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लघुकथाएँ - देश - रामकुमार आत्रेय
समझ

‘तुम बड़े होकर अफसर बनाना चाहते हो या कि स्वीपर? सोचकर उत्तर दो।’ एक्साइज एण्ड टैक्सेशन अधिकारी चौहान साहब ने अपने पुत्र से पूछा।
पुत्र अभी–अभी मित्र के साथ खेलकर लौटा था। चौहान साहब ने उसे घर में घुसते ही पकड़कर यह प्रश्न पूछा था।
‘अरे पापा, इसमें भी कोई सोचने की बात है क्या? मैं तो अफसर बनूँगा पापा, अफसर। ठीक आपकी तरह।’ पुत्र ने हँसते हुए उत्तर दिया था।
‘अफसर बनना है तो स्वीपर के बेटे के साथ खेलना छोड़ना होगा। तुम्हें तो मालूम ही है कि उसका बाप मेरे ही दफ्तर में स्वीपर लगा हुआ है। उसके परिवार के गुण तुझमें आ जाएंगे। अफसरों के बेटों के साथ रहोगे तो अफसर ही बनोगे। लेकिन स्वीपर के बेटे के साथ रहकर तो स्वीपर ही बन सकोगे। बड़ा बनने के लिए काम भी बड़े करने पड़ते हैं। समझे कि नहीं?’ चौहान साहब ने उसे समझाया।
‘वह मेरा मित्र है।’ पुत्र बोला।
‘मित्र तो अफसरों के बेटे भी बन सकते हैं, यदि तुम बनाओ तो।’
‘अफसरों के बेटों को तो मित्र बनाकर देख लिया। भूल गए हैं शायद आप, जब मैं पिछले वर्ष पांव फिसलने पर स्वीमिंग–पूल में डूबने लगा था तो अफसरों के बेटे दूर खड़े तमाशा देखते रहे थे। उनके लिए मेरा डूबना किसी बढि़या खेल से कम नहीं था। इसी स्वीपर के बेटे ने उस दिन अपनी जान पर खेलकर मुझे बचाया था। तब आपके उन्हीं अफसरों के बेटों की मित्रता कहाँ चली गई थी।?’
बेटे की बात सुनकर चौहान साहब के पास चुप रहने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं था।

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