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लघुकथाएँ - देश - डा0 राजेन्द्र कुमार कनौजिया
घरौदा

सागर–तट के चारों ओर भीड़ हैं। सब अपनी–अपनी गतिविधियों में व्यस्त। दो बच्चे, एक लगभग चार–पाचँ साल की लड़की, दूसरा पाठ एक साल का लड़का, लड़का गीली रेत में हाथों को बीच में फँसा–फँसाकर घरौंदा बना रहा है। लड़की चुपचाप उसको देख रही है। घरौंदा बनाकर लड़के ने उस पर अपना ‘नाम’ लिख दिया।
‘‘क्यों अच्छा बना है ना मेरा घर’’–लड़के ने लड़की से पूछा।
लड़की थोड़ी देर चुप रही। फिर उसने एक झटके से पैर से घरौंदा मिटा दिया। लड़के की समझ में कुछ नहीं आया। मगर उसने फिर से घरौंदा बनाना शुरू कर दिया। घरौंदा बन गया, उस पर अपना नाम लिखा और फिर लड़की से पूछा–क्यों अच्छा बना है ना मेरा घर!’’
लड़की ने फिर चुपचाप थोड़ी देर देखा और फिर घरौंदा तोड़ दिया।
लड़का माना नहीं। इस बार भी उसने बड़ी मेहनत से एक और घरौंदा बना डाला, पहले से भी सुन्दर, फिर उसने लड़की की ओर देखा और अबकी बार भी प्रश्न किया–‘‘कैसा बना है मेरा घर!’’
मगर इस बार घरौंदा तोड़ने उठी लड़की के हाथ पकड़ लिए थे उसने–‘‘क्यों तोड़ती है मेरा घर।’’
लड़की ने निर्दोष भाव से उसे देखा। उसकी आँखों में आँसू भर आए। उसने चुपके से सर झुकाया। उसके नन्हे–नन्हे होठों से कुछ शब्द फूटे–तू इस पर मेरा नाम भी क्यों नहीं लिखता।

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