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लघुकथाएँ - संचयन - रमेश बतरा
चलोगे

रास्ता पैदल का ही था, मगर मेरी तबीयत सुस्त थी। मैंने एक रिक्शावाले को रोक लिया, ‘‘चलोगे...स्टेशन?’’
‘‘चलूँगा जी, अपना काम ही चलना है।’’ रिक्शावाला गद्दी से उतरकर बाइज्जत बोला, ‘‘आइए, बैठिए।’’
‘‘किसी रिक्शेवाले से इतना सम्मान पाकर मैं आत्ममुग्ध हो गया। मेरी आवाज का अन्दाज ही अजब हो उठा, ‘‘कितने पैसे लेगा?’’
‘‘जो मरजी हो दे देना साहब!’’ रिक्शावाले ने कहा, मगर मुझे उसकी विनम्रता में कोई सदाशयता महसूस नहीं हुई, बल्कि वह मुझे संदेहास्पद प्रतीत होने लगा। रिक्शावाला और उसकी बोलचाल में इतना सलीका, इतनी लज्जत।...जरूर गुंडई करेगा। बिना कुछ तय किए बिठा लेगा और स्टेशन पर पहुँचकर अपने साथियों के बीच ज्यादा पैसे माँगकर मुझे जलील करेगा। इसलिए मैंने कुछ खिन्न होकर कहा, ‘‘न, तू हमें पहले ही बता दे। अपने–आप पैसे देने का झंझट मैं नहीं पालता।’’
‘‘झंझट काहे का साहेब, बीस–पच्चीस पैडल–भर का तो रास्ता है...अब तक तो पहुँच भी जाते इस्टेशन।’’
‘‘फिर तू बोल ही क्यों नहीं देता अपने मुँह से?’’ मैं अपनी बात पर अड़ा रहा। रिक्शावाले ने मुझे निगाह–भर देखा और एकदम लापरवाह होता हुआ बोला, ‘‘आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे मैं साला कोई ‘मुहर’ ही माँग लूँगा।...आइए बैठिए, मैं उधर ही जा रहा हूँ...आप वहाँ उतर जाइएगा...बस्स?’’


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