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लघुकथाएँ - देश - रंगनाथ दिवाकर
गुरु दक्षिणा

गांव महरैल का मध्य विद्यालय। एक काले–कलूटे छात्र को एक शिक्षक लगातार पीटे जा रहे थे। छात्र को जोर–जोर से चिल्लाते देख एक शिक्षक मना करते हैं। ‘‘बहुत हो गया झा जी! अब छोड़ दीजिए नहीं तो कल से विद्यालय आना ही बंद कर देगा।’’
‘‘अरे ई चोट्टा छोड़ता कहां है?’’ और लड़के को आठ–दस बेंत लगाकर हंसते हैं।
उसी समय विद्यालय में एक जीप आकर रुकती है। झा जी चुपके से बेंत हटा देते हैं। एक शिक्षक आगंतुक को पहचान जाते हैं– जिला शिक्षा अधीक्षक। कल ही तो मधुबनी में प्रभार लिया है।
जिला शिक्षा अधीक्षक महोदय की नजर उस कराहते हुए लड़के पर पड़ती है। क्षण भर ठिठककर वह मुस्कराने लगते हैं। कहते हैं, ‘‘आइये मैं आप सबों को अपना दिव्यज्ञान दिखाता हूँ।’’
स्वागत–सत्कार को नकारकर जिला शिक्षा अधीक्षक महोदय उस कराहते हुए लड़के के पास पहुँचकर कहना शुरु करते हैं।
‘‘मेरा दिव्यज्ञान कहता है कि यह लड़का निश्चित रूप से हरिजन है। इसे पिछले कई दिनों से लगातार मार पड़ रही है। इसे मारने वाले शिक्षक झा जी होंगे जो प्राय: बीस वर्षों से लगातार यहां ‘विद्यादान’ दे रहे हैं। मैं चाहूँ तो इतने शिक्षकों में से झा जी कौन हैं, यह भी बता सकता हूँ।’’
पूरा विद्यालय परिसर शांत हो गया। शिक्षकों में आश्चर्य फैल गया। कुछ देर बाद उन्होंने झा जी को पहचानते हुए पूछा, ‘‘क्यों झा जी? आश्चर्य हो रहा है न मेरे दिव्यज्ञान पर? मुझे यह दिव्यज्ञान आपकी ही छड़ी ने दिया है। किसी हरिजन को मिडिल पास न होने देने के आपके संकल्प को तोड़कर गुरु दक्षिणा चुकाने मैं आपके समझ खड़ा हूँ। नहीं पहचाना मुझे? मैं शिवचरण राम... आपका सिबुआ...’’
विद्यालय में स्तब्धता छा गयी। झा जी पसीने से तरबतर हो गये। जिला शिक्षा अधीक्षक महोदय ने कागज पर कुछ लिखा और चपरासी को दे दिया। प्राप्ति रसीद पर हस्ताक्षर करते समय झा जी का हाथ कांप रहा था।

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