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लघुकथाएँ - संचयन - सतीश राठी
अपनी–अपनी आस्था

चौपाल पर गाँव के लोग इकट्ठे हुए तो धामपुर के अवतार की बात छिड़ गई। सेवा–समिति के प्रधानजी बोले,‘‘साक्षात् बाबा रामदेव पधारे हैं। कंकू के मढ़े पगल्ये बने हैं। पास ही बाबा विराजे हैं। कोढ़ी का कोढ़ मिटे। अंधे को आंख मिले। भूत–प्रेत तो बाबा को देखते ही भाग जावें हैं। निपूती की गोद हरी हो जाए, ऐसा प्रताप बाबा का है। मैं तो बाबा से मिला। अपनी दुख–चिंता कही तो बाबा ने माला से फूल तोड़कर मेरे हाथ में दे दिया। मैंने देखा तो मेरे हाथ में बाबा रामदेव की मूर्ति थी। बस, मैं तो तभी बाबा के चरणों में पाँच सौ एक रुपया चढ़ा आया।’’ गाँव वाले प्रधानजी को आदर भाव से देखते हुए उनकी हामी भरने लगे।
सरपंचजी को प्रधानजी फूटी आँखों न सुहाते थे। यह सब भला उन्हें कैसे सहन होता। तुरंत बोल पड़े, ‘‘ढोंगी है, ढोंगी। हाथ की सफाई दिखाकर सबको लूट रहा है। ऐसे भ्रम में पड़ना ही नहीं चाहिए। मैं तो पहले दिन ही चेत गया था। तहसीलदार साब को जाकर शिकायत की और कलक्टर साब को चिट्ठी लिख दी। दो–चार दिन में हथकड़ी पड़ेगी ढोंगी बाबा को।’’
तभी नौरंगी बनिया बोला, ‘‘सच्ची–झूठी तो भगवान् जाने। पर हाँ,मेला खूब भरा है। अपनो बेड़ों तो बाबा के आने से अच्छो तिर रियो है। दो बहिना में दो साल की कमाई हो गई समझ लो। नी शंतो ई सूखा गाँव में फाका मारना पड़े है।’’

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