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लघुकथाएँ - संचयन - शेफाली पाण्डेय
सच

"यह मेरे साइन नहीं हैं, बोलो तुमने ही किए हैं ना मेरे साइन". सुमन ने कड़क कर पूछा. "नहीं मैडम". तथाकथित अंग्रेज़ी माध्यम में, कक्षा तीन में पढने वाली रेखा ने डरते हुए जवाब दिया. "झूठ बोलती हो, हाथ उल्टा करके मेज़ पर रखो". रेखा ने सहमते हुए हाथ आगे किए. 'तडाक', सुमन ने लकड़ी के डस्टर से उसके कोमल हाथों पर प्रहार किया. रेखा रोने लगी. "अगर तुम सच बोल दोगी तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगी. "बोलो, कह रही किए हैं ना." "नहीं मैडम, मैं सच कह रही हूँ." सुमन गुस्से से पागल हो गई. 'तडाक, तडाक, तडाक, तडाक'. सुमन ने उन मासूम हाथों पर अनगिनत प्रहार कर डाले. रेखा से दर्द सहन नहीं हुआ तो उसने स्वीकार कर लिया कि वह साइन उसने ही किए थे. सुमन के चेहरे पर विजयी मुस्कराहट तैर गयी. 'आखिरकार, सच उगलवा ही लिया.'

शाम को घर पहुँच कर सुमन ने कॉपियों का बंडल जांचने के लिए बैग से निकाला ही था कि उसका नन्हा बेटा खेलता हुआ वहां आ गया, "मम्मी, मुझे तुम्हारी तरह कॉपी चेक करना बहुत अच्छा लगता है. प्लीज़, एक कॉपी मुझे भी दे दो." सुमन का माथा ठनका, "तूने कल भी यहाँ से कॉपी उठाई थी क्या?". "हाँ मम्मी, बहुत मज़ा आया. बिल्कुल तुम्हारी तरह कॉपी चेक करी मैंने." सुमन ने अपना माथा पकड़ लिया.

उधर, रेखा के माँ बाप उसका सूजा हुआ हाथ देख कर सन्न रह गए. दिन-रात खेतों मैं कड़ी मेहनत करने वाले उसके माता-पिता का एकमात्र उद्देश्य यही था कि उनकी बेटी कुछ पढ़-लिख जाए, "आग लगे ऐसे स्कूल को. कल से मेरे साथ खेत पर काम करने चलेगी, समझ गई. बड़ी आई स्कूल जाने वाली." माँ उसके नन्हे हाथों पर हल्दी लगाती जा रही थी और साथ ही साथ रोए भी जा रही थी.

 

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