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वह आम बस थी और सरूप सिंह आम डाइवर था। सवारियों ने सोचा था कि भीड़-भाड़ से बाहर आकर बस तेज हो जाएगी। पर ऐसा नहीं हुआं सरूप सिंह के हाथ आज सख्त ही नहीं, मुलायम भी थे। भारी ही नहीं, हल्के भी थे। उसका दिल आज बहुत पिंघल रहा था, वह कभी बस को, कभी सवारियों को और कभी बाहर पेड़ों को देखने लगता, जैसे वहाँ कुछ खास बात को। कंडक्टर इस राज को जानता था। लेकिन सवारियाँ धीमी गति से परेशान हो उठी।
"ड्राइवर साहब, ज्ञरा तेज चलाओ, " आगे भी जाना है", एक ने तीखेपन से कहा।
सरूप सिंह ने मिठास घोलते हुए कहा, "आज तक मेरी बस का एक्सीडेंट नहीं हुआ।"
इस पर सवारियाँ और उत्तेजित हो गईं। दो-चार ने आगे-पीछे कहा, "इसका मतलब यह नहीं कि बीस-तीस पे ढीचम-ढीचम चलाओ।"
कोशिश करके भी सरूप सिंह बस तेज्ञ नहीं कर पा रहा था। उसने बढ़ते हुए शोर में बस रोक दी। अपना छलकता चेहरा घुमाकर बोला, "बात यह है कि इस रास्ते से मेरा तीस सालों का रिश्ता है। आज मैं यह आखिरी बार बस चला रहा हूँ। बस के मुकाम पर पहुँचते ही मैं रिटायर हो जाऊँगा, इसलिए…"
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