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लघुकथाएँ - देश - पृथ्वीराज अरोड़ा
दु:ख

उसने पास आकर पुकारा, ‘‘मां!’’
मां ने सिलाई मशीन के रिंग को हाथ से रोकते हुए कहा, ‘‘क्या है बेटा?’’
‘‘पिताजी कब लौटैगे मां?’’
‘‘आज तुम फिर वही रोना ले बैठे। वह अब क्या आएंगे बेटा!’’ फिर थोड़ा मुस्कराकर बोली, ‘‘तू चिंता क्यों करता है.....मैं अपने लाल को पढ़ा–लिखाकर बड़ा आदमी बनाऊँगी। मेरे यह हाथ और यह सिलाई मशीन सलामत रहें। अपने बेटे के जीवन में कोई अभाव नहीं आने दूंगी।’’
‘‘मां,पिताजी गए क्यों?’’
‘‘क्या कहूँ....?’’
‘‘बताकर भी नहीं गए मां?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्यों..... क्यों मा?’’
‘‘तूने सिद्धार्थ की कहानी सुनी है....नहीं? ले, सुनाती हूँ....सिद्धार्थ कपिलवस्तु के राजकुमार थे। उनकी एक सुंदर पत्नी थी।’’
‘‘तुम्हारी जैसी मां?’’ बेटे ने बीच में टोका।
‘‘ऐसे ही समझ ले। उनका तेरे जैसा एक चांद–सा बेटा था। सब कुछ होते हुए भी सिद्धार्थ सांसारिक दु:खों को देखकर बहुत उदासीन रहते थे। इसलिए एक रात अपनी पत्नी और बच्चे को सोता छोड़कर वन की ओर चले गए.....संन्यासी हो गए......’’
‘‘परंतु मां!...वह तो कपिलवस्तु के राजकुमार थे....खूब धन–दौलत के मालिक।’’
‘‘तो?’’
‘‘पिताजी तो कहीं के राजकुमार नहीं थे। उनके घर तो केवल दो जून का खाना पकता था। फिर वह क्यों चले गए?’’
‘‘लगता है बेटे, दोनों ही दु:खों से डर गए।’’ कहते हुए मां ने मशीन के रिंग पर उंगलियाँ रखकर उसे घुमा दिया।

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