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बिन शीशों का चश्मा

उस दिन गाँधी जयन्ती थी। स्कूल में धूमधाम से मनाई जानी थी। गाँधी जी की मूर्ति की जरूरत पड़ी तो उसे स्कूल के कबाड़खाने में ढूँढा गया। ढूँढ़नेवाला एक अबोध बच्चा था। उसके अध्यापक ने उसे ऐसा करने को कहा था। मूर्ति वहीं एक कोने में पड़ी मिल गई। प्लास्टिक की थी। पर उसका चश्मा गायब था। बच्चे ने बहुत ढूँढ़ा पर नहीं मिला। कबाड़ के ढेर में मिलता भी तो कैसे मिलता।
बच्चा मूर्ति को झाड़–पोंछकर बाहर ले जाने लगा तो अचानक वह बोल पड़ी–‘बेटा, जरा रुको।’
बच्चा रुक गया। बोला–‘कहिए बापू, क्या कहना है?’
बच्चे के लिए वह मूर्ति, मूर्ति नहीं, बापू गाँधी ही थे।
‘बेटा मेरा चश्मा नहीं है। ऐसे में मैं कैसे देख पाऊँगा? वैसे भी मैं चश्मे के बिना मैं लोगों को किसी जोकर जैसा नजर आऊँगा। मेरा अपमान न कराओ बेटा। पहले कोई चश्मा ले आओ कहीं से।’ मूर्ति का स्वर अनुरोध भरा था।
‘ठीक है, बापू जी। मैं अपने दादा जी का चश्मा ले आता हूँ। लेकिन बापू, उस चश्मे में शीशे नहीं हैं। दादा जी के हाथों से छूटकर एक दिन पत्थर पर गिर गया था। शीशे टूट गए थे। तब से वे उसी बिन शीशे वाले चश्में को लगाए रहते हैं।’ बच्चे ने बापू की मूर्ति को बताया।
मूर्ति हँसने लगी। उसकी हँसी किसी बच्चे जैसे निर्मल थी। कहने लगी–‘फिर तुम्हारे दादा जी उस चश्मे से देखते कैसे होंगे?’
‘देखेंगे कैसे, वे तो अन्धे हैं!’
‘अन्धे हैं? तो फिर उन्हें चश्मा लगाने की क्या जरूरत है?’ आश्चर्य–चकित मूर्ति के मुँह से निकला।
‘अन्धे होने से पहले ही दादाजी चश्मा लगाया करते थे। बाद में अन्धा होने पर भी उन्होंने चश्मा नहीं उतारा। जब हमने इसका कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि चोर–लुटेरों को यह बात थोड़े ही मालूम है कि वे अन्धे हैं। घरवाले दिन में खेत में काम करने चले जाते हैं तो वे दरवाजे के पास चारपाई पर बैठें रहते हैं। लोग समझते हैं कि वे देख रहे हैं। इसलिए घर में कोई नहीं घुसता है। हम लोगों ने यह बात किसी को बताई भी नहीं है। चश्में को हाथ लगाकर यह तो कोई देखने से रहा कि वहाँ शीशे हैं कि नहीं।’ बच्चे ने सबकुछ सच–सच बता दिया।
इस पर मूर्ति ने तुरन्त कहा–‘बेटा, बस, मुझे तो उसी चश्मे की जरूरत है। आज के लिए माँग लाओ उसे अपने दादा जी से। अच्छा है, मैं भी अपने नाम पर होने वाले पाखण्डपूर्ण नाटक को नहीं देख पाऊँगा!’
कहने की जरूरत नहीं कि बच्चे ने अपने घर से उस चश्मे को लाकर मूर्ति को पहना दिया। आश्चर्य तो इस बात का था कि समारोह की समाप्ति के पश्चात जब उस बच्चे ने उस चश्मे को घर ले जाने के लिए उतारना चाहा तो वह उतरा ही नहीं। अब वह मूर्ति का स्थाई हिस्सा बन चुका था!

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