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लघुकथाएँ - संचयन - रमेश बतरा
सिर्फ़ हिन्दुस्तान में

टैक्सी दौड़ती चली जा रही थी...
मेरा लंगोटिया दोस्त चौदह बरस बाद पश्चिम की दुनिया से महीने–भर के लिए ‘अपने देश’ में सैर–सपाटा करने आया हुआ था। अपने तूफानी दौरे में से उसने एक शाम मेरे नाम कर दी थी और उस समय हम रात के वक्त एक पाँच सितारा होटल से खा–पीकर घर का रास्ता नाप रहे थे।
बातों–बातों में मैंने पूछा, ‘‘चौदह बरस...जानते हो न, यह संख्या और यह बरस हमारे यहाँ अपने–आप में मिथ बन चुके हैं, जैसे राम बनवास, पांडवों का अज्ञातवास!’’
‘‘मगर मैं बनवास काटकर नहीं आया...बल्कि सच कहूँ तो यह महीने भर की छुट्टी मुझे बनवास जैसी लग रही है।’’ दोस्त कुछ उत्तेजित हो गया, ‘‘कहते हैं न चौदह बरस बाद तो घूरे के दिन भी पलटते हैं, मगर यहाँ तो कुछ भी नहीं बदला !...जबकि पश्चिम में मेरे देखते–देखते...।’’
उसकी बात चल रही थी कि सहसा एक दोराहे पर धीमी हो चुकी टैक्सी धचकी और फिर उसका पहिया जमीन में धँस गया। हमने नीचे उतरकर देखा तो पाया कि टेलीफोन वालों ने वह जगह खोदी थी और वहाँ यों ही मिट्टी डालकर चले गए थे। दोस्त बौखला गया, ‘‘यह बेहूदगी सिर्फ़ हिन्दुस्तान में ही हो सकती है। अनपढ़ देश और मूर्ख लोग...जो काम इंजीनियर को करना चाहिए, उसे यहाँ मजदूर लोग करते हैं।’’
‘‘धीरज रखो यार,अभी दूसरी टैक्सी ले लेते हैं।’’ कहकर मैंने टैक्सी–ड्राइवर की तरफ देखा तो पाया कि वह राह जाते पाँच–छह लोगों की मदद से टैक्सी को उठाकर गड्ढे में से निकाल रहा था। तीन–चार मिनट में टैक्सी सड़क पर पहुँच गई। मददगार लोग अपने–अपने हाथ झाड़ते हुए अपनी राह चल दिए। ड्राइवर ने टैक्सी का दरवाजा खोल दिया, ‘‘आइए सर, बैठिए।’
हम दोनों चुपचाप टैक्सी में बैठ गए। टैक्सी ने फिर रफ्तार पकड़ ली। कुछ देर तक हमारे बीच चुप्पी पसरी रहीं फिर मेरा मन हुआ था कि अब मैं कोई ऐसी बात करूँ,जिससे वह खुश हो जाए...मगर तभी मेरा दोस्त बड़े गदगद भाव में बोला, ‘‘यह चमत्कार भी सिर्फ़ हिन्दुस्तान में ही हो सकता है यार!’’


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