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लघुकथाएँ - संचयन - शेफाली पाण्डेय
जंगली

विद्यालय में अपनी पहली नियुक्ति के तहत संगीता को सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में जाने का अवसर मिला. छोटे-छोटे गरीब, फटेहाल बच्चों को देखकर उसका दिल भर आया. कड़कडाती सर्दी में भी उनमें से कई के पास न गर्म कपड़े थे, न ही जूते-चप्पल. 'अगली बार घर जाऊँगी तो इनके लिए कुछ गर्म कपड़े ख़रीद लाऊँगी', संगीता ने मन ही मन सोचा.

बच्चे आँखें बंद करके प्रार्थना करने में तल्लीन थे. संगीता ने पास खड़ी प्रधानाध्यापिका से कहा,
"कितने प्यारे बच्चे हैं न मैडम?"

“प्यारे?” प्रधानाध्यापिका को जैसे करेंट मार गया हो,
"जंगली कहो मैडम जंगली, पचास सालों में भी नहीं सुधरने वाले हैं ये, देख लेना."

संगीता सकपकाकर चुप हो गयी.

प्रार्थना के पश्चात् प्रधानाध्यापिका ने बच्चों को संबोधित किया,
"बच्चों, जैसा मैंने तुम्हें कल बताया था मुझे पीलिया हुआ है, अतः मेरे लिए अपने अपने घरों से हरी सब्जियाँ ले आना. जो-जो बच्चे लाये हैं, वे नीचे मेरे घर में रख आएँ."

देखते ही देखते उनके घर में हरी सब्जियों का ढेर लग गया. संगीता प्रधानाध्यापिका की कर्मठता से बहुत प्रभावित हुई, "मैडम आपको पीलिया हुआ है और आप विद्यालय आ रही हैं. आपको घर पर आराम करना चाहिए, वरना आपकी तबीयत और बिगड़ जायेगी."
प्रधानाध्यापिका ने अपना मुँह संगीता के पास ले जाकर कहा,
"अरे मैडम, पीलिया हो मेरे दुश्मनों को. यह नाटक तो मुझे हर हफ्ते करना पड़ता है. अरे, गाँव में रहकर भी खरीद कर खाया तो क्या फायदा हुआ यहाँ रहने का? मैं तो यहाँ से ट्रांसफर की कोशिश भी नहीं करती हूँ. मेरा तो लगभग पूरा ही वेतन बच जाता है. जब यहाँ आयी थी तो मेरा हीमोग्लोबिन ८ था, अब बड़कर १३ हो गया है. अब से आप भी ऐसा ही करना."
फ़िर उन्होंने बच्चों की ओर रुख किया,
"अरे ओ चंदन, तू और गिरीश जाकर मेरे कमरे के बाहर रखे खाली सिलेंडर को ले जाकर, सड़क पर जो चाय की दुकान है, वहाँ रख देना. उसे अपने पिताजी से कहकर भरवा देना और कल स्कूल आते समय लेते आना, अच्छा."
संगीता का दिमाग जंगली शब्द पर उलझकर रह गया.

 


 

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