‘‘भगवन, एक विवाहित पुरुष ने मुझसे प्रणय–निवेदन किया।’’ महाश्रमण की शरण मे आईं अपवित्र–कुमारियों में से एक पापकर्म के प्रायश्चित का उपाय जानने के उदेश्य से बोली।
‘‘उसने किया, इसलिए पापी और अपवित्र भी वही हुआ, प्रायश्चित भी उसे ही करना चाहिए, तुमने तो कुछ किया ही नहीं, इसलिए तुम पूर्ववत् पवित्र हो।’’ महाश्रमण ने उसे आश्वस्त किया।
‘‘भगवन् !, एक गुंडे ने मेरे अंग स्पर्श किए।’’ दूसरी कुमारी बोली।
‘‘स्पर्श ही हुआ न, समागम तो नहीं?’’
‘‘नहीं भगवन्,मैंने वह नहीं होने दिया।’
‘‘फिर तो तुम पवित्र हो।’’ कहकर महाश्रमण मुस्कराए।
‘‘भगवन्, मेरे साथ तो समागम भी हो गया।’’ तीसरी कुमारी ने अपनी व्यथा कही।
‘‘स्खलन तो नहीं हुआ?’’ महाश्रमण ने पूछा।
‘‘नहीं भगवन् !, मैं थोड़ी देर बाद भाग सकने में सफल हो गई थी।’’
‘‘फिर तो तुम भी पवित्र हो।’’ महाश्रमण बोले।
‘‘भगवन्,मेरे साथ तो वह भी हुआ।’’ चौथी कुमारी बोली।
‘‘तुमने गर्भ तो धारण नहीं किया?’’
‘‘नहीं भगवन् !, मेरी कोख ने उस पाप को स्वीकार नहीं किया।’’
‘‘तब तो तुम निष्पाप हो। प्रायश्चित की कोई जरूरत नहीं है।’’ कहकर महाश्रमण ने स्नेहिल मस्कान फेंकी।
‘‘भगवन्, मैंने तो गर्भ धारण कर लिया है।’’ पाँचवी कुमारी बोली।
‘‘कोई बात नहीं, अस्पताल जाकर इस पाप से मुक्त हो जाओ। यही तुम्हारा प्रायश्चित है।’’ महाश्रमण ने आदेश दिया।
‘‘लेकिन भगवन्....’’कहते–कहते छठी कुमारी ठिठकी।
‘‘कहो–कहो, निश्शंक होकर कहो।’’ महाश्रमण ने उसे आश्वस्त किया।
‘‘.....मेरे पेट का पाप तो सात महीने का हो चुका है।’’
‘‘कोई बात नहीं। उसे इत्मीनान से जन्म देकर संघ को समर्पित कर दो और फिर किसी से विवाह कर लो।’’
‘‘लेकिन भगवन्...’’ कहते–कहते सातवीं कुमारी रुकी।
‘‘घबराओ नहीं, अपनी बात कहो।’’
‘‘भगवन्, मेरे पेट में पाप नहीं, प्यार का प्रतिदान पल रहा है। मेरे साथी ने परिस्थितियों के आगे घुटने टेक दिए और दूसरी लड़की से शादी कर ली।’’
‘‘तो तुम भी परिस्थितियों के आगे घुटने टेक दो। अस्पताल जाओ, गर्भपात कराओ और यथासमय किसी उपयुक्त व्यक्ति से विवाह कर चैन का जीवन जियो।’’
‘‘भगवन्....’’कुमारी के चेहरे पर मातृत्व लहराया।
‘‘नहीं बेटी, तुमसे पाप हुआ है। छद्म–प्यार के इस प्रतिदान से मुक्ति पाओ। उसका प्रायश्चित यही है।’’ कहकर महाश्रमण उठ गए।