जब बेहतर डेढ़ रुपए पर ‘लैट्रिन’ साफ करने को तैयार हो गया, तब घोष बाबू के नौकर के होठों पर एक विषैली मुस्कान तैर गई।
साफ करवा लेने के बाद उसने मेहतर की ओर एक चवन्नी फेंक दी। उसके पहले कि वह गिड़गिड़ाता या हक के पैसे मांगता, घोष बाबू का नौकर ही यक–ब–यक आगबबूला होकर गरजने लगा, ‘‘....स्साले, अब कुछ बोलना मत वरना....!.....और यही तेरे लिए काफी है!...तूने कोई पहाड़ नहीं तोड़ दिया है मेरा....!’’