन सबके सिर पर सवार हो गए । समाज और शास्त्र-जनित कुरीतियों ने व्यक्ति का जीवन नरक बनाने में कोई कोर -कसर नहीं छोड़ी । यही कारण है कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था होते हुए भी पूरा देश क्षेत्रीय और जातिगत संकीर्णता का शिकार हो गया है ।सारे नियमों के बावज़ूद जो शोषित थे ,वे आज भी शोषित और उपेक्षित हैं । केवल भुक्तभोगी ही उनकी पीड़ा जान सकता है , सुविधाभोगी नहीं । डॉ पूरन सिंह के लघुकथा संग्रह ‘वचन’ में इसकी अनुगूँज कई स्तरों पर सुनाई पड़ती है ।

‘रंगदारी’ लघुकथा में शोषण का विकृत और घृणित रूप सामने आता है । जिस पंचायती राज की कल्पना हमारे लोकतन्त्र में की गई थी, क्या राजन चौधरी , ओंकारनाथ और बलबीर सिंह जैसे दबंग उसे पनपने देंगे ? शायद कभी नहीं । आस्तीन का साँप , मानसिकता , समीकरण ,नाक , हाशिए के लोग लघुकथाएँ शोषण और मानसिक रुग्णता के अलग-अलग कोणों से शोषण के घृणित दर्शन की व्याख्या करती हैं । शीर्षक लघुकथा ‘वचन’ ऊँची जाति के अहंकार को धूलि-धूसरित करती नज़र आती है ।
लेखक का यह पहला संग्रह है । कुछ लघुकथाओं की प्रस्तुति से असहमति हो सकती है कि शिल्प सीधा और सपाट है ; लेकिन भुक्तभोगी की पीड़ा से असहमति नहीं होगी ।असह्य परिस्थितियों से उपजी ये लघुकथाएँ शोषितों की व्यथा को स्वर देने में सफल हुई हैं। कुछ प्रसंग -जैसे ‘अम्बेडकर का फोटो वाला प्रसंग’ कई लघुकथाओं में आ गए हैं ,कथ्य में कोई दूसरा प्रसंग लाकर इनसे बचा जा सकता था । आशा की जा सकती है कि लेखक आगामी संग्रहों में अपनी इस पड़ताल को और आगे बढ़ाएँगे।
- सम्पादक द्वय -लघुकथा डॉट कॉम
वचन ( लघुकथा -संग्रह ) : डॉ पूरन सिंह पृष्ठ” 96 ; मूल्य : 50 रुपये( पेपर बैक) ,संस्करण ;2012 ; प्रकाशक-चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु प्रकाशन मंच , ए-3 / ईस्ट गोकलपुर , अम्बेडकर मार्ग, दिल्ली -110094