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लघुकथाएँ - संचयन - सतीश राठी
रिश्ते

टूटी किनारेवाली, पीतल की टुच–मुच गई थाली में, अधजली, अधपकी रोटी के साथ सि‍र्फ़ प्याज के टुकड़े देखकर धनराज का माथा ठनका।
अपनी काइयाँ भाभी के मन की बात समझते हुए भी एकबारगी धनराज पूछ ही बैठा, ‘‘दाल नहीं पकाई भाभी?’’
‘‘पकाई तो हैं लालाजी, मगर सिर्फ़ तुम्हारे भैया के लिए। जानते तो हो, आजकल दाल कितनी महँगी हो गई हैं।’’ मुँह बिचकाकर भाभी ने पत्थर –से शब्द तड़ाक से फेंके ।
‘‘तो क्या महँगी होती जा रही दाल के साथ....रिश्ते इतने सस्ते हो गए हैं भाभी?’’ अपने मन में बहुत दिनों से घुमड़ रहे सच को धनराज ने किसी कड़वे लगे कौर–सा जीभ से उगल डाला।
और...भौचक भाभी....ताकती रह गई...अपने देवर का मुँह।

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