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लघुकथाएँ - संचयन - बलराम
पाप और प्रायश्चित

दिल्ली विकास प्राधिकरण की रोहिणी स्कीम मे अड़तालीस स्क्वायर मीटर के प्लाट के रजिस्ट्रेशन के लिए वह मात्र अठारह सौ रुपए जुटा पाया था। अंतिम तिथि करीब थी और उसे दो सौ रुपए तत्काल चाहिए ।
उसे इस बात का गर्व था कि डेढ़ हजार से लेकर पाँच हजार रुपए प्रतिमाह तक पाने वाले कई लोग उसके मित्र हैं और आवश्यकता पड़ने पर हजार–पाँच–सौ तो कहीं से भी मिल सकते हैं। और अब जब उसे जरूरत पड़ ही गई तो सबसे पहले वह उस मित्र के पास पहुँचा, जो सबसे अधिक तनख्वाह पाता था। मित्र ने कहा कि तत्काल तो कुछ नहीं हो कसता, दो–चार दिन में कहीं से कुछ हो गया तो दे सकता हूँ।
उसके पास से उठकर वह दूसरे मित्र के पास गया तो उसने भी तत्काल कुछ दे पाने में असमर्थता जाहिर करते हुए कहा कि दफ्तर आना, वहाँ दस रुपया सैकड़ा ब्याज पर एक आदमी से दिलवा दूँगा।
तीसरा, जो उसका अंतरंग था, मात्र पचास रुपए दे पाया।
लौटकर वह अपने घर के सामने चारपाई पर उदास बैठा था कि पड़ोसी किराएदार रामदास उसके पास आया और उदासी का कारण पूछा।
जैसे ही उसने स्थिति बताई, रामदास ने अपनी जेब से पखवारे की आज ही मिली पूरी पगार निकालकर उसके सामने रख दी और बोला, ‘‘जितने चाहिए, रख लो।’’

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