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लघुकथाएँ - देश - हरदर्शन सहगल
गन्दी बातें

डरकर उठ बैठा। माथे पर हाथ चला गया–गीला–गीला...तो क्या खून? नहीं–नहीं, पसीना।
किसी ने मेरी चादर खींची थी। बिल्ली थी शायद, जो अब भाग गई थी। मां पास नहीं थी। दिल जोर से धड़कने लगा। पेशाब।
सहमता हुआ धीरे–धीरे बाथरूम की तरफ बढ़ गया।
‘‘जाने–जाँ!’’ कमरे से पापा की आवाज।
इसके साथ–हं मां की हँसी। कई बार।
उफ्,रात की बाते : सारा दिन सोचता रहा....जाने–जाँ।
शाम को खेलकर खुशी–खुशी घर लौटा।
सामने मां थी। ‘जाने–जाँ’ कहते हुए मैं मां से लिपटने लगा।
माँ ने मुझे पीछे धकेल दिया। वे मुझे न जाने क्या सोचते हुए घूर रही थीं।
मैं किसी तरह से मां को मना लेना चाहता था, ‘‘अच्छी मां, जाने–जाँ क्या होता है?’’
पलक झपकते ही एक करारा चाँटा मेरे गाल पर पड़ा।
मैं सिसकता हुआ, वापस मुड़ गया।
‘‘कल से तेरा खेल बंद! अभी चार साल का हुआ नहीं, लड़कों से गंदी बातें सीखने लगा है।’’
तो क्या पापा मां से गन्दी बातें करते हैं?
तब मां हँस क्यों रही थी? और अब?

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