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अकेला कब तक लड़ेगा जटायु

लगभग चौथे स्टेशन तक कम्पार्टमेंट से सभी यात्री उतर गये। रह गया मैं और बढ़ती जा रही ठंड के कारण रह-रह कर सिहरती, सहमी आँखों वाली वह लड़की। कम्पार्टमेंट में अनायास उपजे इस एकांत ने अनेक कल्पनाएँ मेरे मन में भर दीं—काश! पत्नी इन दिनों मायके में रह रही होती…बीमार…अस्पताल में होती…या फिर…। कल्पनाओं के इस उन्माद में अपनी सीट से उठकर मैं उसके समीप जा बैठा।
गाड़ी अगले स्टेशन पर रुकी। एक…दो…तीन नये यात्रियों ने प्रवेश किया, पूरे कम्पार्टमेंट का एक चक्कर लगाया और एक-एक कर उनमें से दो हमारे सामने वाली बर्थ पर आ टिके।
“कहाँ जाओगे?” गाड़ी चलते ही एक ने पूछा।
“शामली।” मैं बोला।
“यह?” सभ्यता का अपना लबादा उतारकर दूसरे ने पूछा।
“येयि…यह…।” मैं हकलाया।
“मैं पत्नी हूँ इनकी।” स्थिति को भाँपकर लड़की बोल उठी। अपनी दायीं बाँह से उसने मेरी बाँह को जकड़ लिया।
“ऐसी की तैसी…तेरी…और तेरे इस शौहर की।” दूसरे ने झड़ाक से एक झापड़ मुझे मारकर लड़की को पकड़ लिया।
“बचा लो…बचा लो…यों चुप न बैठो…!” मेरी बाँह को कुछ और जकड़कर लड़की भयंकर भय और विषाद से डकरा उठी। दुर्धर्ष नजर आ रहे उन गुण्डों ने बलपूर्वक उसे मेरी बाँह से छुड़ा लिया। मेरे देखते-देखते छटपटाती-चिंघाड़ती उस लड़की को कम्पार्टमेंट में वे दूसरी ओर को ले गये।
“लड़की को छोड़ दो!” उधर से अचानक चेतावनी-भरा स्वर उभरा।
यह निश्चय ही उस ओर बैठ गया तीसरा यात्री था। उस गहन रात को दनादन चीरती जा रही गाड़ी के गर्भ में उसकी चेतावनी के साथ ही हाथापाई और मारपीट प्रारम्भ हो जाने का आभास हुआ। काफी देर तक वह दौर चलता रहा। कई स्टेशन आये और गुजर गये। डिब्बे में अन्तत: नीरवता महसूस कर मैंने पेशाब के बहाने उठने की हिम्मत की। जाकर संडास का दरवाजा खोला—तीसरे का नंगा बदन वहाँ पड़ा था…लहूलुहान…जगह-जगह फटा चेहरा! आहट पाकर पल-भर को उसकी आँखें खुलीं…नजर मिलते ही आँखों के पार निकलती आँखें। ‘मर-मिटने का तिलभर भी माद्दा तुम अपने भीतर सँजोते तो लड़की बच जाती…और गुण्डे…!’ कहती, मेरे मुँह पर थूकती…थू-थू करती आँखें। उफ्फ!

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